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फिल्‍म समीक्षा - इरादा

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फिल्‍म रिव्‍यू उम्‍दा अभिनय,जरूरी कथ्‍य इरादा -अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्‍म के कलाकारों में नसीरूद्दीन शाह,अरशद वारसी और दिव्‍या दत्‍त हों तो फिल्‍म देखने की सहज इच्‍छा होगी। साथ ही यह उम्‍मीद भी बनेगी कि कुछ ढंग का और बेहतरीन देखने को मिलेगा। ‘ इरादा ’   कथ्‍य और मुद्दे के हिसाब से बेहतरीन और उल्‍लेखनीय फिल्‍म है। इधर हिंदी फिल्‍मों के कथ्‍य और कथाभूमि में विस्‍तार की वजह से विविधता आ रही है। केमिकल की रिवर्स बोरिंग के कारण पंजाब की जमीन जहरीली हो गई है। पानी संक्रमित हो चुका है। उसकी वजह से खास इलाके में कैंसर तेजी से फैला है। इंडस्ट्रियल माफिया और राजनीतिक दल की मिलीभगत से चल रहे षडयंत्र के शिकार आम नागरिक विवश और लाचार हैं। कहानी पंजाब के एक इलाके की है। रिया(रुमाना मोल्‍ला) अपने पिता परमजीत वालिया(नसीरूद्दीन शाह) के साथ रहती है। आर्मी से रिटायर परमजीत अपनी बेटी का दम-खम बढ़ाने के लिए जी-तोड़ अथ्‍यास करवाते हैं। वह सीडीएस परीक्षाओं की तैयारी कर रही है। पिता और बेटी के रिश्‍ते को निर्देशक ने बहुत खूबसूरती से चित्रित और स्‍थापित किया है। उनका रिश्‍ता ही फिल्‍म का आधार

फिल्‍म समीक्षा : वेटिंग

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सुकून के दो पल -अजय ब्रह्मात्‍मज अवधि- 107 मिनट स्‍टार – साढ़े तीन स्‍टार  दो उम्‍दा कलाकारों को पर्दे पर देखना आनंददायक होता है। अगर उनके बीच केमिस्‍ट्री बन जाए तो दर्शकों का आनंद दोगुना हो जाता है। अनु मेनन की ‘ वेटिंग ’ देखते हुए हमें नसीरूद्दीन शाह और कल्कि कोइचलिन की अभिनय जुगलबंदी दिखाई पड़ती है। दोनों मिल कर हमारी रोजमर्रा जिंदगी के उन लमहों को चुनत और छेड़ते हैं,जिनसे हर दर्शक अपनी जिंदगी में कभी न कभी गुजरता है। अस्‍पताल में कोई मरणासन्‍न अवस्‍था में पड़ा हो तो नजदीकी रिश्‍तेदारों और मित्रों को असह्य वेदना सं गुजरना पड़ता है। अस्‍पताल में भर्ती मरीज अपनी बीमारी से जूझ रहा होता है और बाहर उसके करीबी अस्‍पताल और नार्मल जिंदगी में तालमेल बिठा रहे होते हैं। अनु मेनन ने ‘ वेटिंग ’ में शिव और तारा के रूप में दो ऐसे व्‍यक्तियों को चुना है। शिव(नसीरूद्दीन शाह) की पत्‍नी पिछले छह महीने से कोमा में है। डॉक्‍टर उम्‍मीद छोड़ चुके हैं,लेकिन शिव की उम्‍मीद बंधी हुई है। वह लाइफ सपोर्ट सिस्‍टम नहीं हटाने देता। वह डॉक्‍टर को दूसरे मरीजों की केस स्‍टडी बताता है,जह

