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फिल्‍म समीक्षा : बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया

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फिल्‍म रिव्‍यू दमदार और मजेदार बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया -अजय ब्रह्मात्‍मज शशांक खेतान की ‘ बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया ’ खांटी मेनस्‍ट्रीम मसाला फिल्‍म है। छोटे-बड़े शहर और मल्‍टीप्‍लेक्‍स-सिंगल स्‍क्रीन के दर्शक इसे पसंद करेंगे। यह झांसी के बद्रीनाथ और वैदेही की परतदार प्रेमकहानी है। इस प्रेमकहानी में छोटे शहरों की बदलती लड़कियों की प्रतिनिधि वैदेही है। वहीं परंपरा और रुढि़यों में फंसा बद्रीनाथ भी है। दोनों के बीच ना-हां के बाद प्रेम होता है,लेकिन ठीक इंटरवल के समय वह ऐसा मोड़ लेता है कि ‘ बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया ’ महज प्रेमकहानी नहीं रह जाती। वह वैदेही सरीखी करोड़ों लड़कियों की पहचान बन जाती है। माफ करें,वैदेही फेमिनिज्‍म का नारा नहीं बुलंद करती,लेकिन अपने आचरण और व्‍यवहार से पुरुष प्रधान समाज की सोच बदलने में सफल होती है। करिअर और शादी के दोराहे पर पहुंच रही सभी लड़कियों को यह फिल्‍म देखनी चाहिए और उन्‍हें अपने अभिभावकों   को भी दिखानी चाहिए। शशांक खेतान ने करण जौहर की मनोरंजक शैली अपनाई है। उस शैली के तहत नाच,गाना,रोमांस,अच्‍छे लोकेशन,भव्‍य सेट और लकदक परिधान से सजी इ

करण जौहर से रघुवेन्‍द्र सिंह की बातचीत

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करण जौहर का यह इंटरव्‍यू रघुवेन्‍द्र सिंह ने लिया है। य‍ह इंटरव्‍यू फिल्‍मफेयर में छप चुका है। करण जौहर के व्‍यक्तित्‍व के विभिन्‍न पहलुओं को टच करता यह इंटरव्‍यू उनके बारे में विस्‍तृत जानकारी देता है। करण हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री के कर्णधार हैं। Karan Johar -Raghuvendra Singh Karan Johar is one of the most influential names in Hindi cinema. Raghuvendra Singh catches him in a candid mood talking about films, friends, insecurities and relationships Karan Johar has the reputation of being a serious name of influence in the film industry. Whether it’s the A-list stars or the budding new talent, everyone is friends with KJo. He’s that rare breed of filmmaker and celebrity that even dwarfs the aura of some superstars. But Karan Johar is not the proverbial star with an entourage and LV and Gucci embellishments. That part is just a small brooch on the flawlessly style Armani suit that KJo fits into like a glove. The real Karan Johar is a man who drives endlessly establishi

बॉम्‍बे वेल्‍वेट : किरदार और कलाकार

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किरदार और कलाकार -कायजाद खंबाटा/करण जौहर दक्षिण मुंबई का कायजाद खंबाटा एक अखबार का मालिक है। पहली मुलाकात में ही वह जॉनी बलराज को ताड़ लेता है। वह उसकी महत्वाकांक्षाओं को हवा देता है। साथ ही कभी-कभार उसके पंख भी कतरता रहता है। धूर्त, चालाक और साजिश में माहिर खंबाटा के जटिल किरदार को पर्दे पर करण जौहर ने निभाया है।     ‘बॉम्बे वेल्वेट’ मेरी दुनिया और मेरी फिल्मों की दुनिया से बिल्कुल अलग है। अनुभवों के बावजूद इस फिल्म की शूटिंग के दौरान मैं अनुराग को कोई सलाह नहीं दे सकता था। मैं तो वहां एक छात्र था। अनुराग से सीख रहा था। मेरी फिल्में लाइट के बारे में होती हैं। यह डार्क फिल्म है। मैं स्विचबोर्ड हूं तो यह फ्यूज है। बतौर एक्टर मैंने सिर्फ अनुराग के निर्देशों का पालन किया है।     फिल्म का माहौल और किरदार दोनों ही मेरे कंफर्ट जोन के बाहर के थे। अनुराग मेरे बारे में श्योर थे। उनके जेहन में मेरे किरदार की तस्वीर छपी हुई थी। वे खंबाटा के हर एक्शन-रिएक्शन के बारे में जानते थे। मुझे उन्हें फॉलो करना था। अनुराग ने कहा था कि हर इंसान के अंदर एक डार्क स्ट्रिक होता है। मुझे अपने अंदर से उसी हैव

