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फिल्म समीक्षा:दिल बोले हडि़प्पा
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यशराज फिल्म्स ने पंजाब का पर्दे पर इतना दोहन कर लिया है कि अब उनके सही इरादों के बावजूद फिल्म नकली और देखी हुई लगने लगी है। दिल बोले हडि़प्पा के प्रसंग और दृश्यों में बासीपन है। आम दर्शक इसके अगले दृश्य और संवाद बता और बोल सकते हैं। वीरा (रानी मुखर्जी) का सपना है कि वह सचिन और धौनी के साथ क्रिकेट खेले। अपने इस सपने की शुरूआत वह पिंड (गांव) की टीम में शामिल होकर करती है। इसके लिए उसे वीरा से वीर बनना पड़ता है। लड़के के वेष में वह टीम में शामिल हो जाती है। निर्देशक अनुराग सिंह को लगता होगा कि दर्शक इसे स्वीकार भी कर लेंगे। 30 साल पहले की फिल्मों में लड़कियों के लड़के या लड़कों के लड़कियां बनने के दृश्यों में हंसी आती थी। अब ऐसे दृश्य फूहड़ लगते हैं। दिल बोले हडि़प्पा ऐसी ही चमकदार और रंगीन फूहड़ फिल्म है। फिल्म में रानी मुखर्जी पर पूरा फोकस है। ऐसा लगता है कि उनकी अभिनय प्रतिभा को हर कोने से दिखाने की कोशिश हो रही है। करिअर के ढलान पर रानी की ये कोशिशें हास्यास्पद हो गई हैं। शाहिद कपूर फिल्म में बिल्कुल नहीं जंचे हैं। अनुपम खेर ऐसी भूमिकाओं में खुद को दोहराने-तिहराने के अलावा कुछ नहीं कर
फिल्म समीक्षा:वांटेड
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-अजय ब्रह्मात्मज प्रभु देवा की वांटेड उस कैटगरी की फिल्म है, जो कुछ सही और ज्यादा गलत कारणों से हिंदी में बननी बंद हो चुकी है। इनके बारे में धारणा है कि केवल फ्रंट स्टाल के चवन्नी छाप दर्शक ही पसंद करते हैं। अब दर्शकों का प्रोफाइल बदल गया है। मल्टीप्लेक्स ने दर्शकों की जो आभिजात्य श्रेणी गढ़ी है, वह ऐसी फिल्मों को घटिया, असंवेदनशील और चालू कहती है। पिछले 15 वर्षो में हिंदी सिनेमा ने खुद को जाने-अनजाने ऐसी मनोरंजक फिल्मों से दूर कर लिया है। कभी ऐसी फिल्में बनती थीं और हमारे फिल्मी हीरो दर्शकों के दिलों पर राज करते थे। वांटेड उस नास्टेलजिया को जिंदा करती है। यह फिल्म हर किस्म के थिएटर के दर्शकों को पसंद आ सकती है, क्योंकि कुछ दर्शक इसे सालों से मिस कर रहे थे। नए शहरी दर्शकों ने तो ऐसी फिल्में देखी ही नहीं हैं। राधे (सलमान खान) पैसों के लिए कोई भी काम कर सकता है। एक बार जिस काम या बात के लिए वह हां कर देता है, उससे कभी नहीं मुकरता। अपनी इस खूबी और निर्भीक एटीट्यूड से वह अपराध जगत में तेजी से चर्चित हो जाता है। उसकी मांग बढ़ती है। अपराध जगत का सरगना गनी भाई विदेश में कहीं रहता है। अपने दा
दरअसल:निराश न हों हिंदी फिल्मप्रेमी
