काशी कथा वाया मोहल्ला अस्सी-रामकुमार सिंह

यह पोस्‍ट रामकुमार सिंह की है।उन्‍होंने बनारस से लौटकर राजस्‍थान पत्रिका में लिख।चवन्‍नी को पसंद आया,इसलिए नकलचेंपी...
बनारस के घाटों की गोद में अलसायी सी लेटी गंगा को सुबह सुबह देखिए। सूरज पूर्व से अपनी पहली किरण उसे जगाने को भेजता है और अनमनी सी बहती गंगा हवा की मनुहारों के साथ अंगड़ाई लेती है। नावों के इंजन घरघराते हैं, हर हर महादेव की ध्वनियां गूंजती हैं। लोग डुबकियां लगा रहे हैं। यह मैजिक ऑवर है, रोशनी के लिहाज से। डा.चंद्रप्रकाश द्विवदी निर्देशित फिल्म "मोहल्ला अस्सी" की यूनिट नावों में सवार है।

वे इसी जादुई रोशनी के बीच सुबह का शिड्यूल पूरा कर लेना चाहते हैं। काशी की जिंदगी के महžवपूर्ण हिस्से और धर्म की धुरी कहे जाने वाले मोहल्ला अस्सी पर हिंदी के अनूठे कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास "काशी का अस्सी" के शब्दों को पिघलाकर चलते हुए चित्रों में तब्दील किया जा रहा है। यह सिनेमा और साहित्य के संगम का अनूठा अवसर है। हम घूमने बनारस गए हैं और देखा कि वहां शूटिंग भी चल रही है तो यह यात्रा अपने आप में नई हो गई।

यह बेहद दिलचस्प है कि एक प्रतिबद्ध वामपंथी लेखक काशीनाथ सिंह की कृति पर एक समृद्ध इतिहासबोध वाले लेकिन विचारधारा में दक्षिणपंथी कहलाने वाले डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी फिल्म बना रहे हैं। दो धाराओं का यह संगम हुआ कैसे?

बकौल डॉ. द्विवेदी, जब उन्होंने उपन्यास पढा तो वे इसकी कहानी और शिल्प को लेकर चकित थे। इतिहास मुझे प्रिय रहा है और है लेकिन मैं अपने ऊपर लगे इतिहासवादी लेबल से भी अलग कुछ करना चाहता था। मैंने लगातार काशीनाथ जी से संपर्क रखा और वे मेरी दृष्टि से सहमत हुए। मैंने उन्हें यकीन दिलाया कि उपन्यास की आत्मा वही रहेगी। बस कोई बदलाव होगा तो वह सिनेमाई जरूरत के हिसाब से होगा।

काशीनाथ सिंह कहते हैं, मैं उनके दक्षिणपंथी रूझान से वाकिफ रहा हूं लेकिन डा. साहब की बातचीत और उपन्यास को लेकर नजरिए से मैं आश्वस्त था। फिर मैंने उनकी फिल्म पिंजर देखी और यह पुख्ता हो गया कि डा. द्विवेदी से बेहतर इस पर कोई फिल्म नहीं बना सकता। काशीनाथ सिंह यह कबूल करते हैं कि इस खबर के बाहर आते ही इंडस्ट्री के दो बड़े निर्देशकों ने उनसे संपर्क किया था लेकिन अव्वल तो मैं डा. साब को जुबान दे चुका था और दूसरे मैं आश्वस्त नहीं था कि वे लोग उस तरह विषय के साथ न्याय कर पाएंगे जैसा मुझे डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी पर यकीन है।

लेखक और निर्देशक के आपसी यकीन का आलम यह है कि फिल्म की पटकथा डा. द्विवेदी ने लिखी है और काशीनाथ सिंह ने उसे पढ़ना जरूरी नहीं समझा। वे कहते हैं, इससे किसी निर्देशक की मेहनत का अपमान होता कि मैं उन पर भरोसा नहीं कर रहा। मैं मानता हूं कि उपन्यास में कंकाल तो मेरा है लेकिन उसको मांस मज्जा की सिनेमाई जरूरत से भरने का हक निर्देशक का ही है और उसमें कहानी के लेखक होने के नाते मुझे दखल नहीं करनी चाहिए।

आप शूटिंग के दौरान देख सकते हैं कि मुंह में पान दबाए धोती कुर्ते में काशीनाथ सिंह, रामबचन पांडे, गया सिंह सब के सब बेतकल्लुफी से किसी भी वैनिटी वैन में आ जा रहे हैं। अपनी ही भूमिका निभा रहे चरित्रों से मिल रहे हैं और उन्हीं संवादों को सुनते हुए अभिभूत हैं जो उनके मुंह से उपन्यास में कहे गए हैं। बनारस के लोगों के बीच अचानक से ये सब लोग महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।