फिल्‍म समीक्षा : बॉम्‍बे वेल्‍वेट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज स्टार : 4.5 हिंदी सिनेमा में इधर विषय और प्रस्तुति में काफी प्रयोग हो रहे हैं। पिछले हफ्ते आई ‘पीकू’ दर्शकों को एक बंगाली परिवार में लेकर गई, जहां पिता-पुत्री के बीच शौच और कब्जियत की बातों के बीच ही जिंदगी और डेवलपमेंट से संबंधित कुछ मारक बातें आ जाती हैं। फिल्म रोजमर्रा जिंदगी की मुश्किलों में ही हंसने के प्रसंग खोज लेती है। इस हफ्ते अनुराग कश्यप की ‘बॉम्बे वेल्वेट’ हिंदी सिनेमा के दूसरे आयाम को छूती है। अनुराग कश्यप समाज के पॉलिटिकल बैकड्राप में डार्क विषयों को चुनते हैं। ‘पांच’ से ‘बॉम्बे वेल्वेट’ तक के सफर में अनुराग ने बॉम्बे के किरदारों और घटनाओं को बार-बार अपनी फिल्मों का विषय बनाया है। वे इन फिल्मों में बॉम्बे को एक्स प्लोर करते रहे हैं। ‘बॉम्बे वेल्वेेट’ छठे दशक के बॉम्बे की कहानी है। वह आज की मुंबई से अलग और खास थी। अनुराग की ‘बॉम्बे वेल्वेट’ 1949 में आरंभ होती है। आजादी मिल चुकी है। देश का बंटवारा हो चुका है। मुल्तान और सियालकोट से चिम्मंन और बलराज आगे-पीछे मुंबई पहुंचते हैं। चिम्मन बताता भी है कि दिल्ली जाने वाली ट्रेन में लोग कट रहे थे, इसलिए वह ब

बांबे वेलवेट 15 मई 2015

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 अनुराग कश्‍यप की फिल्‍म बांबे वेलवेट 15 मई 2015 को रिलीज होगी। इस फिल्‍म के बारे में इन दिनों बहुत ज्‍यादा कयास लगाए जा रहे हैं। ज्‍यादातर कयास निगेटिव हैं। अनुराग समर्थक और विरोधी दोनों ही असमंजस में हैं। समर्थकों को लग रहा है कि अनुराग कश्‍यप  लंबे संघर्ष के बाद परिधि से केंद्र की तरफ तेजी से बढ़ने में बदल गए हैं। उनकी सोहबत बदली है। वे पुराने साथियों के लिए पहले की तरह समय नहीं निकाल पाते।  पुराने साथी उनकी इस प्रगति के साथ स्‍वयं को व्‍यवस्थित नहीं कर पा रहे हैं।  दूसरी तरफ पिरोधियों को उनकी प्रगति और ताकत नहीं सोहाती। वे अभी से भविष्‍यवाणियां कर रहे हैं कि अनुराग कश्‍यप की इस फिल्‍म से निर्माता को भारी नुकसान होगा। बगैर किसी आधार की उनकी इन भविष्‍यवाणियों से समर्थकों की शंकाएं बढ़ जाती हैं। नतीजा यह होता है कि बांबे वेलवेट के प्रदर्शन के बाक्‍स आफिस परिणामों की चिुता में व्‍यर्थ ही सभी घुलते जा रहे हैं। इस फिल्‍म में रणवीर कपूख्,करण जौहर और अनुष्‍का शर्मा यूनिक किरदारों को निभा रहे हैं। इस पीरियड फिल्‍म में वे सातवें दशक के किरदारों में हैं। कहा जा रहा है कि उन्‍होंने इन

फिल्में बड़ी होती हैं या फिल्ममेकर?

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अजय ब्रह्मात्मज आज एक खबर आई है कि करण जौहर ऐश्वर्या राय बच्चन, रणबीर कपूर और अनुष्का शर्मा के साथ 'ऐ दिल है मुश्किल' फिल्म का निर्देशन करेंगे। यह फिल्म 2016 में 3 जून को रिलीज होगी। इस खबर के आने के साथ सोशल मीडिया से लेकर फिल्म इंडस्ट्री के गलियारे में उन्हें बधाई देने के साथ चर्चा गर्म है कि चार सालों के बाद आ रही इस फिल्म में हम सोच और संवेदना के स्तर पर भिन्न करण जौहर को देखेंगे। यों यह खबर प्रायोजित है और फिल्म के प्रचार का पहला कदम है। पर चूंकि खबर में चार लोकप्रिय हस्तियां शामिल हैं,इसलिए मीडिया इसे स्वाभाविक रूप से महत्व देता रहेगा। अभी से अगले साल जून तक किसी न किसी रूप में 'ऐ दिल है मुश्किल' से संबंधित खबरें बनी रहेंगी। इन दिनों प्रतिभा और कौशल से अधिक लोकप्रियता को महत्व दिया जा रहा है। यही कारण है कि किसी भी नई फिल्म की चर्चा में फिल्म के विषय से अधिक स्टार और डायरेक्टर का जिक्र होता है। पिछले कुछ समय से लोकप्रियता का अहंकार फिल्मों की घोषणाओं और सूचनाओं में दिखने लगा है। ट्रेड और मार्केटिंग के पंडित इसे अपने प्रोडक्ट (यहां फिल्म) की प्ले