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-अजय ब्रह्मात्मज फिल्मों के राष्ट्रीय पुरस्कारों को लेकर इस बार कोई घोषित विवाद नहीं है, लेकिन जानकार बताते हैं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री बनाम दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के द्वंद्व के रूप में इसे देखा जा रहा है। ऐसी खबरें भी आई और सुर्खियां बनीं कि दक्षिण भारतीय फिल्मों ने हिंदी फिल्मों (बॉलीवुड) को पछाड़ा। किसी भी पुरस्कार और सम्मान को एक की जीत और दूसरे की हार के रूप में पेश करना सामान्य खबर में रोमांच पैदा करने की युक्ति हो सकती है, लेकिन सामान्य पाठकों के दिमाग में हारे हुए की कमतरी का एहसास भरता है। इस बार के पुरस्कारों की सूची देखकर ऐसा लग सकता है कि हिंदी फिल्में निकृष्ट कोटि की होती हैं, इसलिए उन्हें पुरस्कार नहीं मिल पाते। अगर फिल्मों में राष्ट्रीय पुरस्कारों के इतिहास में जाएं, तो इसमें कॉमर्शिअॅल और मेनस्ट्रीम सिनेमा को पहले तरजीह नहीं दी जाती थी। एक पूर्वाग्रह था कि कथित कलात्मक फिल्मों पर ही विचार किया जाए। मेनस्ट्रीम फिल्मों के निर्माता सफलता और मुनाफे के अहंकार में राष्ट्रीय पुरस्कारों की परवाह भी नहीं करते थे। वे अपने पॉपुलर अवार्ड से ही संतुष्ट रहते थे और आज भी कमोवे
चवन्नी चैप के पाठकों की संख्या 50,000 से अधिक
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दोस्तों आज खुशी का दिन है। चवन्नी चैप के पाठकों की संख्या 50,000 से अधिक हो गयी है। इंटरनेट और ब्लॉग के अध्येता बताएंगे कि क्या चवन्नी लोकप्रियता के क्रम में कहीं है क्या ? चवन्नी को यही खुशी है कि उसे 50,000 से अधिक पाठकों ने पढ़ा। उन्होंने इसके 1,00,000 से अधिक पृष्ठ पढ़े हैं। आरंभ में केवल मुंबई के पाठक थे। अब दिल्ली,जयपुर,लखनऊ,भोपाल और कानपुर के पाठक नियमित तौर पर आते हैं। चवन्नी को पॉपुलर करने में ब्लॉगवाणी की बड़ी भूमिका है। और भी एग्रीगेटर का सहयोग मिला। आजकल सीधे ब्लॉग पर आने वाले पाठक भी कम नहीं हैं। खुशी की बात है कि 10 से 15 प्रतिशत पाठक विदेशों से आते हैं। कुछ पाठक दूसरे ब्लॉग के जरिए आते हैं। चवन्नी को पसंद करनवाले मित्रों ने इसका लिंक अपने ब्लॉग पर डाल रखा है। उनसे भी पाठक मिलते रहे हैं। आप सभी पाठकों से गुजारिश है कि इसे अगले लेवल तक ले जाने की सलाह दें। चवन्नी को क्या करना चाहिए? आप के मार्गदर्शन से ही चवन्नी की खनक बढ़ेगी। इसकी खनक मुंबई के फिल्मकारों के बीच भी सुनी जाने लगी है। यह सब आप के प्रेम सं संभव हुआ है। बेहिचक अपनी राय दें।
फ़िल्म समीक्षा:बाबर
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-अजय ब्रह्मात्मज उत्तर भारत के अमनगंज जैसे मोहल्ले की हवा में हिंसा तैरती है और अपराध कुलांचे भरता है। बाबर इसी हवा में सांसें लेता है। किशोर होने के पहले ही उसके हाथ पिस्तौल लग जाती है। अपने भाईयों को बचाने के लिए उसकी अंगुलियां ट्रिगर पर चली जाती हैं और जुर्म की दुनिया में एक बालक का प्रवेश हो जाता है। चूंकि इस माहौल में जी रहे परिवारों के लिए हिंसा, गोलीबारी और मारपीट अस्तित्व की रक्षा के लिए आवश्यक है, इसलिए खतरनाक मुजरिम बच्चों के आदर्श बन जाते