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संडे नवजीवन : ओटीटी प्लेटफार्म की स्वछंदता पर आपत्ति

संडे नवजीवन ओटीटी प्लेटफार्म की स्वछंदता पर आपत्ति -अजय ब्रह्मात्मज लॉकडाउन में मनोरंजन के प्लेटफार्म के तौर पर ओटीटी का चलन बढ़ा है. पिछले कुछ सालों से भारत में सक्रिय विदेशी ओटीटी प्लेटफार्म ओरिजिनल सीरीज लाकर भारतीय हिंदी दर्शकों के बीच बैठ बनाने की कोशिश कर रहे थे. उन्हें बड़ी कामयाबी अनुराग कश्यप विक्रमादित्य मोटवानी के निर्देशन में आई ‘सेक्रेड गेम्स’ से मिली. विक्रम चंद्रा के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित इस वेब सीरीज का लेखन वरुण ग्रोवर और उनकी टीम ने किया था. दर्शक मिले और टिके रहे. इस वेब सीरीज के प्रसारण के समय से ही यह सवाल सुगबुगाने लगा था कि ओटीटी प्लेटफॉर्म को स्वच्छंद छोड़ना ठीक है क्या? सामाजिक,नैतिक और राष्ट्रवादी पहरुए तैनात हो गए थे. इस वेब सीरीज में प्रदर्शित हिंसा, सेक्स और गाली-गलौज पर उन्हें आपत्ति थी. उनकी राय में वेब सीरीज पर अंकुश लगाना जरूरी है. प्रकारांतर से वे ओटीटी प्लेटफॉर्म को सेंसर के दायरे में लाना चाह रहे थे. इस मांग और चौकशी की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है. वह ओटीटी के प्रसारण ‘सेक्रेड गेम्स’ के पहले से दर्शकों के बीच पहुंच रहे थे. इनके अलाव

संडे नवजीवन : फिक्र उनको भी है ज़माने की,बातें हैं कुछ बताने की

संडे नवजीवन फिक्र उनको भी है ज़माने की,बातें हैं कुछ बताने की     -अजय ब्रह्मात्मज भाग रहा है तू जैसे वक्त से आगे निकल जाएगा तू थम जा, ठहर जा मेरी परवाह किए बिना खुशियां खरीदने में लगा है तू याद रख लकीरे तेरे हाथों में है पर मुझ से जुड़ा एक धागा भी है कुदरत हूं मैं ग़र लड़खडाई तो यह धागा भी टूट जाएगा हवा पानी मिट्टी के बिना तू कैसे जिंदा रह पाएगा तो तू थम जा, ठहर जा. इन पंक्तियों में कृति सैनन प्रकृति का मानवीकरण कर सभी के साथ खुद को भी सचेत कर रही है. लॉकडाउन(पूर्णबंदी) के इस दौर में अपनी मां और छोटी बहन नूपुर के साथ वह घरेलू कामों से फुर्सत मिलने पर या यूं कहे कि स्वयं को अभिव्यक्त करने की इच्छा से प्रेरित होकर कवितानुमा पंक्तियां लिख रही हैं. कृति की बहन नूपुर भी कविताएं कर रही हैं. और भी फिल्म कलाकार लिख रहे होंगे. उनकी ये पंक्तियां भले ही ‘कविता के प्रतिमान’ पर खरी ना उतरे, लेकिन इन पंक्तियों के भाव को समझना जरूरी है. पूर्णबंदी हम सभी को आत्ममंथन, विश्लेषण और आपाधापी की जिंदगी का मूल्यांकन करने का मौका दे रही है. हमारी दबी प्रतिभाएं प्रस्फूटित हो रही ह

संडे नवजीवन : हिंदी फिल्मों का ‘नया हिंदुस्तान’

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संडे नवजीवन हिंदी फिल्मों का ‘नया हिंदुस्तान’ -अजय ब्रह्मात्मज देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘न्यू इंडिया’ शब्द बार-बार दोहराते हैं. हिंदी फिल्मों में इसे ‘नया हिंदुस्तान’ कहा जाता है. इन दिनों हिंदी फिल्मों के संवादों में इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है. गणतंत्र दिवस के मौके पर हिंदी फिल्मों में चित्रित इस नए हिंदुस्तान की झलक,भावना, आकांक्षा और समस्याओं को देखना रोचक होगा. यहां हम सिर्फ 2019 के जनवरी से अभी तक प्रदर्शित हिंदी फिल्मों के संदर्भ में इसकी चर्चा करेंगे. सभी जानते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. सिनेमा के अविष्कार के बाद हम देख रहे हैं कि सिनेमा भी समाज का दर्पण हो गया है. साहित्य और सिनेमा में एक फर्क आ गया है कि तकनीकी सुविधाओं के बाद इस दर्पण में समाज का प्रतिबिंब वास्तविक से छोटा-बड़ा, आड़ा-टेढ़ा और कई बार धुंधला भी होता है. बारीक नजर से ठहराव के साथ देखें तो हम सभी प्रतिबिंबित आकृतियों में मूल तक पहुंच सकते हैं. पिछले साल के अनेक लेखों में मैंने ‘राष्ट्रवाद के नवाचार’ की बात की थी. फिल्मों की समीक्षा और प्रवृत्ति के संदर्भ में इस ‘नवाचार’ की व