फिल्‍म समीक्षा : हंप्‍टी शर्मा की दुल्‍हनिया

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  हिदी फिल्मों की नई पीढ़ी का एक समूह हिंदी फिल्मों से ही प्रेरणा और साक्ष्य लेता है। करण जौहर की फिल्मों में पुरानी फिल्मों के रेफरेंस रहते हैं। पिछले सौ सालों में हिंदी फिल्मों का एक समाज बन गया है। युवा फिल्मकार जिंदगी के बजाय इन फिल्मों से किरदार ले रहे हैं। नई फिल्मों के किरदारों के सपने पुरानी फिल्मों के किरदारों की हकीकत बन चुके हरकतों से प्रभावित होते हैं। शशांक खेतान की फिल्म 'हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया' आदित्य चोपड़ा की फिल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' की रीमेक या स्पूफ नहीं है। यह फिल्म सुविधानुसार पुरानी फिल्म से घटनाएं लेती है और उस पर नए दौर का मुलम्मा चढ़ा देती है। शशांक खेतान के लिए यह फिल्म बड़ी चुनौती रही होगी। उन्हें पुरानी फिल्म से अधिक अलग नहीं जाना था और एक नई फिल्म का आनंद भी देना था। चौधरी बलदेव सिंह की जगह सिंह साहब ने ले ली है। अमरीश पुरी की भूमिका में आशुतोष राणा हैं। समय के साथ पिता बदल गए हैं। वे बेटियों की भावनाओं को समझते हैं। थोड़ी छूट भी देते हैं, लेकिन वक्त पडऩे पर उनके अंदर का बलदेव सिंह जाग जाता

अपेक्षाएं बढ़ गई हैं प्रेमियों की-शशांक खेतान

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-अजय ब्रह्मात्मज     धर्मा प्रोडक्शन की ‘हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया’ के निर्देशक शशांक खेतान हैं। यह उनकी पहली फिल्म है। पहली ही फिल्म में करण जौहर की धर्मा प्रोडक्शन का बैनर मिल जाना एक उपलब्धि है। शशांक इस सच्चाई को जानते हैं। ‘हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया ’ के लेखन-निर्देशन के पहले शशांक खेतान अनेक बैनरों की फिल्मों में अलग-अलग निर्देशकों के सहायक रहे। मूलत: कोलकाता के खेतान परिवार से संबंधित शशांक का बचपन नासिक में बीता। वहीं पढ़ाई-लिखाई करने के दरम्यान शशांक ने तय कर लिया था कि फिल्मों में ही आना है। वैसे उन्हें खेल का भी शौक रहा है। उन्होंने टेनिस और क्रिकेट ऊंचे स्तर तक खेला है। शुरू में वे डांस इंस्ट्रक्टर भी रहे। मुंबई आने पर उन्होंने सुभाष घई के फिल्म स्कूल ह्विस्लिंग वूड्स इंटरनेशनल में दाखिला लिया। ज्यादा जानकारी न होने की वजह से उन्होंने एक्टिंग की पढ़ाई की। पढ़ाई के दरम्यान उनकी रुचि लेखन और डायरेक्शन में ज्यादा रही। टीचर कहा भी करते थे कि उन्हें फिल्म डायरेक्शन पर ध्यान देना चाहिए। दोस्तों और शिक्षकों के प्रोत्साहन से शशांक ने ‘ब्लैक एंड ह्वाइट’ और ‘युवराज’ में सुभाष घई के

