सिनेमालोक : कहाँ गए सिनेमाघर?


सिनेमालोक
कहाँ गए सिनेमाघर?
-अजय ब्रह्मात्मज  

मधुबनी के जिस होटल में ठहरा हूं,उसके मैनेजर से मैंने पूछा कि क्या उन्होंने संजू देखी है? उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,'जी देखी है।पिछले हफ्ते जमशेदपुर गया था तो वहां प्रकाश झा के नए मल्टीप्लेक्स में मैंने राजकुमार हिरानी की 'संजू' देखी।' इस सामान्य से जवाब से मैं थोड़ा हैरान हुआ। मेरा अगला सवाल था, 'क्यों,मधुबनी में देखने का मौका नहीं मिला या यहां यह फ़िल्म नहीं लगी है?' उनका जवाब था, 'फिल्म लगने के लिए सिनेमाघर चाहिए। मधुबनी का आखिरी सिनेमाघर शंकर टॉकीज अभी पिछले दिनों बंद हो गया। कभी इस शहर में तीन सिनेमाघर थे। सभी में भीड़ उमड़ती थी। अभी तीनों सिनेमाघर बंद पड़े हैं।सुना है जल्दी ही एक मल्टीप्लेक्स बनने वाला है।

मधुबनी शहर में चार मॉल आ गए हैं। इनमें पॉपुलर ब्रांड के कपड़े और दूसरे उपभोक्ता सामान मिलते हैं। मैंने शहर के कुछ युवकों से बात की कि आखिर वे फिल्में कैसे देखते हैं? उनसे पता चला कि शहर के सिनेमा प्रेमियों का सहारा स्मार्टफोन है। कोई भी फिल्म रिलीज हो। वह गैरकानूनी तरीके से बाजार में आ ही जाती है। चंद रुपयों में वह मोबाइल में लोड कर ली जाती है और फिर दोस्तों के बीच बंटती है। जिन शहरों और कस्बों में सिनेमाघर नहीं हैं,वहां यही तरीका अपनाया जा रहा है। थिएटर सम्पन्न शहरों के दर्शकों की तरह सिनेमाघरों से वंचित शहरों के दर्शकों भी पहले हफ्ते में ही फ़िल्म देखने का तरीका खोज चुके हैं। क्या वितरक और प्रदर्शक इस तरफ ध्यान दे रहे हैं? निर्माताओं की यह चिंता रहती है कि वे कैसे देश के अधिकांश दर्शकों तक पहुंचें? उन्हें मालूम तो है कि देश उनकी फिल्में देख रहा है,लेकिन पैसे उन तक नहीं पहुंच रहे हैं।

छोटे शहरों और कस्बों से आये 40 से अधिक उम्र के पाठक बता सकते हैं कि उनके बचपन को चलती-फिरती तस्वीरों से मुग्ध करने के ठिकानों पर अब कोई चहल-पहल नहीं है। ना तो समाजशास्त्रियों और ना फ़िल्म व्यवसाय से जुड़े व्यक्तियों ने कम और खत्म होते सिनेमाघरों के कारणों का अध्ययन किया और ना कहीं यह चिंता है कि देश के तमाम दर्शकों तक फिल्में कैसे पहुंचे? लगातार आंकड़े आ रहे हैं कि जिस तेजी से सिनेमाघर बैंड हो रहे हैं,उसी रफ्तार से मल्टीप्लेक्स नहीं खुल रहे हैं। पहले फिल्मों देखने के लिए आसपास के कस्बों और शहरों की यात्रा होती थी। कोई फ़िल्म लोकप्रिय हो जाती थी तो पूरा परिवार फिल्में देखने जय करता था।

 मधुबनी शहर में ही 'नदिया के पार' देखने के लिए आसपास के गांवों से परिवार बैलगाड़ियों में लद कर आये थे। आठवें दशक के आरंभ में फारबिसगंज के वार्षिक मेले ऐसे पारिवारिक जत्थों को मैंने टेंट सिनेमा में फिल्में देखते देखा है। अभी दर्शकों का प्रोफाइल और मिजाज बदल गया है। पहले वीडियो और फिर सीडी-डीवीडी ने दर्शकों को सुविधा दी कि वे बगैर सिनेमाघर गए फिल्मों का आनद टीवी या कंप्यूटर पर  उठा सकते हैं। उसके बाद स्मार्ट फोन और पेन ड्राइव व यूएसबी ने ऐसी सहूलियत दी कि रही-सही उम्मीद भी खत्म हो गयी। सिनेमाघरों के दर्शक कम होने और सिनेमाघर खत्म होने की प्रक्रिया लगभग साथ चली। 

फिलहाल ज्यादातर सिंगल स्क्रीन बंद हो चुके हैं या बंद होने की कगार पर हैं। उनकी जगह भरने के लिए मल्टीप्लेक्स का विकल्प लागत,प्रचलन और मुनाफे के लिहाज से कस्बों के लिए मुनासिब नहीं है। एक रास्ता छोटे सिंगल स्क्रीन का है। उस तरफ उद्यमियों का ध्यान नहीं है। बीच में सुगबुगाहट हुई थी। कुछ नए वेंचर उभर रहे थे कि वर्तमान सरकार के आर्थिक फैसलों और अधिकतम कर बटोरने की मंशा ने योजनाओं का बंटाधार कर दिया। फ़िल्म इंडस्ट्री इस साल लाभ दिखा रही है। उसी अनुपात में सरकार भी फायदे में रहेगी,लेकिन मनोरंजन कर के रूप में वसूली गयी रकम भी सिनेमा के वितरण और प्रदर्शन को दर्शकों के अनुरूप करने का प्रयास नहीं दिखता। नतीजतन सिनेमाघर निरंतर गायब होते जा रहे हैं।


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