कुछ खास:देव डी की रूपांतर प्रक्रिया-अनुराग कश्यप

अनुराग कश्यप ने पिछले दिनों पुणे में देव डी की रूपांतर प्रक्रिया के बारे में बात की थी.यह पोस्ट उसी की प्रस्तुति है...
मसलन पारो के लौट के आने का सीन था। मैंने सीधा-सीधा पूछा उनसे कि ये लडक़ी लौट कर आती है, पारो, जो हुआ देव के साथ, देव ने उसे अपमानित किया और बाद में रियलाइज करता है, वो लौट कर आती है। देव जब बोलता है - यू मेक लव टू मी। सवाल था कि क्या वह उसके साथ सोएगी? लड़कियों ने कहा कि वह सोएगी और देव को ऐसा आनंद देगी कि वह जिंदगी भर याद रखे। फिर मैंने अपने दिमाग में सोचा कि उस सीन तक जाऊं की नहीं जाऊं? फिर मैंने मां से बात की।
देवदास के बारे मुझे ऐसा लगता रहा है कि यह शरत बाबू का सबसे कमजोर उपन्यास है। साहित्य के लिहाज से,लेकिन सबसे ज्यादा रॉ और सबसे ज्यादा ईमानदार भी है कहीं न कहीं। शायद वे तब तक परिपक्व नहीं हुए थे, जब उन्होंने देवदास लिखी थी। देवदास मैंने बहुत पहले पढ़ी थी, जब मैं कालेज में था। उसके बाद मैंने कभी देवदास नहीं पढ़ी। फिल्म बनाने से पहले भी नहीं पढ़ी। कई चीजें आपको याद रह जाती हैं। और कई चीजें उतनी याद नहीं रहतीं। मैं जानबूझ कर उनसे परे रहना चाहता था। अभय देओल ने एक बार फुटबॉल मैच देखते हुए मुझे एक अजीब सी कहानी सुनाई थी। एलए में एक स्ट्रिपर मूनलाइट बार है। मूनलाइट बार बोलते हुए उसने मेरी तरफ देखा … मुझे समझ में नहीं आया। स्टीफन नाम का एक लडक़ा है, आता है,ह उस बार में बैठता है, उसको देखता है … उसने मुझे कहानी सुनाई …उस समय तक हम ने थोड़ी पी रखी थी। मुझे इतना सा याद है कि उस ने पूछा,बता क्या है? मैंने कहा, नहीं मालूम। उसने कहा, मूनलाइट बार है। फिर भी मेरी समझ में नहीं आया। मैं उठ गया। लेकिन जैसे ही उस ने कहा चंद्रमुखी … तुरंत दिमाग में आया देवदास। उसके बाद आधे घंटे तक मैं कुछ बोल नहीं सका। अचानक ऐसा होता है न कि सारे दरवाजे खुल गए हों। हमेशा मेरे पिता जी को मेरी फिल्में पसंद नहीं आतीं। उनको मेरी अब तक कोई फिल्म पसंद नहीं,यहां तक कि देव डी भी। उन्होंने देव डी देखने के बाद भी तीन घंटे तक बात नहीं की। मैंने पूछा, आपने देखी, कैसी लगी? उन्होंने कहा, बेटा … सब लोग बोलते हैं अच्छी है तो अच्छी है।
मेरे पिता जी हमेशा से बोलते हैं कि पांच बैन हो गई, ब्लैक फ्रायडे बैन हो गई , गुलाल रूक गई, बेटा एक लव स्टोरी बना ले। मैं लव स्टोरी बनाऊंगा तो मैं वही बना सकता हूं जो मैं जानता हूं। जैसा मैंने एक्सपीरियेंस किया है। हिंदी सिनेमा में जब मैं पर्दे पर प्रेम कहानियां देखता हूं तो मैं रिलेट नहीं कर पाता हूं। मैं उन से एकदम से रिलेट नहीं कर पाता हूं। मुझे तो यह भी नहीं समझ में आता है कि हीरो-हीरोइन एक-दूसरे को छूते भी क्यों नहीं? एक-दूसरे से प्यार करते हैं और एक-दूसरे को छूते ही नहीं हैं। जब वो एक-दूसरे से गले मिलते हैं तो