फिल्म समीक्षा : एंग्री इंडियन गॉडेसेस
दुनिया औरतों की
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्मों
में पुरुष किरदारों के भाईचारे और दोस्ती पर फिल्में बनती रही हैं। यह एक
मनोरंजक विधा(जोनर) है। महिला किरदारों के बहनापा और दोस्ती की बहुत कम फिल्में
हैं। इस लिहाज से पैन नलिन की फिल्म ‘एंग्री इंडियन गॉडेसेस’ एक अच्छी कोशिश है। इस फिल्म में सात महिला किरदार हैं।
उनकी पृष्ठभूमि अलग और विरोधी तक हैं। कॉलेज में कभी साथ रहीं लड़कियां गोवा में
एकत्रित होती हैं। उनमें से एक की शादी होने वाली है। बाकी लड़कियों में से कुछ की
शादी हो चुकी है और कुछ अभी तक करिअर और जिंदगी की जद्दोजहद में फंसी हैं। पैन
नलिन ने उनके इस मिलन में उनकी जिंदगी के खालीपन,शिकायतों और उम्मीदों को रखने की
कोशिश की है।
फिल्म की
शुरुआत रोचक है। आरंभिक मोटाज में हम सातों लड़कियों की जिंदगी की झलक पाते हैं।
वे सभी जूझ रही हैं। उन्हें इस समाज में सामंजस्य बिठाने में दिक्कतें हो रही
हैं,क्योंकि पुरुष प्रधान समाज उनकी इच्छाओं को कुचल देना चाहता है। तरजीह नहीं
देता। फ्रीडा अपनी दोस्तों सुरंजना,जोअना,नरगिस,मधुरिता और पैम को अपनी शादी के
मौके पर बुलाती है। फ्रीडा की बाई लक्ष्मी उन सभी की देखभाल करती है। उसकी भी एक
जिंदगी और उस जिंदगी के संघर्ष हैं। हिंदी फिल्मों में विभिन्न तबकों की औरतों
के स्ट्रगल की समानताएं(महेश भट्ट की अर्थ) दिखाई जाती रही हैं। ऐसी जाहिर
समानताओं के पीछे सही तर्क और आधार न हो तो कोशिश बेमानी लगती है। इस फिल्म में
लक्ष्मी का ट्रैक ऐसी ही चिप्पी है। बहरहाल,पैन नलिन ने बाकी किरदारों के साथ
महिलाओं से जुड़ी समस्याओं को स्वर दिया है। स्त्रियों की समलैंगिकता का भी
मुद्दा आता है।
हिंदी फिल्मों में लड़कियों की दुनिया में झांकने के
अवसर कम मिलते हैं। हिंदी सिनेमा के आम दर्शकों के लिए यह एक उद्घाटन की तरह होगा।
लड़कियों के संवादों और बातचीत पर उन्हें हंसी आ सकती है। वे चकित भी हो सकते
हैं। फिल्म के एक प्रसंग में पड़ोस के एक लड़के को निहारती लड़कियों की बातचीत
दिलचस्प है। इसके अलावा पुरुषों के प्रति उनकी टिप्पणियों से उनके अंदर जमा गुस्से
का भी इजहार होता है। पैन नलिन संकोच
नहीं करते। और न ही उनके किरदार और उन्हें निभा रही अभिनेत्रियां किसी प्रकार की
झेंप महसूस करती हैं। हम उनके अधूरेपन के साथ उनकी ख्वाहिशों और दम-खम से भी
परिचित होते हैं।
फिल्म में
कई नाटकीय प्रसंग हैं। पैन नलिन समाज पर कटाक्ष करने से भी नहीं चूकते। इस फिल्म
की खूबी है कि कोई नायिका नहीं है,लेकिन वही खूबी एक समय के बाद दिशाहीन होकर एक
ही दायरे में चक्कर लगाने लगती है। दोस्ती की चहारदीवारी से जब लेखक-निर्देशक
बाहर निकलते हैं तो पुराने घिसे-पिटे मुद्दे में उलझ जाते हैं। दूसरे किरदार आते
हैं और कहानी एक घटना में बह जाती है। फिल्म का आखिरी हिस्सा कमजोर और मुख्य
कहानी से अलग है।
सीमाओं और बिखराव के बावजूद पैन नलिन की इस कोशिश की
सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने कुछ नया सोचा और उसे पेश किया। फिल्म में कोई
भी मशहूर चेहरा नहीं है। उसकी जरूरत भी नहीं थीं। अन्यथा हम सामान्य किरदारों की
जगह विशेष कलाकारों को देखने लगते और उनकी आपस में नाप-तौल करने लगते। सभी ने
बेहतर काम किया है। खास कर लक्ष्मी बनी राजश्री देशपांडे और मणुरिता की भूमिका
में अनुष्का मनचंदा अपने किरदारों की सघनता की वजह से याद रह जाती हैं।
अवधि-121 मिनट
स्टार- तीन स्टार
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