फिल्म समीक्षा : बत्ती गुल मीटर चालू

फिल्म समीक्षा
बत्ती गुल मीटर चालू
-अजय ब्रह्मात्मज
श्रीनारायण सिंह की पिछली फिल्म ‘टॉयलेट एक प्रेमकथा' टॉयलेट की ज़रुरत पर बनी प्रेरक फिल्म थी.लोकप्रिय स्टार अक्षय कुमार की मौजूदगी ने फिल्म के दर्शक बढ़ा दिए थे.पीछ फिल्म की सफलता ने श्रीनारायण सिंह को फिर से एक बार ज़रूरी मुद्दा उठाने के लिए प्रोत्साहित किया.इस बार उन्होंने अपने लेखको सिद्धार्थ-गरिमा के साथ मिल कर बिजली के बेहिसाब ऊंचे बिल को विषय बनाया.और पृष्ठभूमि और परिवेश के लिए उत्तराखंड का टिहरी गढ़वाल शहर चुना.
फिल्म शुरू होती है टिहरी शहर के तीन मनचले(एसके,नॉटी और सुंदर ) जवानों के साथ.तीनो मौज-मस्ती के साथ जीते है. एसके(शाहिद कपूर) चालाक और स्मार्ट है.और पेशे से वकील है.नॉटी(श्रद्धा कपूर) शहर की ड्रेस डिज़ाइनर है.वह खुद को मनीष मल्होत्रा से कम नहीं समझती.छोटे शहरों की हिंदी फिल्मों में सिलाई-कटाई से जुड़ी नौजवान प्र्र्धि में मनीष मल्होत्रा बहुत पोपुलर हैं.भला हो हिंदी अख़बारों का. आशंकित हूँ की कहीं ‘सुई धागा' में वरुण धवन भी खुद को मनीष मल्होत्रा न समझते हों.खैर,तीसरा सुंदर(दिव्येन्दु शर्मा) अपना व्यवसाय ज़माने की कोशिश में है.नॉटी दोनों लड़कों से बराबर दोस्ती निभाती है.एक वक़्त आता है कि वह दोनों में से किसी एक को जीवन साथी बनाने का फैसला लेना चाहती है.तय होता है कि दोनों दोस्तों के साथ वह एक-एक हफ्ता बिताएगी.एसके देख लेता है कि नॉटी और सुंदर एक-दुसरे को चूम रहे हैं.उसे दंभ था कि नॉटी तो उसे ही चुनेगी.यहाँ से कहानी में ट्विस्ट आता है.
फिल्म का विषय है बिजली का बेहिसाब बिल...सुंदर प्रिंटिंग और पैकेजिंग का बिज़नस आरम्भ करता है.नॉटी और एसके खुश हैं.यह चुम्बन और ट्विस्ट के पहले के प्रसंग हैं.सुंदर के बिज़नस में बिजली का बिल ज्यादा आता है तो वह बिजली विभाग में शिकायत करता है.मीटर चेक करने का उपकरण लगाने के बाद बिल और ज्यादा आता है-पचास लाख.शिकायत करने पर बिजली विभाग के कर्मचारी बिल भरने की हिदायत देते हैं.बात आगे बढती है.तब तक एसके नाराज़गी में मसूरी चला गया है.दोनों उसकी मदद के लिए पहुँचते हैं तो वह दुत्कार देता है...इसके बाद कहानी मोड़ लेती है और एसके बेहिसाब बिल का माला हाई कोर्ट तक ले जाता है.थोड़े जिरह और बहसबाजी के बाद ग्राहकों के हक में कोर्ट फैसला लेती है.बिजली कंपनी का लाइसेंस रद्द कर दिया जाता है.हिंदी फिल्मों के ‘पोएटिक जस्टिस' के नाम पर सब कुछ सुधर और संभल जाता है.
फिल्म सरल है.टिहरी की भाषा के खास फ्लेवर के साथ लिखी और बनायीं गयी है.लेखन में स्थानीय फ्लेवर इतना स्ट्रोंग हो गया है कि संवादों की सादगी कडवाहट में बदल गयी है.एक तो हर वाक्य में क्रिया के साथ ‘ठहरा' शब्द का प्रयोग कुछ देर के बाद खटकने लगता है.बार-बार ध्यान वहीँ ठहर जाता है. इसके अलावा ‘बल' का बहुतायत उपयोग बलबलाने लगता है. साथ में ‘लता' भी प्रव्हुर मात्रा में वाक्यों के अंत में जोड़ा गया है.इन तीन शब्दों का बारम्बार दोहराव सम्प्रेषण में बाधक बनता है.सिद्धार्थ-गरिमा ने इस भाषा के लिए अच्छी मेहनत की होगी.कलाकारों ने अभ्यास भी किया होगा,लेकिन फिल्म का प्रभाव उसी अनुपात में नहीं बढ़ता.खूबी ही खामी बन गयी है.प्रसंगवस शहीद कपूर की संवाद अदायगी का उल्लेख ज़रूरी है.वे संवाद बोलते समय न केवल पिच बदलते रहते हैं,बल्कि अदायगी का अंदाज भी बदल देते हैं.किरदार को मसखरी का अंदाज देने के चक्कर में वे हास्यास्पद हो जाते हैं.इस फिल्म में उनकी सीमायें भी नज़र आईं.किरदार के स्थायी भाव पर वे नहीं टिके रहते.बार-बार लाइन छोड़ देते हैं.उनके अभिनय में सुसंगति नहीं झलकती.
अभिनय के लिहाज से दिव्येंदु शर्मा अपने किरदार में सटीक हैं.उन्होंने सुंदर की मासूमियत और कमजोरी को अच्छी तरह साधा है.श्रद्धा कपूर ठीक सी हैं.फिल्म और संबंधों की कमान कभी उनके हाथ में नहीं आती,इसलिए वह असर भी नहीं छोड़तीं.सहयोगी किरदारों में सुंदर के पिता निभा रहे कलाकार की भंगिमाएं प्रभावित करती हैं.
कई संगीतकारों ने फिल्म के गाने बनाये हैं.मैं तो इंतजार में था कि किसी गाने में ‘ठहरा' टेक आएगा.गंगा की स्तुति समकालीन है और रहत फतह अली खान को भावपूर्ण गीत मिला है.इन गानों का फिल्म की थीम से खास मतलब नहीं है.यहाँ स्थानीयता की सुध नहीं रही है.
श्रीनारायण सिंह खुद एडिटर और डायरेक्टर हैं.फिल्म की लम्बाई उन्होंने ही तय की होगी.उसकी लम्बाई पर सवाल नहीं उठाया जा सकता,लेकिन फिल्म शिथिल होने के साथ बिखरती रहती है तो यह एहसास होता है कि फिल्म छोटी हो सकती थी.इंटरवल के ठीक पहले जुड़ते-बढ़ते दृश्यों को देखते हुए लगता है किनिर्देशल-एडिटर 'इंटरवल पॉइंट' खोज रहे हैं.
अवधि- 155 मिनट

** दो स्टार

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