पहले वे इन्हें नाम से जानते ही थे लेकिन अब यह भी देखा है कि किस तरह उनकी इज्जत की जा रही है। बहरहाल, जिन लोगों ने उपन्यास पढा है, वे जानते हैं कि इसमें काशी में प्रचलित गालियां जुबान का हिस्सा हैं और जैसा कि निर्देशक और लेखक दोनों की मानते हैं कि गालियां फिल्म में रहेंगी ही क्योंकि वे अश्लील होने से कहीं ज्यादा उस भाषायी संस्कृति का बोध कराती हैं जो बनारस और अस्सी घाट की परंपरा रही है। काशीनाथ सिंह हंसते हुए कहते हैं, "डा. साब ने मुझे आश्वस्त किया है कि कहानी में इस्तेमाल 53 गालियां ज्यों की त्यों फिल्म के संवादों में हैं।"

पप्पू की दुकान के रूपक के माध्यम से पूरी कहानी समकालीन परिदृश्य में घटित होती है, जिसके अपने राजनीतिक मायने हैं और बकौल निर्देशक इसे कला फिल्म समझने की कोई गलती नहीं करनी चाहिए। हमारे समय के बदलाव को लेकर नए और पुराने के संघर्ष को लेकर यह एक जबरदस्त कहानी है, जिसमें मनोरंजन घुला हुआ है।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि कहानी में आने वाले पात्रों के असली किरदार भी शूटिंग स्थल पर मौजूद रहे हैं जिनमें खुद काशीनाथ सिंह के अलावा रामबचन पांडे, गया सिंह, पप्पू चाय वाला और तन्नी गुरू के परिवार के लोग। फिल्म के मुख्य कलाकार सन्नी देओल कहते हैं, "डा. द्विवेदी ने कमाल कर रहे है, खासकर मैं समझता हूं यह मेरे लिए सबसे चुनौतीपूर्ण और सुख देने वाली भूमिका रही है। वे परफेक्शनिस्ट हैं।

अपने संवादों के साथ छेड़छाड़ करने की इजाजत कलाकार को नहीं देते।" फिल्म के दूसरे कलाकार रवि किशन कहते हैं, "सच कहूं तो मैं सैट पर कई बार संवाद इप्रोवाइज करता हंू लेकिन डॉ. साब ने हमें स्क्रिप्ट पढने के लिए बाध्य किया। हमें डॉयलॉग्स याद करने पड़े ताकि उन्हें बोलते समय हमारे भाव अपनी भूमिका के मुताबिक बने रहें।"

एक साहित्यिक कहानी पर दांव खेलने वाले निर्माता विनय तिवारी कहते हैं, "मैंने उपन्यास पहले से ही पढा था। बनारस के मोहल्ला अस्सी के बहाने यह हमारे समय की सबसे जादुई कहानी मुझे लगती है और संयोग देखिए कि डा. द्विवेदी यह फिल्म निर्देेशित करना चाहते थे और मैं चाहता था कि अपनी कंपनी की पहली फिल्म की शुरूआत इसी कहानी से करूं।"

काशीनाथ सिंह कहते हैं, "हिंदी लेखकों में बहुत लोगों ने मुंबई जाकर सिनेमा में लिखने की कोशिश की, जिनमें प्रेमचंद भी शामिल हैं, लेकिन शायद ही कोई हो, जो अपमानित होकर ना लौटा हो, या कड़वे अनुभव लेकर नही आया हो। ऎसे में इन लोगों को लेखक के प्रति आदर बेहतर है।" काशीनाथ सिंह यह भी कहते हैं कि उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि इस उपन्यास पर फिल्म बनेगी। लिखते समय उनकी मंशा यह रही कि वे उपन्यास के परंपरागत ढांचे को तोड़े जिसमें संस्मरण, यथार्थ और कल्पना के साथ कथा तžव रखा। "यथार्थ को रचनात्मक बनाना पड़ता है।

