दरअसल : विस्मृत होती 40 उल्लेखनीय फिल्में



-अजय ब्रह्मात्मज
     ‘मिस्टर संपत’, ‘फुटपाथ’, ‘चा चा चा’, ‘कोहरा’, ‘तीन देवियां’, ‘ये रात फिर न आएगी’, ‘सीआईडी 909’, ‘सारा आकाश’, ‘दस्तक’, ‘लाल पत्थर’, ‘मेरे अपने’, ‘27 टाउन’, ‘आविष्कार’, ‘गदर’, ‘मजबूर’, ‘दिल्लगी’, ‘एक बार फिर’, ‘नमकीन’, ‘हिप हिप हुर्रे’, ‘आघात’, ‘खामोश’, ‘जनम’, ‘डकैत’, ‘तृषाग्नि’, ‘दिशा’, ‘थोड़ा सा रोमानी हो जाएं’,  ‘रात’, ‘आईना’, ‘नसीम’, ‘इस रात की सुबह नहीं’, ‘आर या पार’, ‘हरी भरी’, ‘हासिल’, ‘सहर’, ‘1971’, ‘हल्ला’, ‘राकेट सिंह’, ‘द स्टोनमैन मर्डर्स’, ‘गुलाल’, और ‘अंतद्र्वंद्व’ ़ ़ ़ क्या आप ने ये फिल्में देखी हैं। अगर न देखी हो तो कम से कम सुना जरूर होगा। सच कहूं तो हिंदी सिनेमा के इतिहास मे ये कुछ मामूली लेकिन महत्वपूर्ण फिल्में हैं। इन फिल्मों को अविजित घोष ने अपनी नयी पुस्तक ‘40 रीटेक्स’ में रेखांकित किया है।
    अविजित घोष हिंदी सिनेमा के कट्टर दर्शक और समर्थक हैं। फिल्म पत्रकारिता की मुख्यधारा का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन जब-तब अपने लेखों, विश्लेषणों और संस्मरणों से मुख्यधारा में हिलोर भर देते हैं। वे सिनेमा के दर्शक होने के साथ फिल्म इंडस्ट्री के परिवर्तन और प्रवृत्तियों के भी दर्शक हैं। उनकी महत्वपूर्ण किताब ‘सिनेमा भोजपुरी’ ने भोजपुरी सिनेमा के लगभग 50 सालों के इतिहास को संरक्षित करने की कोशिश है। उन्होंने अपनी नई पुस्तक ‘40 रीटेक्स’ में ‘मिस्टर संपत’ से लेकर ‘अंतद्र्वद्व’ तक ऐसी 40 फिल्में चुनी हैं, जिन्हें दर्शकों, इतिहासकारों और लेखकों ने भुला दिया है। समय के साथ विस्मृत हो रही इन फिल्मों के बारे में लिख कर अविजित घोष ने सिनेमा के इतिहास को समृद्ध किया है।
    दरअसल, जिस प्रकार हिंदी फिल्में स्टार केंद्रित हैं। वैसे ही हिंदी फिल्मों पर हो रहा लेखन भी कमोबेश स्टार केंद्रित है। बाजार में उपलब्ध किताबों पर नजर डालें तो उनमें से अधिकांश किसी न किसी स्टार या फिर चर्चित फिल्मों पर ही होती हैं। इतिहास का यह पुराना नजरिया है, जहां सिर्फ राजाओं के ही आख्यान लिखे जाते हैं। इतिहास की सही समझ के लिए जरूरी है कि तत्कालीन सभी स्थितियों और व्यक्तियों का भी उसमें समावेश हो। तभी हम किसी काल को उसकी पूर्णता में समझ सकते हैं। फिल्मों पर लेखन की बात करें तो हिंदी की स्थिति और बदहाल है। अधिकांश प्रकाशक रोचक और पठनीय किताबों के नाम पर फिल्म स्टारों की बहुश्रुत जीवनी ही चाहते हैं। इसके अलावा प्रकाशक पुस्तक लेखन में छदाम भर भी निवेश करने के लिए तैयार नहीं होते। कविता और कहानी की पुस्तकों की तरह वे फिल्मों की पुस्तकें छाप कर लेखक पर एहसान जताने की मनोदशा से बाहर नहीं निकल पाते। ऐसे परिवेश में अविजित घोष के लेखन को प्रकाशक और पाठक दोनों मिल रहे हैं। सचमुच यह आह्लाद का विषय है।
    अविजित घोष ने इन फिल्मों का चयन सिनेमा के किसी फैंटेसी के तहत नहीं किया है। उन्हें लगता है कि इन फिल्मों को रिलीज के समय और उसके बाद उचित सराहना और समीक्षा नहीं मिली। दर्शकों ने इन्हें सामूहिक विस्मृति के अंधेरे में धकेल दिया। इन फिल्मों पर लिखते हुए अविजित ने गंभीरता नहीं ओढ़ी है और न ही वे यह जताने या सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि उनकी चयनित फिल्में किसी प्रकार की श्रेष्ठ फिल्में हैं। उनका प्रयास इतना भर है कि इन 40 फिल्मों का संदर्भ समझ में आ जाए। अगर कोई शोधकर्ता भविष्य में इनमें से किसी फिल्म पर गहन कार्य करना चाहे तो उसे आरंभिक मदद मिल जाए।
    इस पुस्तक के लेखन क्रम में अविजित घोष ने चयनित फिल्मों के निर्माता, निर्देशकों, कलाकारों और तकनीशियनों से बातें कीं। उन्होंने उल्लेख किया है कि लगभग 80 प्रतिभाओं के इंटरव्यू से उनकी यह किताब मुकम्मल हो सकी। निश्चित ही यह कार्य कठिन और नैराश्यपूर्ण रहा होगा। हिंदी फिल्मों के कलाकारों की रुचि अपनी पिछली फिल्मों में नहीं होती है। उन पर बातें करना भी उन्हें अनुचित और समय का दुरुपयोग लगता है। मैं अनुमान लगा सकता हूं कि कितनी बार अविजित ने इस योजना को अधूरा छोडऩे का मन बनाया होगा।
    सिनेप्रेमियों और आज पाठकों के लिए अविजित घोष की ‘40 रीटेक्स’ उपयोगी पुस्तक है। हमें चाहिए कि हम सभी फिल्मों और फिल्मी प्रतिभाओं की जानकारियां सुव्यवस्थित कर उनका दस्तावेजीकरण कर लें। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के नित बढ़ती कमाई और व्यवसाय के बावजूद फिल्मों के अध्ययन, संकलन और विश्लेषण पर किसी का ध्यान नहीं है। फिल्म इंडस्ट्री के बाहर निजी प्रयासों से अविजित घोष जैसे लेखक ही कुछ जोड़ पाते हैं। यह पठनीय पुस्तक है।
‘40 रीटेक्स’
लेखक - अविजित घोष

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