संडे नवजीवन : हिंदी दर्शक.साहो और प्रभास

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संडे नवजीवन हिंदी दर्शक.साहो और प्रभास -अजय ब्रह्मात्मज एस राजामौली की फिल्म ‘ बाहुबली ’ से विख्यात हुए प्रभास की ताजा फिल्म ‘ साहो’   को दर्शकों-समीक्षकों की मिश्रित प्रतिक्रिया मिली है. यह फिल्म अधिकांश समीक्षकों को पसंद नहीं आई, लेकिन फिल्म ने पहले वीकेंड में 79 करोड़ से अधिक का कलेक्शन कर जता दिया है कि दर्शकों की राय समीक्षकों से थोड़ी अलग है. ‘साहो’ का हिंदी संस्करण उत्तर भारत के हिंदी दर्शकों के बीच लोकप्रिय हुआ है. अगर यह फिल्म तेलुगू मलयालम और तमिल में नहीं होती. पूरे भारत में सिर्फ हिंदी में रिलीज हुई होती तो वीकेंड कलेक्शन 100 करोड़ से अधिक हो गया होता. वैसे तेलुगू,हिंदी,तमिल और मलयालम का कुल कलेक्शन मिला दें तो फिल्म की कमाई संतोषजनक कही जा सकती है. ‘ बाहुबली ’ के बाद प्रभास देश भर के परिचित स्टार हो गए . फिर ‘ साहो’ की घोषणा हुई और एक साथ चार भाषाओं में इसके निर्माण की योजना बनी. तभी से दर्शकों का उत्साह नजर आने लगा था. इस फिल्म के निर्माण के पीछे एक अघोषित मकसद यह भी रहा कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में प्रभास के प्रयाण को सुगम बनाया जाए. हिंदी फिल्म इंडस्ट्

संडे नवजीवन : घर-घर में होगा फर्स्ट डे फर्स्ट शो

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संडे नवजीवन घर-घर में होगा फर्स्ट डे फर्स्ट शो -अजय ब्रह्मात्मज सिनेमा देखने का शौक बहुत तेजी से फैल रहा है. अब जरूरी नहीं रह गया है कि सिनेमा देखने के लिए सिनेमाघर ही जाएँ. पहले टीवी और बाद में वीडियो के जरिए यह घर-घर में पहुंचा. और फिर मोबाइल के आविष्कार के बाद यह हमारी मुट्ठी में आ चुका है. उंगलियों के स्पर्श मात्र से हमारे स्मार्ट फोन पर फिल्में चलने लगती है. वक्त-बेवक्त हम कहीं भी और कभी भी सिनेमा देख सकते हैं. एक दिक्कत रही है कि किसी भी फिल्म के रिलीज के दो महीनों (कम से कम 8 हफ्तों) के बाद ही हम घर में सिनेमा देख सकते हैं. पिछले दिनों खबर आई कि अब दर्शकों को आठ हफ्तों का इंतजार नहीं करना होगा. अगर सब कुछ योजना के मुताबिक चलता रहा तो बगैर सिनेमाघर गए देश के दर्शक ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ देख सकेंगे. पिछले दिनों जियो टेलीकॉम के सर्वेसर्वा ने अपनी कंपनी की जीबीएम में घोषणा कर दी कि 20 20 के मध्य तक वे अपने उपभोक्ताओं को ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ की सुविधा दे देंगे. दरअसल, जियो ब्रॉडबैंड की विस्तार योजनाओं की दिशा में यह पहल की जा रही है. दावा है कि पूरी तरह से एक्टिव होन