अचानक हीरोइन का हाथ अपने सीने पर आ जाता है। हिंदी सिनेमा का यह दृश्य मुझे हमेशा से अखड़ा है। मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। बहुत सीरियस हूं मैं। जब दो लोगों को देख कर लगता नहीं है कि वे आपस में प्यार करते हैं तो प्रेम कहानी का क्या आनंद आएगा ? मैं हमेशा देखता हूं कि डायरेक्टर ने बोला कि यहां देखो, यहां पकड़ो। वो फीलिंग अंदर से नहीं आती है। कहीं न कहीं वो सेंस ऑफ रियलिज्म नहीं है।
मैं तो छोटे शहर में बड़ा हुआ हूं। हमलोग इस तरह से बात भी नहीं करते हैं। हमारे यहां तो ऐसा होता है अगर कोई लडक़ी पसंद आ जाती है, लडक़ी को शादी तक क्या आज तक भी पता नहीं होगा कि वो किसी को पसंद आई थी। दोस्त लडकियों को देख -देख कर ही बांट लेते थे कि वो तेरी है, ये मेरे लिए सही है। हमेशा से वो चलता था। जब उसकी शादी होती थी तो हमलोग उसके प्रेमी के साथ में बैठकर शराब पीते थे और रोते थे … वो गाना होता था, वही एक गाना दिमाग में रहता था। मुझे उस गाने से सख्त चिढ़ हो गई थी। घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं। जब भी वह गाना सुनते थे तो हम देवदास की स्थिति में चले जाते थे।
देवदास की बात करूं तो ये था कि विक्रम मोटवानी,जो संजय लीला भंसाली के 'देवदास' के एसोसिएट डायरेक्टर थे। वो देवदास का बहुत कट्टर फॉलोअर है। जब मैंने कहा कि मैं इस तरह से बनाना चाहता हूं। आज जो हो रहा है और आज जिस तरह से लोग प्यार को देखते हैं। आज जिस तरह … मुझे जो करना है वो मैं करूंगा। वह बहुत नाराज था। उसने कहा कि ऐसे नहीं कर सकते। मैंने कहा कि तू जैसे करना चाहता है वैसे लिख। उसके बाद मुझे दे दे। फिर मुझे जो करना होगा करूंगा। उसने शरत बाबू के उपन्यास का आधुनिक संदर्भों में रूपांतर किया। बहुत सारी चीजें वैसे ही हैं। मुझे बहुत सारी कहानियां कहनी थी। वो कहानियां जो मुझे कहीं न कहीं कचोटती थीं या परेशान करती थीं।
बाकी जो पहली चीज दिमाग में आई थी, वो थी कि शरत बाबू के 1917 का पतनशील कोलकाता आज दिखाना हो तो कहां दिखएंगे? कौन सी जगह हो सकती है। पहला ख्याल दिमाग में आया वो था गोवा, उसके बाद पहाडग़ंज। पहाडग़ंज से मैं वाकिफ था। जब मैं दिल्ली में हंसराज कॉलेज में पढ़ता था तो वहां पर अक्सर जाया करता था। हम सोलह-सत्रह साल के थे, वहां इसलिए जाते थे क्योंकि वहां गांजा मिलता था। दूसरा लड़कियों को देखने जाते थे । मैंने तब तक वैसी लड़कियां नहीं देखी थीं। सब कहते थे कि पहाडग़ंज चलो। वहां रूसी लड़कियां आती हैं। ये सारे कारण थे। हमार सेंसिबिलिटी वैसी थी। हम पहाडग़ंज जाते ही थे। पहाडग़ंज का माहौल तब से बहुत कुछ बदल चुका है। दो गलियां है। नियोन लिट गलियां हैं। वहां पर सारे होटल आज कल केवल विदेशियों को मिलते हैं। वहां ऐसा पतन है कि अंदर घुसेंगे तो फिर निकलना बहुत मुश्किल है। कहते हैं विदेशों से आए युवक वहां खुद की