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फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर 2

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ओझल समाज का लहूलुहान सच  -अजय ब्रह्मात्‍मज कहानी अब जाकर पूरी हुई। दुश्मनों के वंशजों ने नए और निजी स्वार्थो की वजह से हाथ मिला लिए। भरपूर बदला लिया गया। खून की होली खेली गई। लहूलुहान रामाधीर सिंह को देख कर फैजल खान की प्रतिहिंसा की मात्रा का पता चला। नृशंस हत्यारे में तब्दील हो चुका फैजल खान अपने जीवन के दंश से फिर भी नहीं निकल पाया। उसने बदले की राह चुनी नहीं थी। वह दबाव में आ गया था,लेकिन हुआ क्या? खुद ही उसने अपना अंत तय कर लिया। गैंग्स ऑफ वासेपुर 2 में कोई किसी का सगा नहीं है। सभी पाला बदलते हैं। 1985 से 2009 तक की इस लोमहर्षक कहानी से हिंदी फिल्मों के दर्शक वंचित रहे हैं। गौर से देखिए। यह भी एक हिंदुस्तान है। यहां भी जीवन है और जीवन के तमाम छल-प्रपंच हैं। जीवन की इस सच्चाई से उबकाई या घिन आए तो मान लीजिए कि हिंदी सिनेमा ने आप को संवेदनशून्य कर दिया है। सच देखने की मौलिकता भ्रष्ट कर दी है। गैंग्स ऑफ वासेपुर 2 सही मायने में सिक्वल है। इन दिनों हर फिल्म के 2और 3 की झड़ी लगी हुई है,लेकिन उनमें से अधिकांश सिक्वल नहीं हैं। सभी पहली फिल्म की सफलता का ब्रांड इस्ते

नजरअंदाज होने की आदत पड़ गई थी- विनीत सिंह

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गैंग्‍स ऑफ वासेपुर के दानिश खान उर्फ विनीत सिंह बैग में कुछ कपडे और जेहन में सपने लेकर मुंबई आ गया. न रहने का कोई खास जुगाड़ था न किसी को जानता था. शुरूआत ऐसे ही होती है. पहले सपने होते हैं जिसे हम हर रोज़ देखते है,फिर वही सपना हमसे कुछ करवाता है, इसलिए सपना देखना ज़रूरी है. लेकिन सपना देखते वक़्त हम सिर्फ वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं और जो हमें ख़ुशी देता है इसलिए सब कुछ बड़ा आसान लगता है. पर मुंबई जैसे शहर में जब  हकीकत से से दो-दो हाथ होता है तब काम आती है आपकी तयारी. क्यूंकि  यहाँ किसी डायरेक्‍टर या प्रोड्यूसर से मिलने में ही महीनो लग जाते हैं काम मिलना तो बहुत बाद की बात है.  बताने या कहने में दो-पांच साल एक वाक्य में निकल जाता है लेकिन ज़िन्दगी में ऐसा नहीं होता भाईi, वहां लम्हा-लम्हा करके जीना पड़ता है और मुझे बारह साल लग गए गैंग्स ऑफ़ वासेपुर  तक पहुँचते-पहुँचते. मेरी शुरुआत हुई एक टैलेंट हंट से जिसका नाम ही सुपरस्‍टार था. मै उसके फायनल राउंड का विजेता हुआ तो लगा कि गुरु काम हो गया. अब मेरी गाडी तो निकल पड़ी लेकिन बाहर से आये किसी बन्दे या बंदी के साथ