संडे नवजीवन : मोदी सरकार,कलाकार और फ़िल्मकार

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संडे नवजीवन मोदी सरकार,कलाकार और फ़िल्मकार -अजय ब्रह्मात्मज रेमो फर्नांडिस की ‘स्ट्रीट डांसर’ फिल्म की अभी शूटिंग चल रही है. इसमें वरुण धवन डांसर की भूमिका में हैं. हाल ही में इस फिल्म की शूटिंग के कुछ दृश्य सोशल मीडिया पर शेयर किए गए. एक दृश्य में डांसर राष्ट्रीय ध्वज लेकर दौड़ते नजर आ रहे हैं. निश्चित ही डांसर किसी डांस कंपटीशन में भारत की टीम के रूप में हिस्सा ले रहे होंगे. डांस कंपटीशन में अधिकृत रूप से भारत कोई दल नहीं भेजता. फिर भी डांसर भारतीय होने के नाते तिरंगा लहरा रहे हैं. ‘राष्ट्रवाद के नवाचार’ के तहत फिल्मों में ऐसी दिखावटी दृश्यावलियाँ बढ़ गई हैं. मौका मिलते ही या मौका निकाल कर हर कोई देशभक्ति दिखा रहा है. कभी राष्ट्रगान तो कभी राष्ट्रध्वज.... कभी देश की बात तो कभी अतीत का एकांगी गौरव. हिंदी फिल्मों में राष्ट्रवाद का चलन बढ़ा है. ‘नेशनलिज्म’ अनेक रूपों में फूट रहा है. सत्ताधारी पार्टी की सोच और देश के प्रति लोकप्रिय अप्रोच की भावनाएं हिलोरें मार रही हैं. फिल्म एक कलात्मक उत्पाद है. मुख्यधारा की फिल्मों में कला पर उत्पाद हावी हो चुका है. निर्माता की कोशिश रहत

संडे नवजीवन : खटकता है हिंदी फिल्मों का नकलीपन

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संडे नवजीवन खटकता है हिंदी फिल्मों का नकलीपन अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों मनोज के झा निर्देशित फिल्म ‘फैमिली ऑफ ठाकुरगंज’ आई. फिल्म अगर आपने देखी हो तो मान लें कि हिंदी फिल्मों में उत्तर भारतीय समाज कमोबेश इसी रूप-रंग में आ रहा है. अपराध की दुनिया में लिप्त किरदार बदले, फिरौती और जमींदारि रसूख में डूबे रहते हैं. इन फिल्मों में रिश्तो का लोकतंत्र नहीं रहता. महिलाओं की गौण उपस्थिति रहती है. उत्तर भारत से सामंती प्रथा आजादी के कुछ दशकों के बाद समाप्त हो गई, लेकिन फिल्मों में यह अभी तक चली आ रही है. वेशभूषा, बोली, रहन-सहन और पृष्ठभूमि में दशकों पहले की छाप मौजूद रहती है. चरित्र का निर्माण भी दश को पुराना है. उत्तर भारत में प्रवेश करते ही हिंदी फिल्मों की कहानियां रूढ़िवादी गलियों में भटकने लगती हैं. दिख रहे समाज और संसार का नकलीपन झांकता रहता है. साफ दिखता है कि इन फिल्मों का अपने समाज से आज का कोई संबंध नहीं है. लंबे समय से हिंदी फिल्मों से गांव गायब हो गया है. फिल्म जब उत्तर भारत में पहुंचती है तो यह स्पष्ट नहीं होता कि किस प्रदेश के किस इलाके की पृष्ठभूमि में किरदार रचे गए ह

संडे नवजीवन : कमाई और कामयाबी है बायोपिक में

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संडे नवजीवन कमाई और कामयाबी है बायोपिक में -अजय ब्रह्मात्मज हर हफ्ते नहीं तो हर महीने कम से कम दो बायोपिक की घोषणा हो रही है.उनमें से एक में कोई लोकप्रिय स्टार होता है.बायोपिक निर्माताओं में फिल्म इंडस्ट्री के बड़े बैनर होते हैं.दरअसल,बायोपिक का निर्माण निवेशित धन की वापसी और कमाई का सुरक्षित जरिया बन चुका है.पिछले कुछ सालों में आई बायोपिक में से कुछ की कामयाबी ने निर्माताओं का विश्वास और उत्साह भी बढ़ा दिया है.वे बायोपिक की तलाश में रहते हैं.लेखक किताबें छान रहे हैं.स्टार कान लगाये बैठे हैं.और निर्माता तो दुकान खोले बैठा है.अभी कम से कम 40 बायोपिक फ़िल्में निर्माण की किसी न किसी अवस्था में हैं.हाल ही में गणितज्ञ शकुंतला देवी पर बायोपिक की घोषणा हुई है,जिसका निर्देशन अनु मेनन करेंगी.विद्या बालन परदे पर शकुंतला देवी के रूप में नज़र आएंगी.कुछ बायोपिक फिल्मे इस साल के आखिर तक रिलीज होंगीं,जिनमें ‘उधम सिंह’ और ‘तानाजी’ पर सभी की नज़र है. हिंदी फिल्मों के अतीत में झांक कर देखें तो शुरुआत से ही चरित कथाएं बनती रही है. मिथक और इतिहास के प्रेरक चुनिंदा चरित्रों को फिल्मों का विषय बनाया ज