खोज करते हैं। भारतीय अध्यात्म की शुरूआत वहीं से होती है। वहां जाकर वो तय करते हैं कि उनको गोवा जाना है या कहां जाना है। ये सारी चीजें लिखते समय दिमाग में थीं । विजुअली वो गली मेरे दिमाग में थी। मुझे मालूम है, वहां जाकर मुझे कहना है। जो दूसरी बात थी, जो देवदास का सार है। देवदास अपनी चिंता और अपराधबोध से ही परेशान नहीं है, उसके अंदर कन्फ्यूजन भी है। वो बहुत सारे चीजों से लुढक़ रहा है। जिसका जवाब उसके खुद के पास नहीं है। उसे खुद नहीं मालूम कि वो क्या हो रहा है। कहीं न कहीं वो एक हद तक सुन्न हो चुका है, वो रिएक्ट नहीं कर पाता है, वो एक्सप्रेस नहीं कर पाता है। मैं नहीं चाहता था कि देवदास सारी बातें करे। मैं चाहता था कि उसकी पीडा आंतरिक हो। पहले ड्राफ्ट में बहुत बोलता था देवदास। मैंने पंक्तियां काटनी शुरू की। समस्या थी कि उसके अंदर की चिंता और अपराधबोध को कैसे व्यक्त किया जाए। उसके लिए हम ने हिंदी सिनेमा का वह टूल इस्तेमाल किया,जो बाहर का कोई और सिनेमा नहीं दे सकता। संगीत वह माध्यम बना। संगीत के जरिए ही उसकी चिंता और अपराधबोध और बाकी सब कुछ व्यक्त हुआ। और वो सारी कहानी तीन किरदारों की यात्रा है। देवदास की कमजोर कड़ी मुझ हमेशा पारो लगती है। देवदास पढ़े ते ऐसा लगेगा कि देवदास चंद्रमुखी के पास क्यों नहीं चला जाता? चंद्रमुखी और पारो कहानी को आगे बढ़ाती हैं। देवदास कहीं न कहीं स्थिर है। वो कहीं नहीं हिलता है, वो एक ही जगह अटका हुआ है। मैंने ये सारे कैरेक्टर को स्थापित किया। मुझे वो भी याद था कि… मैं रिसर्च कर रहा था तो पता चला था कि 'साहब बीवी और गुलाम' को जब ऑस्कर के लिए भेजा था इंडिया से तो ऑस्कर एकेडमी ने ये सोच कर रिजेक्ट किया था कि इसकी अवधारणा ही पश्चिम से मेल नहीं खाती । इस फिल्म का पूरा वजूद इसी पर है कि छोटी बहू शराब पीने लग जाती है और उसके बाद वो किस तरह से गिरती जाती है। हमारी सोसायटी में औरतें शराब पीती हैं । उसकी अनुमति भी है और आम बात है। आपके लिए यह बहुत बड़ा मुद्दा होगा। हमारे लिए खुद को इस से जोड़ पाना मुश्किल है।
मेरी चिंता यह भी थी कि आज खुद को बर्बाद करने के लिए कोई क्या करेगा? आज का सेल्फ डिस्ट्रक्शन यही हो सकता है कि वह ड्रग्स लेने लगे। वो कहीं जाने लगता है। वो रैंडम रिलेशनशिप में भी पड़ता है। वो कहीं भी आता है, किसी के साथ भी जाता है, उसको पता ही नहीं वो कर क्या रहा है। वो चले जा रहा है, वो चले जा रहा है, उसको नहीं मालूम है कि कहां है, दीवार आएगी तो वो रूक जाएगा। नहीं आएगी तो चलता रहेगा। कहीं भी भीड़ जाएगा। वो स्टेट ऑफ माइंड कैप्चर करने के लिए हमलोगों ने स्क्रिप्ट के साथ सीधा कम्पोज करना शुरू किया। लोकेशन भी साथ-साथ में, सारी चीजें साथ-साथ चल रही थीं। ये सारी कहानियां, सारे लोकेशन… लिखने के बाद जो इंडीविजुअल सीन थे… जहां पर सेक्सुअलिटी की बात आई। सबसे बड़ा