Posts

Showing posts with the label महिलायें

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:आखिरी दशक

पिछली सदी का आखिरी दशक कई अभिनेत्रियों के लिए याद किया जायेगा.सबसे पहले काजोल का नाम लें.तनुजा की बेटी काजोल ने राहुल रवैल की 'बेखुदी'(१९९२) से सामान्य शुरुआत की.'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' उनकी और हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री की अभी तक सबसे ज्यादा हफ्तों तक चलनेवाली फ़िल्म है.यह आज भी मुम्बई में चल ही रही है. ऐश्वर्या राय १९९४ में विश्व सुंदरी बनीं और अगला कदम उन्होंने फिल्मों में रखा,उन्होंने मणि रत्नम की फ़िल्म 'इरुवर'(१९९७) से शुरूआत की.आज वह देश की सबसे अधिक चर्चित अभिनेत्री हैं और उनके इंटरनेशनल पहचान है.जिस साल ऐश्वर्या राय विश्व सुंदरी बनी थीं,उसी साल सुष्मिता सेन ब्रह्माण्ड सुंदरी घोषित की गई थीं.सुष्मिता ने महेश भट्ट की 'दस्तक'(१९९६) से फिल्मी सफर आरंभ किया. रानी मुख़र्जी 'राजा की आयेगी बारात' से फिल्मों में आ गई थीं,लेकिन उन्हें पहचान मिली विक्रम भट्ट की 'गुलाम' से.'कुछ कुछ होता है' के बाद वह फ़िल्म इंडस्ट्री की बड़ी लीग में शामिल हो गयीं.इस दशक की संवेदनशील अभिनेत्री ने तब्बू ने बाल कलाकार के तौर पर देव आनंद की फ़ि

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:नौवां दशक

नौवें दशक में आई मधुर मुस्कान माधुरी दीक्षित को दर्शक नहीं भूल पाये हैं.धक्-धक् गर्ल के नाम से मशहूर हुई इस अभिनेत्री ने अपने नृत्य और अभिनय से सचमुच दर्शकों की धड़कनें बढ़ा दी थीं.राजश्री कि १९८४ में आई 'अबोध' से उनका फिल्मी सफर आरंभ हुआ.उनकी पॉपुलर पहचान सुभाष घई की 'राम लखन' से बनी.'तेजाब'के एक,दो ,तीन.... गाने ने तो उन्हें नम्बर वन बना दिया.माधुरी की तरह ही जूही चावला की १९८४ में आई पहली फ़िल्म 'सल्तनत' पर दर्शकों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया.हाँ,१९८८ में आमिर खान के साथ 'कयामत से कयामत तक' में वह सभी को पसंद आ गयीं. श्रीदेवी की 'सोलवा सावन' भी नहीं चली थी,लेकिन १९८३ में जीतेन्द्र के साथ 'हिम्मतवाला' में उनके ठुमके भा गए .पद्मिनी कोल्हापुरे कि शुरूआत तो देव आनंद की 'इश्क इश्क इश्क' से हो गई थी,लेकिन उन्हें दर्शकों ने राज कपूर की 'सत्यम शिवम् सुन्दरम' से पहचाना.इस फ़िल्म में उन्होंने जीनत अमन के बचपन का रोल किया था.इस दशक की अन्य अभिनेत्रियों में अमृता सिंह,मंदाकिनी,किमी काटकर आदि का उल्लेख किया जा सकता है.

हिन्दी फिल्म:महिलायें:आठवां दशक

आठवां दशक हर लिहाज से खास और अलग है.श्याम बेनेगल ने १९७४ में 'अंकुर' फ़िल्म में शबाना आज़मी को मौका दिया.उनकी इस कोशिश के पहले किसी ने सोचा नहीं था कि साधारण नैन-नक्श की लड़की हीरोइन बन सकती है.मशहूर शायर कैफी आज़मी की बेटी शबाना ने साबित किया कि वह असाधारण अभिनेत्री हैं.उनके ठीक पीछे आई स्मिता पाटिल ने भी दर्शकों का दिल जीता.हालांकि हेमा मालिनी को राज कपूर की फ़िल्म 'सपनों का सौदागर' १९६८ में ही मिल चुकी थी,लेकिन १९७० में देव आनंद के साथ'जॉनी मेरा नाम' से हेमा के हुस्न का ऐसा जादू चला कि आज तक उसका असर बरकरार है.एक और अभिनेत्री हैं इस दौर की,जो उम्र बढ़ने के साथ अपना रहस्य गहरा करती जा रही हैं.जी हाँ, रेखा के ग्लैमर की घटा 'सावन भादो' से छाई.अमिताभ और रेखा की जोड़ी ने इस दशक में दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया.अपने अलग अंदाज और अभिनय के लिए सिम्मी गरेवाल जानी गयीं.सफ़ेद कपडों में वह आज भी टीवी पर अवतरित होती हैं तो दर्शक उनकी मृदुता के कायल होते हैं.१९७३ में राज कपूर की 'बॉबी' से आई डिंपल कपाडिया पहली फ़िल्म के बाद ही राजेश खन्ना के घर में गायब

