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हिंदी फिल्में इंग्लिश मीडिया

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों मोरक्को में मराकेश इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भारतीय सिनेमा के सौ साल के सफर पर केंद्रित इवेंट आयोजित किया गया था। नाम भारतीय सिनेमा का था। मुख्य रूप से वहां हिंदी फिल्में दिखाई गई। साथ ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कुछ स्टारों को निमंत्रित किया गया था। इस इवेंट की कवरेज के लिए भारत से केवल इंग्लिश मीडिया को आमंत्रित किया गया था। माराकेश इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के आयोजक भी जानते हैं कि हिंदी फिल्मों के लिए गैर-इंग्लिश मीडिया की कोई जरूरत नहीं है। विदेश में विदेशियों द्वारा आयोजित समारोह के अधिकारियों के फैसले की क्यों शिकायत करें? सभी जानते हैं कि भारत या अपने देश में सभी राष्ट्रभाषाओं और इंग्लिश की क्या स्थिति है? फिल्में हिंदी में बनती हैं। राजनीति हिंदी में की जाती है। सारा कंज्यूमर कारोबार हिंदी में होता है, लेकिन सभी क्षेत्रों में कामकाज की भाषा इंग्लिश हो चुकी है। इंग्लिश को मिल रही प्राथमिकता से अनेक तरह की दिक्कतें भी बढ़ती जा रही हैं। यहां हम हिंदी फिल्मों की बात करें, तो हमें आए दिन इंग्लिश में बोलते स्टार टीवी में दिखाई प

हद तोड़ती हिंदी फिल्‍में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यह स्थापित तथ्य है कि हिंदी फिल्मों के इतिहास में हमेशा बाहर से आए फिल्मकारों ने ही फिल्मों के कथ्य का विस्तार किया। उन्होंने नए फॉर्म चुने, अपनी पहचान बनाने के लिए प्रयोग किए, प्रचलित ढर्रे को तोड़ा और अपने समय को प्रभावित किया। आज यही सुनहरा इतिहास खुद को दोहरा रहा है। कहानी, कथ्य, शिल्प, प्रस्तुति, विषय और बिजनेस हर स्तर पर फिल्म इंडस्ट्री में बाहर से आए फिल्मकार निरंतर कुछ जोड़ रहे हैं। वे बालीवुड की सीमित पहचान से बाहर निकलना चाह रहे हैं। बियोंड बालीवुड है उनकी सोच और उनकी फिल्में। इनके विपरीत अगर फिल्म इंडस्ट्री से आए फिल्मकारों पर नजर डालें तो उनमें से अधिकांश अभी रीमेक और सीक्वेल बना रहे हैं। कुछ पुराने फार्मूलों की नई पैकैजिंग और मार्केटिंग कर रहे हैं। हालांकि उनकी फिल्मों को मुनाफे का सुरक्षित समीकरण माना जाता है, लेकिन बॉक्स आफिस पर उन्हें भी चित्त होते देखा गया है। लीक से हटकर सोच नए दौर के निराले फिल्मकारों को समझने के लिए हाल की दो फिल्मों तिग्मांशु धूलिया की पान सिंह तोमर और सुजॉय घोष की कहानी का उदाहरण काफी है। दोनों ही फिल्में यु