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हिंदी फिल्मों के पहले रॉकस्टार थे शम्मी कपूर

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-अजय ब्रह्मात्मज 21 अक्टूबर 1931 को मुंबई के कपूर परिवार में पैदा हुए शम्मी कपूर ने 14 अगस्त 2011 को अंतिम सासें लीं। वे किडनी की बीमारी से ग्रस्त थे। उनके निधन पर अमिताभ बच्चन ने ट्विट किया ़ ़ ़ जिंदादिल शम्मी कपूर खामोश हो गए। शम्मी कपूर की पहली ख्वाहिश इंजीनियर बनने की थी। वे वैमानिकी में योगदान करना चाहते थे। उड़ान भरने की उनकी लालसा हिंदी सिनेमा के पर्दे पर पूरी हुई। मैट्रिक पास करने के बाद वे कालेज भी गए,लेकिन दिल फिल्मों की तरफ खिंचता गया। पिता की सलाह पर वे पृथ्वी थिएटर में शामिल हो गए। यह 1948 की बात है। जूनियर आर्टिस्ट के तौर पर उनकी पगार रखी गई 50 रूपए महीने। 4 सालों तक पृथ्वी थिएटर में सीखने और मंजने के बाद उन्होंने 1952 में पृथ्वी थिएटर छोड़ा तो उनकी पगार 300 रूपए थी। फिल्मों में उनकी शुरूआत कारदार फिल्म्स की फिल्म जीवन ज्योति से हुई। इस फिल्म के निर्देशक महेश कौल थे और हीरोइन थीं चांद उस्मानी। 1952 से 55 के बीच उन्होंने दर्जन भर से अधिक फिल्मों में मधुबाला,नूतन,सुरैया और नलिनी जयवंत जैसी मशहूर अभिनेत्रियों के साथ काम किया,लेकिन इनमें से किसी फिल्म को उल्लेखनीय सफलता नहीं

अबरार अल्वी ने बदली संवादों की भाषा

- अजय ब्रह्मात्मज पिछले 19 नवम्बर को मुंबई में अबरार अल्वी ने दुनिया से खामोश विदाई ले ली। उनकी अंत्येष्टि की जानकारी लोगों को नहीं मिली इसलिए परिवार के सदस्यों के अलावा और कोई नहीं पहुंच पाया। किसी निजी तो कभी दूसरों की खामोशी की वजह से हिंदी फिल्मों में अबरार अल्वी के योगदान को सही महत्व नहीं मिल पाया। पिछले साल गुरुदत्त के साथ बिताए दस सालों पर उनकी एक किताब जरूर आई, लेकिन घटनाओं को सहेजने में उम्र के कारण उनकी यादें धोखा देती रहीं। उनके भांजे और थिएटर के मशहूर निर्देशक सलीम आरिफ बताते है कि अबरार मामू मीडिया और खबरों से दूर ही रहे। उन्होंने गुरुदत्त से अपनी संगत को सीने से लगाए रखा। नागपुर से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद लंबे-छरहरे अबरार अल्वी एक्टर बनने के इरादे से मुंबई आए थे। गीता बाली के बहनोई जसवंत को वे जानते थे। उनके माध्यम से ही गुरुदत्त से परिचय हुआ। गुरुदत्त की फिल्म 'बाज' का प्रायवेट शो था। उसमें जसवंत ने अबरार अल्वी को बुला लिया था। फिल्म देखने के बाद गुरुदत्त ने अबरार अल्वी से उनकी राय पूछी तो उन्होंने बेलौस जवाब दिया, 'आप बहुत फोटोजेनिक है।' इस जवाब का

सुनहरे दिनों की सुनहरी नायिका लीला नायडू-विपिन चौधरी

सुन्दरता सच में बेहद मासूम होती है। मासूम के साथ-साथ सहज भी। खूबसूरती, मासूमयिता और नफासत देखनी हो कई नामों की भीड से गुजरते हुये हिंदी फिल्मों में अपनी छोटी लेकिन मजबूत उपस्तिथी दर्ज करवाने वाली नायिका लीला नायडू का नाम हमारे सामने आता है। उन दिनों जब जीवन बेहद सरल होता था और लोग भी सीधे-साधे। उन सुनहरे दिनों की बात की जाये जब सोना सौ प्रतिशित खरा सोना होता था। उनही दिनों के आगे पीछे की बात है जब हरिकेश मुखजी की' अनुराधा' फिल्म आई थी। नायक थे बलराज साहनी और नायिका थी लीला नायडू। जिस सहजता, सरलता का ताना बाना ले कर मुखर्जी फिल्में बनाते है उसी का एक और उदाहरण है उनकी यह फिल्म। उनकी फिल्मों में आपसी रिश्तों की बारीकियों सहज ही दिखाई देती थी। अनुराधा,फिल्म की नायिका लीला नायडू का मासुम सौन्दर्य देखते ही बनता था और उससे भी मधुर था उनके संवादों की अदायगी। सहअभिनेता भी वो जो सहज अभिनय के लिये विख्यात हो और अभिनेत्री की सहजता भी काबिले दाद। महीन मानवीय सम्बंधों पर पैनी पकड वाले निदेशक ऋषिकेश मुखर्जी ने १९८० में फिल्म बनाई थी अनुराधा। दांपत्य जीवन के सम्बंधो में तमाम तरह के उतार चढाव

सजग पत्रकार की चेतना के फिल्मकार बीआर चोपड़ा

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले कुछ सालों से वह स्वस्थ नहीं थे। ह्वील चेयर पर ही कार्यक्रमों में आते-जाते थे। लोगों से बात न कर पाने की बेबसी उनके चेहरे पर झलकती थी। लेकिन दूसरों की बातें सुन कर उनकी आंखों में चमक आ जाती थी। वे आंखें बहुत कुछ बयां कर देती थीं। बेटे रवि चोपड़ा उनकी भावनाओं को शब्द देते थे। मुझे याद है बीआर फिल्म्स के 50 साल पूरे होने पर उन्होंने अपनी फिल्मों की खास स्क्रीनिंग रखी थी। चार दिनों तक चली उस स्क्रीनिंग में दिलीप कुमार से लेकर उनके साथ जुड़े कई कलाकार आए थे। सभी ने उस दौर की फिल्म मेकिंग, डायरेक्टर के साथ रिश्तों और काम के माहौल पर अपने संस्मरण सुनाए। बीआर यानी बलदेव राज को करीब से समझने का वह पहला मौका था। 'सिने हेराल्ड जर्नल' के लिए फिल्म पत्रकार के तौर पर करियर शुरू करने वाले बलदेवराज चोपड़ा आजादी के पहले लाहौर की फिल्म सर्किल में काफी सक्रिय थे। उन्होंने गोवर्धन दास अग्रवाल की फिल्म 'डाक बंगला' की समीक्षा में फिल्म की धज्जियां उड़ा दी थीं। फिल्म फ्लाप हो गई तो अग्रवाल ने कहा कि बीआर ने बदले की भावना से समीक्षा लिखी थी। स्थितियां जो भी रही हों, आजादी क