चाहता हूं दर्शक खुद को टटोलें ‘मैक्सिमम’ देखने के बाद -कबीर कौशिक

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज   हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के शोरगुल और ग्लैमर में भी कबीर कौशिक ने अपना एकांत खोज लिया है। एडवल्र्ड से आए कबीर अपनी सोच-समझ से खास परिपे्रक्ष्य की फिल्में निर्देशित करते रहते हैं। किसी भी बहाव या झोंके में आए बगैर वे वर्तमान में तल्लीन और समकालीन बने रहते हैं। ‘सहर’ से उन्होंने शुरुआत की। बीच में ‘चमकू’ आई। निर्माता से हुए मतभेद के कारण उन्होंने उसे अंतिम रूप नहीं दिया था। अभी उनकी ‘मैक्सिमम’ आ रही है। यह भी एक पुलिसिया कहानी है। पृष्ठभूमि सुपरिचित और देखी-सुनी है। इस बार कबीर कौशिक ने मुंबई पुलिस को देखने-समझने के साथ रोचक तरीके से पेश किया है।    कबीर फिल्मी ताम झाम से दूर रहते हैं। उनमें एक आकर्षक अकड़ है। अगर वेबलेंग्थ न मिले तो वे जिद्दी, एकाकी और दृढ़ मान्यताओं के निर्देशक लग सकते हैं। कुछ लोग उनकी इस आदत से भी चिढ़ते हैं कि वे फिल्म निर्देशक होने के बावजूद सूट पहन कर आफिस में बैठते हैं। यह उनकी स्टायल है। उन्हें इसमें सहूलियत महसूस होती है। बहरहाल, वीरा देसाई स्थित उनके दफ्तर में ‘मैक्सिमम’ और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री पर ढेर सारी बातें हुई पेश हैं कुछ प्

फिल्‍म समीक्षा : द डर्टी पिक्‍चर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज गांव से भागकर मद्रास आई रेशमा की ख्वाहिश है कि वह भी फिल्मों में काम करे। यह किसी भी सामान्य किशोरी की ख्वाहिश हो सकती है। फर्क यह है कि निरंतर छंटनी से रेशमा की समझ में आ जाता है कि उसमें कुछ खास बात होनी चाहिए। जल्दी ही उसे पता चल जाता है कि पुरुषों की इस दुनिया में कामयाब होने के लिए उसके पास एक अस्त्र है.. उसकी अपनी देह। इस एहसास के बाद वह हर शर्म तोड़ देती है। रेशमा से सिल्क बनने में उसे समय नहीं लगता। पुरुषों में अंतर्निहित तन और धन की लोलुपता को वह खूब समझती है। सफलता की सीढि़यां चढ़ती हुई फिल्मों का अनिवार्य हिस्सा बन जाती है। निर्माता, निर्देशक, स्टार और दर्शक सभी की चहेती सिल्क अपनी कामयाबी के यथार्थ को भी समझती है। उसके अंदर कोई अपराध बोध नहीं है, लेकिन जब मां उसके मुंह पर दरवाजा बंद कर देती है और उसका प्रेमी स्टार अचानक बीवी के आ टपकने पर उसे बाथरूम में भेज देता है तो उसे अपने दोयम दर्जे का भी एहसास होता है। सिल्क के बहाने द डर्टी पिक्चर फिल्म इंडस्ट्री के एक दौर के पाखंड को उजागर करती है। साथ ही डांसिंग गर्ल में मौजूद औरत के दर्द को भी जाहिर करती

फिल्‍म समीक्षा : पीपली लाइव

- अजय ब्रह्मात्‍मज अनुषा रिजवी की जिद्दी धुन और आमिर खान की साहसी संगत से पीपली लाइव साकार हुई है। दोनों बधाई के पात्र हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के तौर-तरीके से अपरिचित अनुषा और फिल्म इंडस्ट्री के उतने ही सधे जानकार आमिर... दोनों के परस्पर विश्वास से बगैर किसी दावे की बनी ईमानदार पीपली लाइव शुद्ध मनोरंजक फिल्म है। अब यह हमारी संवेदना पर निर्भर करता है किहम फिल्म में कितना गहरे उतरते हैं और कथा-उपकथा की कितनी परतों को परख पाते हैं। अगर हिंदी फिल्मों के फार्मूले ने मानसिक तौर पर कुंद कर दिया है तो भी पीपली लाइव निराश नहीं करती। हिंदी फिल्मों के प्रचलित फार्मूले , ढांचों और खांकों का पालन नहीं करने पर भी यह फिल्म हिंदी समाज के मनोरंजक प्रतिमानों को समाहित कर बांधती है। ऊपरी तौर पर यह आत्महत्या की स्थिति में पहुंचे नत्था की कहानी है , जो एक अनमने फैसले से खबरों के केंद्र में आ गया है। फिल्म में टिड्डों की तरह खबरों की फसल चुगने को आतुर मीडिया की आक्रामकता हमें बाजार में आगे रहने के लिए आवश्यक तात्कालिकता के बारे में सचेत करती है। पीपली लाइव मीडिया , पालिटिक्स , महानगर और प्रशासन को नि