फिल्‍म समीक्षा : गोरी तेरे प्‍यार में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  धर्मा प्रोडक्शन के बैनर तले बनी पुनीत मल्होत्रा की फिल्म 'गोरी तेरे प्यार में' पूरी तरह से भटकी, अधकचरी और साधारण फिल्म है। ऐसी सोच पर फिल्म बनाने का दुस्साहस करण जौहर ही कर सकते थे। करण जौहर स्वयं क्रिएटिव और सफल निर्देशक हैं। उन्होंने कुछ बेहतरीन फिल्मों का निर्माण भी किया है। उनसे उम्मीद रहती है, लेकिन 'गोरी तेरे प्यार में' वे बुरी तरह से चूक गए हैं। जोनर के हिसाब से यह रोमांटिक कामेडी है। इमरान खान और करीना कपूर जैसे कलाकारों की फिल्म के प्रति दर्शकों की सहज उत्सुकता बन जाती है। अफसोस है कि इस फिल्म में दर्शकों की उत्सुकता भहराकर गिरेगी। दक्षिण भारत के श्रीराम (इमरान खान) और उत्तर भारत की दीया (करीना कपूर) की इस प्रेमकहानी में कुछ नए प्रसंग,परिवेश और घटनाएं हैं। उत्तर-दक्षिण का एंगल भी है। ऐसा लगता है कि लेखक-निर्देशक को हीरो-हीरोइन के बीच व्यक्ति और समाज का द्वंद्व का मसाला अच्छा लगा। उन्होंने हीरोइन की सामाजिक प्रतिबद्धता को हीरो के प्रेम में अड़चन की तरह पेश किया है। हाल-फिलहाल तक हीरोइन का साथ और हाथ हासिल करने के लिए ही

दरअसल : पहले किरण, अब करण

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-अजय ब्रह्मात्मज     खबर आई है कि इरफान और नवाजुद्दीन सिद्दिकी की फिल्म ‘लंचबॉक्स’ अगले महीने भारत के  थिएटरों में रिलीज होगी। यह फिल्म मशहूर निर्माता-निर्देशक करण जौहर को बहुत अच्छी लगी है। संयोग ऐसा था कि करण जौहर के साथ ही मैंने यह फिल्म देखी थी। फिल्म के इंटरवल और समाप्त होने पर करण जौहर ‘लंचबॉक्स’ के निर्देशक रितेश बत्रा से जिस दिलचस्पी के साथ बात कर रहे थे उसी से लगा था कि उन्हें फिल्म बहुत पसंद आई है। उस शो में शेखर कपूर भी थे। वे भी इस फिल्म को देख कर आह्लादित थे। ‘लंचबॉक्स’ इस साल कान फिल्म फेस्टिवल में भी सराही गई थी। हाल फिलहाल में ऐसी अनेक फिल्में आईं हैं जिन्हें विभिन्न फेस्टिवल में अच्छी सराहना मिली है। फिर भी स्टार वैल्यू के अभाव में ये फिल्में आम थिएटर में रिलीज नहीं हो पा रही हैं। इंडस्ट्री में कानाफूसी चलने लगी है कि पैरेलल सिनेमा की तरह फिर से ऐसी फिल्मों का दौर आ गया है जिन्हें हम केवल फेस्टिवल में ही देखते हैं। वास्तव में यह कानाफूसी फिल्म इंडस्ट्री की बेरूखी जाहिर करती है। करण जौहर ने ‘लंचबॉक्स’ के वितरण की पहल दिखा कर अच्छा उदाहरण दिया है।     पिछले महीने ज

फिल्‍म समीक्षा : बॉम्‍बे टाकीज

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- अजय ब्रह्मात्‍मज  भारतीय सिनेमा की सदी के मौके पर मुंबई के चार फिल्मकार एकत्रित हुए हैं। सभी हमउम्र नहीं हैं, लेकिन उन्हें 21वीं सदी के हिंदी सिनेमा का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। फिल्म की निर्माता और वायकॉम 18 भविष्य में ऐसी चार-चार लघु फिल्मों की सीरिज बना सकते हैं। जब साधारण और घटिया फिल्मों की फ्रेंचाइजी चल सकती है तो 'बॉम्बे टाकीज' की क्यों नहीं? बहरहाल, यह इरादा और कोशिश ही काबिल-ए-तारीफ है। सिनेमा हमारी जिंदगी को सिर्फ छूता ही नहीं है, वह हमारी जिंदगी का हिस्सा हो जाता है। भारतीय संदर्भ में किसी अन्य कला माध्यम का यह प्रभाव नहीं दिखता। 'बॉम्बे टाकीज' करण जौहर, दिबाकर बनर्जी, जोया अख्तर और अनुराग कश्यप के सिनेमाई अनुभव की संयुक्त अभिव्यक्ति है। चारों फिल्मों में करण जौहर की फिल्म सिनेमा के संदर्भ से कटी हुई है। वह अस्मिता और करण जौहर को निर्देशकीय विस्तार देती रिश्ते की अद्भुत कहानी है। करण जौहर - भारतीय समाज में समलैंगिकता पाठ, विमर्श और पहचान का विषय बनी हुई है। यह लघु फिल्म अविनाश के माध्यम से समलैंगिक अस्मिता को रेखांकित करने के साथ उसे समझ