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फिल्‍म समीक्षा : हरामखोर

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फिल्‍म रिव्‍यू हरामखोर -अजय ब्रह्मात्‍मज ऐसी नहीं होती हैं हिंदी फिल्‍में। श्‍लोक शर्मा की ‘ हरामखोर ’ को किसी प्रचलित श्रेणी में डाल पाना मुश्किल है। हिंदी फिल्‍मों में हो रहे साहसी प्रयोगों का एक नमूना है ‘ हरामखोर ’ । यही वजह है कि यह फिल्‍म फेस्टिवलों में सराहना पाने के बावजूद केंद्रीय फिल्‍म प्रमाणन बोर्ड(सीबीएफसी) में लंबे समय तक अटकी रही। हम 2014 के बाद फिल्‍मों के कंटेंट के मामले में अधिक सकुंचित और संकीर्ण हुए हैं। क्‍यों और कैसे ? यह अलग चर्चा का विषय है। ‘ हरामखोर ’ सीबीएफसी की वजह से देर से रिलीज हो सकी। इस बीच फिल्‍म के सभी कलकारों की उम्र बढ़ी और उनकी दूसरी फिल्‍में आ गईं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी और श्‍वेता त्रिपाठी दोनों ही ‘ हरामखोर ’ के समय अपेक्षाकृत नए कलाकार थे। यह फिल्‍म देखते हुए कुछ दर्शकों को उनके अभिनय का कच्‍चापन अजीब लग सकता है। हालांकि इस फिल्‍म कि हसाब से वही उनकी खूबसूरती और प्रभाव है,लेकिन नियमित दर्शकों को दिक्‍कत और परेशानी होगी। 20-25 सालों के बाद फिल्‍म अधेताओं को याद भी नहीं रहेगा कि यह ‘ मसान ’ और ‘ बजरंगी भाईजान ’ व ‘ रमन राघव2.0

फिल्‍म समीक्षा : मसान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज          बनारस इन दिनों चर्चा में है। हिंदी फिल्मों में आरंभ से ही बनारस की छवियां भिन्न रूपों में दिखती रही हैं। बनारस का आध्यात्मिक रहस्य पूरी दुनिया को आकर्षित करता रहा है। बनारस की हवा में घुली मौज-मस्ती के किस्से यहां की गलियों और गालियों की तरह नॉस्टैलजिक असर करती हैं। बनारस की चर्चा में कहीं न कहीं शहर से अनजान प्रेमी उसकी जड़ता पर जोर देते हैं। उनके विवरण से लगता है कि बनारस विकास के इस ग्लोबल दौर में ठिठका खड़ा है। यहां के लोग अभी तक ‘रांड सांढ सीढी संन्यासी, इनसे बचो तो सेवो कासी’ की लोकोक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि बनारस भी समय के साथ चल रहा है। देश के वर्त्तमान प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है बनारस। हर अर्थ में आधुनिक और समकालीन। प्राचीनता और आध्यात्मिकता इसकी रगों में है।             नीरज घेवन की ‘मसान’ इन धारणाओं को फिल्म के पहले फ्रेम में तोड़ देती है। इस फिल्मा के जरिए हम देवी, दीपक, पाठक, शालू, रामधारी और झोंटा से परिचित होते हैं। जिंदगी की कगार पर चल रहे ये सभी चरित्र अपनी भावनाओं और उद्वेलनों से शहर की जातीय, लैंगिक और आर्थ