मैंने असली लोगों के पात्र रचे और वे जिधर जा रहे थे, उन्हें जाने दिया। इस तरह आप कह सकते हैं मैं किसी एक पात्र में नहीं हूं, थोड़ा थोड़ा सब में हूं।" लेखन में विचारधारा के आरोपण पर वे कहते हैं, "मैं अकसर समाज को बदलने की इच्छा रखने वाले विद्रोही लेखक के रूप में अपनी कहानियों में रहा लेकिन रूसी समाजवाद के विघटन के बाद जो भरोसा था, वह हिला और उसका पूरा दबाव भी काशी का अस्सी के पात्रों पर आया। हालांकि लिखने के दौरान मैं मार्क्सवादी बना रहा और मुझे यह भी लगता रहा कि सारी राजनीतिक पार्टियां अब एक जैसी हो गई हैं।" डा. द्विवेदी कहते हैं, लेखक की यह दुविधा हमारे नायक में भी है। नए-पुराने के द्वंद्व हैं। आस्था का संकट है। दुनिया बदल रही है। उपन्यास की मूल आत्मा फिल्म में है।

फिल्म को एक हिस्सा मुंबई में सैट लगाकर किया गया। पप्पू की दुकान से सारा सामान खरीदकर उसे असली लुक देने की कोशिश की गई। नामवर सिंह ओर काशीनाथ सिंह ने जब मुंबई जाकर सैट देखा था तो वे अवाक थे कि किस तरह बनारस की गलियां हूबहू वहां खड़ी कर दी गई हैं। और बाकी हिस्सा बनारस में शूट हुआ। निर्देशक कहते हैं, आप ही सोचिए क्या गंगा और बनारस के घाटों को कोई भी विकल्प हो सकता है। हमें पता था कि एक तो विषय ऎसा है और दूसरा हमारा राजनीतिक माहौल ऎसा हो गया है कि आप सोच नहीं सकते कि कब क्या हो जाए लेकिन अच्छा यह है कि बनारस के लोगों ने हमें पूरी मदद की।

और इस पूरे फिल्मी माहौल के बीच बनारस के सब लोग मस्त हैं। घाट पर बच्चे कुछ फिरंगी महिलाओं को अपने दीपक बेचने की फिराक में पीछे लगे हैं। वे मुस्कराते हुए उन्हें पीछे कर रही हैं। वे सब दोस्त हो गए हैं। वे बच्चे लपकों की तरह नहीं हैं। तत्काल समझ में आ जाता है कि वे विलायती बालाएं ओर देसी बच्चे आपस में एक दूसरे को पहले से ही जानते हैं, वे हिंदी बोलते हुए उन्हें आश्वस्त करती हैं, "आज नहीं, कल खरीदेंगी।" और बच्चे फुदकते हुए नए ग्राहक को ढूंढने लगते हैं। सिगरेट के सुट्टे लगाती लड़कियों की ओर हमारा मोबाइल कैमरा देखकर एक लोकल गाइड कहता है, "वाई आर यू टेकिंग पिक्स।" और हम कहते हैं, "अपना काम करो भाई।" उसने हमारी शिकायत की है उन्हीं लड़कियों और लड़कों से, "गायज, दे आर टेकिंग योर स्नैप्स।" लड़कियां हमें अपने फोटो दिखाने को और डिलीट करने को कहती हैं और कारण पूछा तो बताया गया कि वे फिल्म की यूनिट का हिस्सा हैं। उन्हें डायरेक्टर ने मना किया है कि वे उनकी अनुमति के बिना किसी को फोटो नहीं खींचने देंगी।

अस्सी घाट पर चाट वाले ने हमारे लिए चाट बनाई है। उससे पानी मांगा तो उसने यह काम अपने वेटर को बोला है। वेटर टाल गया है। तीन चार बार याद दिलाने पर उसने खुद जग उठाया है। पानी भरा है और यह क्या? गटागट खुद पी गया है। हमारी हंसी नहीं थम रही है, "ये बनारस है, ग्राहक बैठा है और तुम खुद पानी पिए जा रहे हो।" और उसने मुस्कराकर जबाब दिया है, "तो क्या हो गया भइया, हमको भी तो प्यास लगी है। आप अब पी लीजिए।" और उसने जग हमें थमा दिया।

Comments

pratima sinha said…
अपने बनारस को इन शब्दों में पढना एक सुखद अनुभूति रहा...सधन्यवाद...
प्रतिमा
बनारस...!
This comment has been removed by the author.
vakai padh kar abhibhut ho gaya..lekh ke liya ramkumar ji ko aur apne blog pe dalne ke liye apko dhanyawad.
NAAVO KE INJAN GHARGHARATE HAIN, HAR- HAR MAHADEV KI DHWANIYAN GOONJ RAHI HAIN,Y MAIJIK HOUR HA.RAUSHNI KE LIHAZ SE.......
PANKTIYAN SABSE ACHI LAGI.

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