हैं। राजनीतिक स्वार्थ, कानूनी की कमजोरी, भ्रष्ट पुलिस अधिकारी और अपराध का रोमांच इस माहौल की सच्चाई है। बाबर इसी माहौल को पर्दे पर पेश करती है। आशु त्रिखा ने अपराध की दुनिया की खुरदुरी सच्चाई को ईमानदारी से पेश किया है। उन्हें लेखक इकराम अख्तर का भरपूर सहयोग मिला है। लेखक और निर्देशक फिल्म के नायक के अपराधी बनने की प्रक्रिया का चित्रण करते हैं। वे उसके फैसले को गलत या सही ठहराने की कोशिश नहीं करते। छोटे शहरों और कस्बों के आपराधिक माहौल से अपरिचित दर्शकों को आश्चर्य हो सकता है कि क्या बारह साल का लड़का पिस्तौल दाग सकता है? और अगर वह ऐसा करत
दरअसल:विदेशी लोकेशन का आकर्षण
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-अजय ब्रह्मात्मज आए दिन हिंदी फिल्मों के जरिए हम किसी न किसी देश की यात्रा करते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड के शहर और ऐतिहासिक स्थापत्य की झलक हम वर्षो से फिल्मों में देखते आ रहे हैं। एक दौर ऐसा आया था, जब किसी न किसी बहाने मुख्य किरदार यानी नायक-नायिका विदेश पहुंच जाते थे और फिर हिंदी के गरीब दर्शक अपने गांव-कस्बे और शहरों के सिनेमाघरों में उन विदेशी शहरों को देखकर खुश होते थे। एक टिकट में दो फायदे हो जाते थे, यानी मनोरंजन के साथ पर्यटन भी होता था। गौर करें, तो उस दौर में विदेशी लोकेशनों को फिल्मकार कहानी में अच्छी तरह पिरोकर पेश करते थे। फिर एक दौर ऐसा आया कि कहानी देश में चलती रहती थी और गाने आते ही नायक-नायिका विदेशी लोकेशनों में पहुंच जाते थे। यश चोपड़ा की फिल्मों में सुंदर और रोमांटिक तरीके से स्विट्जरलैंड की वादियां दिखती रहीं। उसके बाद करण जौहर जैसे निर्देशक अपनी फिल्म को लेकर विदेश चले गए। कभी खुशी कभी गम में उन्होंने जो विदेश प्रवास किया, वह अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। उनके बैनर की फिल्में अभी तक भारत नहीं लौटी हैं। उनकी अगली फिल्म माई नेम इज खान भी अमेरिका में शूट हुई है। पिछले
पुरस्कृत हुई हैं पहली फिल्में
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-अजय ब्रह्मात्मज फिल्मों के 55वें राष्ट्रीय पुरस्कार में हिंदी की किसी फिल्म को मुख्य श्रेणी में श्रेष्ठ फिल्म, श्रेष्ठ अभिनेता, श्रेष्ठ अभिनेत्री और श्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार नहीं मिलने से हिंदी फिल्म प्रेमी थोड़े उदास हैं। उनकी उदासी को समाचार चैनलों और अखबारों की सुर्खियों की प्रस्तुति ने और बढ़ा दिया है। खबरें चलीं कि बॉलीवुड को कांजीवरम ने पछाड़ा या आमिर-शाहरुख पर भारी पड़े प्रकाश राज। दरअसल, पुरस्कारों में प्रतिद्वंद्विता नहीं होती है। निर्णायक मंडल के सदस्य व्यक्तिगत रुचि और पसंद के आधार पर कलाकार, तकनीशियन और फिल्मों को पुरस्कार के लिए चुनते हैं। निर्णायक मंडल के सदस्यों की अभिरुचि से पुरस्कार तय होते हैं। बहरहाल, उदासी के इस वातावरण में उल्लेखनीय तथ्य है कि जिन हिंदी फिल्मों को विभिन्न श्रेणियों में पुरस्कार मिले हैं, वे सभी फिल्में निर्देशक की पहली फिल्में हैं। तारे जमीं पर को तीन पुरस्कार मिले। इस फिल्म के निर्देशक आमिर खान हैं और तारे जमीं पर उनकी पहली फिल्म है। इसी प्रकार गांधी माय फादर भी फिरोज अब्बास खान की पहली फिल्म है। इस फिल्म को भी तीन पुरस्कार मिले हैं। किसी निर