सवाल ये था कि कितना बोलें और कितना न बोलें। सबको दिक्कत है कि ये सब क्यों है इस फिल्म में। ये सब क्या दिखा रहे हो। मुझे जो होता है वाकई, जिस तरह से बात करते हैं, वह लेकर आना है। कई बार ऐसा लगता है कि हमें मालूम है कि आज के बच्चे कैसे सोचते हैं, कैसे नहीं सोचते हैं। लेकिन हम हमेशा गलत होते हैं। मैंने क्या किया? मैंने पूरी टीम जो हायर की थी उस समय,उनसे बात की। फिल्म शुरू होने के पहले, हमारे प्रोडक्शन में काम करने वाली दो-तीन जो लड़कियां थीं, 21-22 साल की, मैंने उनके साथ बैठकर डिस्कश करना शुरू किया। बाकायदा इस लेवल पर किया था कि तुम्हारे साथ ऐसा होता तो तुम क्या करोगी। उनके ऐसे जवाब थे, जो सारे डाल देता तो लोग घबरा जाते। मसलन पारो के लौट के आने का सीन था। मैंने सीधा-सीधा पूछा उनसे कि ये लडक़ी लौट कर आती है, पारो, जो हुआ देव के साथ, देव ने उसे अपमानित किया और बाद में रियलाइज करता है, वो लौट कर आती है। देव जब बोलता है - यू मेक लव टू मी। सवाल था कि क्या वह उसके साथ सोएगी? लड़कियों ने कहा कि वह सोएगी और देव को ऐसा आनंद देगी कि वह जिंदगी भर याद रखे। फिर मैंने अपने दिमाग में सोचा कि उस सीन तक जाऊं की नहीं जाऊं? फिर मैंने मां से बात की। मेरी मां रूढिवादी महिला है। मैं एक दिन के लिए बनारस गया। मेरी मां छोटे शहर की औरत है। मैंने मां से पूछा कि पारो क्या करेगी? मां ने कहा, मैं नहीं जानती। फिर मैंने उनसे हां या ना में जवाब लिए। जैसे कि पूछा किस करेगी? नहीं करेगी। वो तो कभी नहीं करेगी। मां का जवाब था। उस तरह से यह फिल्म लिखी गई थी।
उसके बाद जो हमारा प्रोसेस है शूट करने का, हमलोग नैचुरली जैसा माहौल है वैसा ही रखेंगे और उसमें अपने पात्रों को डालेंगे। कैमरामैन से कहा कि कैमरा छिपा लो। पात्रों को डालो और शूट करना शुरू कर दो। बहुत ही कम लाइट और बिना किसी को पता चले हमलोग शूट कर रहे हैं। हमलोग उस तरह से कैमरा लेकर शूट करते हैं। बहुत सारे रिएक्शन वास्तविक हैं। कैमरा चलता रहा। चंद्रमुखी को वहीं की लडक़ी समझ कर लोग लुभा भी रहे थे। मैंने वो भी शूट किया था। एक शॉट है जिसमें पुलिस वाला हफ्ता ले रहा है। वह वास्तविक पुलिसवाला है, जो एक्टर लगता है। हमलोगों ने तय किया था कि जो चीजें जैसी हैं, वैसे ही एक्सपलोरर करें। माहौल को बिल्कुल टच न करे। जो माहौल है वह मिले और कहानी को उसकी जमीन मिल जाए। म्यूजिकल इसलिए है कि जो कुछ वह कहना चाहता है, वह कह नहीं पा रहा है। वो हमारे पास एक एडवांटेज होता है उपन्यास में, स्टेट ऑफ माइंड। जब सिनेमा में जाते हैं, तो उसकी डिटेलिंग मुश्किल काम होता है । स्टेट ऑफ माइंड को रख नहीं पाते। वह बहुत बड़ा लॉस होता है। उसके लिए म्यूजिक रखा। उसकी मानसिक अवस्था को संगीत से बताया। देव डी की यह प्रक्रिया रही।

Comments

कुश said…
Thanks for this post.. Its really a joy to read anurag..