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:सातवां दशक

क्या आप ने आयशा सुलतान का नाम सुना है?चलिए एक हिंट देता है चवन्नी.वह नवाब मंसूर अली खान पटौदी की बीवी है.जी,सही पहचाना- शर्मिला टैगोर . शर्मीला टैगोर को सत्यजित राय ने 'अपु संसार' में पहला मौका दिया था.उन्होंने सत्यजित राय के साथ चार फिल्मों में काम किया,तभी उन पर हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री की नज़र पड़ी.शक्ति सामन्त ने उन्हें 'कश्मीर की कली' के जरिये हिन्दी दर्शकों से परिचित कराया. जया भादुड़ी की पहली हिन्दी फ़िल्म 'गुड्डी' १९७१ में आई थी,लेकिन उन्हें सत्यजित राय ने 'महानगर' में पहला मौका दिया था.दारा सिंह की हीरोइन के रूप में मशहूर हुई मुमताज की शुरूआत बहुत ही साधारण रही,लेकिन अपनी मेहनत और लगन से वह मुख्य धारा में आ गयीं.राजेश खन्ना के साथ उनकी जोड़ी जबरदस्त पसंद की गई. साधना इसी दशक में चमकीं.नाजी हुसैन ने आशा पारेख को 'दिल देके देखो' फ़िल्म १९५९ में दी,लेकिन इस दशक में वह लगातार उनकी पाँच फिल्मों में दिखाई पड़ीं.वह हीरोइन तो नही बन सकीं,लेकिन उनकी मौजूदगी दर्शकों ने महसूस की. हेलन को कोई कैसे भूल सकता है?उनके नृत्य के जलवों से फिल्में कामयाब होती

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:छठा दशक

देश की आज़ादी बाद के इस दशक को हिन्दी फिल्मों का स्वर्णकाल माना जाता है.पिछले दशक में आ चुकी नरगिस और मधुबाला की बेहतरीन फिल्में इस दशक में आयीं.आज हम जिन निर्देशकों के नाम गर्व से लेते हैं,वे सब इसी दशक में सक्रिय थे.राज कपूर,बिमल राय,के आसिफ,महबूब खान,गुरु दत्त सभी अपनी-अपनी तरह से बाज़ार की परवाह किए बगैर फिल्में बना रहे थे। इस दशक की बात करें तो शोभना समर्थ ने अपनी बेटी नूतन को 'हमारी बेटी' के साथ पेश किया.नूतन का सौंदर्य अलग किस्म का था.उन्हें 'सीमा' के लिए फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला.१९६३ में आई 'बंदिनी' में कल्याणी की भूमिका में नूतन ने भावपूर्ण अभिनय किया.इसी दशक में दक्षिण से वैजयंतीमाला आयीं.वह प्रशिक्षित नृत्यांगना थीं.उनके लिए फिल्मों में डांस दृश्य रखे जाने लगे.वह काफी मशहूर रहीं अपने दौर में.कहते हैं राज कपूर ने निम्मी को सबसे पहले महबूब खान की 'अंदाज' के सेट पर देखा था,उन्होंने तभी 'बरसात' में निम्मी को छोटी सी भूमिका दी थी.उन्हें यह नाम भी राज कपूर ने ही दिया था.महबूब खान की प्रयोगशीलता गजब की थी.उन्होंने पश्चिम की फिल्मों प्रभावित