फ़िल्म समीक्षा:मोहनदास
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कहानी को फिल्म में ढालने की कोशिश -अजय ब्रह्मात्मज **1/2 उदय प्रकाश की कहानी मोहनदास पर आधारित मजहर कामरान की फिल्म देश की खुरदुरी सच्चाई को वास्तविक लोकेशन में पेश करने की कोशिश करती है। मजहर कामरान ने सिनेमाई छूट लेते हुए मूल कहानी में कुछ किरदार और प्रसंग जोड़े हैं। इससे फिल्म की नाटकीयता बढ़ी है, लेकिन सामाजिक विडंबना का मर्म हल्का हुआ है। कहानी के प्रभाव को मजहर कामरान फिल्म में पूरी तरह से नहीं उतार पाए हैं। अनूपपुर के दस्तकार परिवार के मोहनदास की पहचान छिन जाती है। बचपन से पढ़ने-लिखने में होशियार मोहनदास बड़ा होकर ओरिएंटल कोल माइंस में नौकरी के लिए आवेदन करता है। उसका चुनाव हो जाता है, लेकिन उसकी जगह कोई और बहाल हो जाता है। वह खुद को मोहनदास बताता है, लेकिन नकली मोहनदास उसकी पहचान वापस पहीं करता। वास्तविक मोहनदास अपने नाम और पहचान की लड़ाई में थपेड़े खाता है। एक न्यूज चैनल की रिपोर्टर मेघना सेनगुप्ता उसकी मदद में आगे आती है, लेकिन भ्रष्ट व्यक्तियों के कुचक्र में कोई नतीजा नहीं निकलता। ढाक के वही तीन पात ़ ़ ़ मोहनदास सामाजिक विसंगति और पूर्वाग्रह से नहीं जीत पाता। मजहर कामरान ने
फ़िल्म समीक्षा:चिंटू जी
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-अजय ब्रह्मात्मज **** रंजीत कपूर का सृजनात्मक साहस ही है कि उन्होंने ग्लैमरस, चकमक और तकनीकी विलक्षणता के इस दौर में चिंटू जी जैसी सामान्य और साधारण फिल्म की कल्पना की। उन्हें ऋषि कपूर ने पूरा सहयोग दिया। दोनों के प्रयास से यह अद्भुत फिल्म बनी है। यह महज कामेडी फिल्म नहीं है। हम हंसते हैं, लेकिन उसके साथ एक अवसाद भी गहरा होता जाता है। विकास, लोकप्रियता और ईमानदारी की कशमकश चलती रहती है। फिल्म में रखे गए प्रसंग लोकप्रिय व्यक्ति की विडंबनाओं को उद्घाटित करने के साथ विकास और समृद्धि के दबाव को भी जाहिर करते हैं। यह दो पड़ोसी गांवों हड़बहेड़ी और त्रिफला की कहानी है। नाम से ही स्पष्ट है कि हड़बहेड़ी में सुविधाएं और संपन्नता नही है, जबकि त्रिफला के निवासी छल-प्रपंच और भ्रष्टाचार से कथित रूप से विकसित हो चुके हैं। तय होता है कि हड़बहेड़ी के विकास के लिए कुछ करना होगा। पता चलता है कि मशहूर एक्टर ऋषि का जन्म इसी गांव में हुआ था। उन्हें निमंत्रित किया जाता है। ऋषि कपूर की राजनीतिक ख्वाहिशें हैं। वह इसी इरादे से हड़बहेड़ी आने को तैयार हो जाते हैं। हड़बहेड़ी पहुंचने के बाद जब जमीनी सच्चाई से उनका