Anonymous said…
Dev D se badi tragedy merev sang aaj tak nhi huyi.Black Friday ke director ke aisa hashra dekh kar dukh hota h. sharatchandra ke bare me unke vichar chaukane wale hain...khair maya nagari ki apni maya h..
बहुत दिन बाद आपके ब्लाग पर आई, देवडी औरक अनुराग कश्यप की बात हो तो खुद को रोकना वैसे ही मुश्किल होता है। इस पोस्ट को पढते समय एक सांस में पढ गई, आपने बहुत अच्छा लिखूं, इन फेक्ट अगर ये कहूं कि मुझे ऐसा लग रहा था कि अनुराग खुद यहां बैठकर सब कुछ बता रहे थे , तो ये ज्यादा नहीं होगा। बहुत दिन बाद फिल्मों पर वाकई एक नाइस पीस पढ़ने को मिला, शुक्रिया
L.Goswami said…
अनुराग की का पक्ष जानकर अच्छा लगा ..फिल्म मैंने अभी तक देखि नही है ..अब इस नजरिये से भी देखूंगी
हिन्दी साहित्य का एक बड़ा हिस्सा प्लेटोनिक प्यार से अटा पड़ा है। स्त्री देह के एक-एक हिस्से का जिसे कि हिन्दी समाज नख-शिख वर्णन कहता है, कर देंगे। इस पर गंभीरता का रंग चढ़ाने के लिए शास्त्र तक गढ़ देंगे लेकिन प्यार के मामले में या तो विरह होगा या मिलन होगा। जब मिलन होगा तो हिट लाइन होगी- मिलन का तुम न मत लेना, मैं विरह में चिर हूं। सारी गंभीर बातें कर ली जाएगी लेकिन देह को लाते ही सब गंदला,सब चीप और बाजारु हो जाएगा। यह सवाल मौजूं है कि बिना देह को छुए कोई कैसे प्रेम कर सकता है. ये पाखंड है या फिर उसमें कहीं न कहीं वो सेंस ऑफ रियलिज्म नहीं है। प्रेम को एक खास तरह के ढ़ांचे में देखने-समझने की कोशिशें वाकई तमाशा लगने लगीं हैं।
ये पोस्ट पढ़कर मुझे बहुत मज़ा आया ...खासकर अनुराग कश्यप को पढना अच्छा लगता है
poora lekh rochak hai. padhkar maza aaya.anurag kadhyap ka reasearch process anutha tha.ye line ullekhniya hain.
कहते हैं विदेशों से आए युवक पहाडग़ंज में खुद की खोज करते हैं। भारतीय अध्यात्म की शुरूआत वहीं से होती है। वहां जाकर वो तय करते हैं कि उनको गोवा जाना है या कहां जाना है।
देव डी देखी थी और भूल गया था. आज अनुराग का पक्ष पढा तो उसे दुबारा देखने के लिए व्याकुल हो उठा हूं. अनुराग ने बहुत बेबाकी और सहजता से अपनी बात कही है. इसे प्रस्तुत करने के लिए आप बधाई के हक़दार हैं.
himanshu said…
देर से देखा ,बहुत शानदार पीस है.अनुराग की रचना -प्रक्रिया को पूरी तरह से सामने लाता है और फिल्म को दुबारा समझने का अवसर भी देता है .

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