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:पांचवा दशक

पांचवे दशक की शुरूआत बहुत अच्छी रही.महबूब खान ने १९४० में 'औरत' नाम की फ़िल्म बनाई.इस फ़िल्म को ही बाद में उन्होंने 'मदर इंडिया' नाम से नरगिस के साथ बनाया.'औरत' की सरदार अख्तर थीं.उन्होंने इस फ़िल्म के पश्चात् महबूब खान के साथ शादी कर ली थी.इस दौर में फिल्मों में पीड़ित नायिकाओं की अधिकता दिखाई देती है.इसके अलावा फिल्मों के सवक होने से नाच-गाने पर जोर दिया जाने लगा.ऐसी अभिनेत्रियों को अधिक मौके मिले]जो नाच और गा सकती थीं. खुर्शीद ने 'भक्त सूरदास'(१९४३) ,'तानसेन'(१९४३) और 'पपीहा रे'(१९४८) से दर्शकों को झुमाया.देश के बँटवारे के बाद खुर्शीद पाकिस्तान चली गयीं.एक और मशहूर अभिनेत्री और गायिका ने पाकिस्तान का रूख किया था.उनका नाम नूरजहाँ था।महबूब खान के 'अनमोल घड़ी'(१९४६) के गीत आज भी कानों में रस घोलते हैं.भारत में उनकी आखिरी फ़िल्म दिलीप कुमार के साथ 'जुगनू' थी.खुर्शीद और नूरजहाँ तो पाकिस्तान चली गयीं,लेकिन सुरैया ने यहीं रहम का फैसला किया. वजह सभी जानते हैं.हालांकि उनकी मुराद पूरी नहीं हो सकी.सुरैया की पहली फ़िल्म 'ताजम

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:चौथा दशक

चौथे दशक के क्रांतिकारी फिल्मकार थे वी शांताराम .उनहोंने १९३४ में 'अमृत मंथन' नाम की फ़िल्म बनाई थी और हिंदू रीति-रिवाजों में प्रचलित हिंसा पर सवाल उठाये थे.१९३६ में बनी उनकी फ़िल्म'अमर ज्योति' में पहली बार नारी मुक्ति की बात सुनाई पड़ी.इस फ़िल्म की नायिका दुर्गा खोटे थीं.यह फ़िल्म वेनिस के इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में भी दिखाई गई थी.१९३१ में आर्देशर ईरानी की पहली बोलती फ़िल्म 'आलम आरा' आई थी.इस फ़िल्म की हीरोइन जुबैदा थीं.जुबैदा देश की पहली महिला निर्माता और निर्देशक बेगम फातिमा सुल्ताना की बेटी थीं.इस दौर की हंटरवाली अभिनेत्री को कौन भूल सकता है? नाडिया ने अपने हैरतअंगेज कारनामों और स्टंट से सभी को चकित कर दिया था. उनका असली नाम मैरी एवंस था.'बगदाद का जादू','बंबईवाली','लुटेरू ललना' और 'पंजाब मेल' जैसी फिल्मों से उन्होंने अपना अलग दर्शक समूह तैयार किया.एक तरफ नाडिया का हंटर चल रहा था तो दूसरी तरफ़ रविंद्रनाथ ठाकुर की पोती देविका रानी का फिल्मों में पदार्पण हुआ.उन्होंने बाद में हिमांशु राय से शादी कर ली.दोनों ने मिलकर बांबे टॉ

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:तीसरा दशक

Image
ललिता पवार कानन देवी आज ८ मार्च है.पूरी दुनिया में यह दिन महिला दिवस के तौर पर मनाया जाता है.चवन्नी ने सोचा कि क्यों न सिनेमा के परदे की महिलाओं को याद करने साथ हीउन्हें रेखांकित भी किया जाए.इसी कोशिश में यह पहली कड़ी है.इरादा है कि हर दशक की चर्चित अभिनेत्रियों के बहाने हम हिन्दी सिनेमा को देखें.यह एक परिचयात्मक सीरीज़ है। तीसरा दशक सभी जानते हैं के दादा साहेब फालके की फ़िल्म 'हरिश्चंद्र तारामती' में तारामती की भूमिका सालुंके नाम के अभिनेता ने निभाई थी.कुछ सालों के बाद फालके की ही फ़िल्म 'राम और सीता' में उन्होंने दोनों किरदार निभाए।इस दौर में जब फिल्मों में अभिनेत्रियों की मांग बढ़ी तो सबसे पहले एंगलो-इंडियन और योरोपीय पृष्ठभूमि के परिवारों की लड़कियों ने रूचि दिखाई.केवल कानन देवी और ललिता पवार ही हिंदू परिवारों से आई थीं.उस ज़माने की सबसे चर्चित अभिनेत्री सुलोचना थीं.उनका असली नाम रूबी मेयेर्स था.कहा जाता है कि उनकी महीने की क