दरअसल:फिल्मों के प्रोडक्शन डिजाइनर

-अजय ब्रह्मात्मज


हॉलीवुड की तर्ज पर अब उन्हें प्रोडक्शन डिजाइनर कहा जाने लगा है। फिल्म की प्रचार सामग्रियों में उनका नाम प्रमुखता से छापा जाता है। माना यह जा रहा है कि फिल्म के निर्देशक, लेखक, गीतकार और संगीतकार की तरह प्रोडक्शन डिजाइनर भी महत्वपूर्ण होते हैं। वे फिल्मों को डिजाइन करते हैं। फिल्म की कहानी के आधार पर वे परिवेश, काल और वेशभूषा की कल्पना करते हैं। किसी भी फिल्म का लुक इन तीन कारकों से ही निर्धारित होता है। इसी कारण उन्हें प्रोडक्शन डिजाइनर का नाम दिया गया है। दरअसल, नितिन देसाई देश के प्रमुख प्रोडक्शन डिजाइनर हैं। हिंदी की ज्यादातर बड़ी फिल्में उन्होंने ही डिजाइन किए हैं। उनके अलावा, समीर चंदा, संजय दभाड़े और मुनीश सप्पल आदि के नाम भी लिए जा सकते हैं। एक समय में नितिश राय काफी सक्रिय थे। रामोजी राव स्टूडियो की स्थापना और सज्जा की व्यस्तता के कारण उन्होंने फिल्मों को डिजाइन करने का काम लगभग बंद कर दिया है। वैसे, एक सच यह भी है कि नितिश राय ने ही हिंदी फिल्मों की डिजाइन में विश्वसनीयता का रंग भरा। श्याम बेनेगल के साथ डिस्कवरी ऑफ इंडिया करते समय उन्होंने सेट डिजाइन की अवधारणा बदली। उसे जिंदगी के करीब ले आए। उनके प्रभाव से बाद के डिजाइनरों ने इस बात का खयाल रखा कि उनके सेट अलग न दिखाई पड़ें। वे परिवेश का हिस्सा बन जाएं। ऐसा लगे कि वास्तविक लोकेशन पर ही शूटिंग की गई है। दर्शकों के ऊपर फिल्म का प्रभाव बढ़ाने में सेट का खास महत्व होता है। आप पिछली सदी के नौवें और अंतिम दशक की फिल्में याद करें। डीवीडी पर उन्हें देखते समय कई बार लोगों को लगता होगा कि दरवाजा खोलते समय पूरी दीवार क्यों हिलने लगती है! उसकी वजह यही होती है कि दीवाल प्लाइवुड की बनी होती है और उसे मजबूत और ठोस रूप नहीं दिया जाता है। थोड़ा और पीछे जाएं, तो कई फिल्मों में साफ दिखता है कि बैकग्राउंड को पर्दे पर पेंट कर दिया गया है। कई बार पर्दे की सिलवटें या किसी कारण से उनमें उठी लहर से भेद खुल जाता है। पुरानी फिल्मों में जंगल, पहाड़ और शहर के बैकड्राप भी पर्दे पर बना दिए जाते थे। समुद्र का किनारा दिखाने के लिए पांच फीट रेत, दस फीट पानी और उसके पीछे नीले पानी को दिखाता पर्दा लगा दिया जाता था। निर्देशकों की यह धोखेबाजी कम दर्शक ही पकड़ पाते हैं। तकनीकी विकास के बाद स्टॉक शॉट से यह जरूरत पूरी की जाती थी। अब तो कंप्यूटरजनित छवियां स्टूडियो में तैयार कर ली जाती हैं।
स्पेशल इफेक्ट और कंप्यूटरजनित छवियों से चरित्रों को किसी भी बैकड्रॉप में दिखाया जा सकता है। इसके लिए खास तकनीक इस्तेमाल की जाती है। यह तकनीक कई बार सेट लगाने से भी महंगी होती है। इस तकनीकी सुविधा के बावजूद फिल्मों के सेट का अपना स्थान है और प्रोडक्शन डिजाइनर की भूमिका बढ़ती ही जा रही है। ताजा उदाहरण रब ने बना दी जोड़ी का लें। इसके दो पोस्टर सिनेमाघरों में लगे हैं। दोनों ही पोस्टरों में शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा डांसिंग पोज में हैं। एक में शाहरुख प्रौढ़ हैं और उनकी बांहों में धनुष बनी अनुष्का पारंपरिक सलवार-कमीज में हैं। बैकड्रॉप में एक स्कूटर खड़ा है। पीछे रिक्शा भी है। लगता है कि पंजाब के किसी शहर की कोई गली है। पोस्टर पर परिवेश की ऐसी झलक कम मिलती है। दूसरे पोस्टर में जवान शाहरुख हैं। वहां मॉडर्न बेब अनुष्का उनकी बांहों में हैं। पीछे ऊंची इमारतों की खिड़कियों से झांकती झिलमिलाती रोशनी है। किसी महानगर का बैकड्रॉप है। दोनों ही तस्वीरें स्थिर हैं, लेकिन बहुत कुछ बता जाती हैं। यह प्रोडक्शन डिजाइनर मुनीश सप्पल का कमाल है। उन्होंने परिवेश को ऐसी बारीकी से गढ़ा है कि बगैर शब्द और ध्वनि के ही दृश्य दिखाई पड़ने के साथ ही सुनाई भी पड़ रहे हैं। वास्तव में प्रोडक्शन डिजाइनर के बारे में अभी आम दर्शकों को अधिक जानकारी नहीं है।
देश के विभिन्न भागों से लेखक, निर्देशक, अभिनेता, गायक, संगीतकार बनने की लालसा में मुंबई आ रहे युवा इस क्षेत्र को भी अपना करियर बना सकते हैं। हां, इसके लिए कला मर्मज्ञ और कलाकार होना जरूरी है। आप चित्रकला, आर्किटेक्ट, डिजाइन आदि की पढ़ाई कर रहे हों, तो इस क्षेत्र में अपना करियर बना सकते हैं। आरंभ में किसी प्रोडक्शन डिजाइनर के असिस्टेंट के रूप में ही काम मिलेगा, लेकिन अपनी प्रतिभा के दम पर वे शीघ्र ही स्वतंत्र रूप से फिल्में हासिल कर सकते हैं और प्रोडक्शन डिजाइनर बन कर नाम कमा सकते हैं।



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