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आई है नए कलाकारों की खेप

-अजय ब्रह्मात्‍मज क्या आपने भी गौर किया कि पिछले तीन-महीनों में आई छोटी फिल्मों के साथ अनेक कलाकारों ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में दस्तक दी। इस बार वे समूह में आए हैं। हर फिल्म में दो-चार नए चेहरे दिखाई पड़े। अलग बात है कि उनके आगमन का जोरदार प्रचार नहीं किया गया। एक तो फिल्में उतनी बड़ी नहीं थीं। दूसरे बैनर भी छोटे थे। बड़े बैनरों ने भी बैंड-बाजा नहीं बजाया। दर्शकों ने सीधा उन्हें पर्दे पर देखा। मुमकिन है कि अभी तक वे उन्हें बिसरा भी चुके हों। पर यकीन मानें इनमें से दो-चार तो हिट हो ही जाएंगे। फिल्म इंडस्ट्री में कलाकारों की किल्लत है। निर्माता-निर्देशक उनकी खोज में रहते हैं। बस, सभी यही चाहते हैं कि पहला मौका कोई और दे-दे। एक बार पर्दे पर दिखे चेहरे को आजमाने में ज्यादा रिस्क नहीं रहता। इस स्तंभ के लिए जब मैंने हाल में रिलीज हुई फिल्मों को पलटकर देखना शुरू किया, तो पाया कि कम से कम 25 नए चेहरे तो आ ही गए हैं। सुभाष घई की दो फिल्मों लव एक्स्प्रेस और साइकिल किक में लगभग एक दर्जन नए कलाकार थे। उन्होंने तो अपने फिल्म इंस्टीट्यूट के कलाकारों और तकनीशियनों की शोकेसिंग के लिए दोनों फिल्मों क

फिल्‍म समीक्षा : देल्‍ही बेली

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चौंकाती है इसकी भाषा -अजय ब्रह्मात्‍मज ताशी, अनूप और नितिन तीन दोस्त हैं। दुनिया से बगाने और अपने काम से असंतुष्ट.. गरीबी उनकी जिंदगी पर लदी हुई है। पुरानी दिल्ली के जर्जर से किराए के कमरे में रहते हुए किसी तरह व अपने सपनों को पाल रहे हैं। अचानक उनकी जिंदगी में ऐसी आंधी आती है कि उससे बचने की कोशिश में वे तबाही के करीब पहुंच जाते हैं। मौत के चंगुल से निकलने के लिए वे कामन सेंस का इस्तेमाल करते हैं। उनकी इस फटेहाल और साधारण सी जिंदगी को लेखक अक्षत वर्मा और निर्देशक अभिनय देव ने हूबहू पर्दे पर उतार दिया है। ये साधारण किरदार आसाधारण स्थितियों में फंसते हैं और हमें उनकी बेचारगी पर हंसी आती है। आमिर खान के स्पर्श ने इस फिल्म को अनोखा बना दिया है। मूल रूप से अंग्रेजी में बनी यह फिल्म भारतीय सिनेमा में एक नई शुरुआत है। निश्चित ही इसकी कामयाबी एक नए ट्रेंड को जन्म दगी, जिसके परिणाम से मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री प्रभावित होगी। भारतीय सिनेमा के आम दर्शकों पर इसका शॉकिंग असर होगा, क्योंकि उन्होंने न तो फिल्मों में ऐसी भाषा सुनी है और न ऐसे दृश्य देखे हैं। अभी तक हम गालियों के इस्त

फिल्‍म समीक्षा : बुड्ढा होगा तेरा बाप

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अपनी छवि को निभाते अमिताभ -अजय ब्रह्मात्‍मज वीजू और कोई नहीं विजय ही है। दशकों पहले हिंदी सिनेमा में इस किरदार को हमने कई फिल्मों में देखा है। अलग-अलग फिल्मों में अमिताभ बच्चन ही रुपहले पर्दे पर विजय को जीवंत करते थे। एंग्री यंग मैन विजय.. नाइंसाफी के खिलाफहक के लिए लड़ता-जूझता विजय रोमांटिक होने पर नाचता-गाता भी था और हल्के-फुल्के मूड में हंसी-मजाक भी करता था। उसकी ढिशुम औ ढिंच क्यों के दर्शक दीवाने थे। वह हर फिल्म मेंविजयी होता था। विजय के विभिन्न रूपों को मिलाकर इक इमेज बनी थी, जो पूरी तरह से फिल्मी होने के बावजूद देश की लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा बन गई थी। इसी विजय ने बीसवीं सदी के मशहूर पॉपुलर आइकॉन अमिताभ बच्चन का निर्माण किया। विजय की छवि और अभिनेता अमिताभ बच्चन के युगल प्रभाव को पुरी जगन्नाथ ने वीजू नाम दिया है, जिसे हम बुड्ढा होगा तेरा बाप में देख रहे हैं। बुढ्डा होगा तेरा बाप किवदंती बन चुके अमिताभ बच्चन की इमेज की पुनर्कथा है, जिसे पुरी जन्नाथ ने रोचक तरीके से एक फिल्म का रूप दिया है। मजेदार तथ्य है कि अपनी इमेज को लेकर बनी इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने

चवन्नी पर बोधिसत्व

बोधिसत्‍व की यह टिप्‍पणी मैंने 3 सितंबर 2007 को पोस्‍ट की थी। आज चवन्‍नी का आखिरी दिन है,लेकिन चवन्‍नी चैप आप की वजह से चलता रहेगा। चवन्नी को बोधिसत्व की यह टिपण्णी रोचक लगी.वह उसे जस का तस् यहाँ यहाँ प्रस्तुत कर खनक रहा है।आपकी टिपण्णी की प्रतीक्षा रहेगी.- चवन्नी चैप चवन्नी खतरे में है। कोई उसे चवन्नी छाप कह रहा है तो कोई चवन्नी चैप। वह दुहाई दे रहा है और कह रहा है कि मैं सिर्फ चवन्नी हूँ। बस चवन्नी। पर कोई उसकी बात पर गौर नहीं कर रहा है। और वह खुद पर खतरा आया पा कर छटपटा रहा है। यह खतरा उसने खुद मोल लिया होता तो कोई बात नहीं थी। उसे पता भी नहीं चला और वह खतरे में घिर गया। जब तक इकन्नी, दुअन्नी, एक पैसे दो पैसे , पाँच, दस और बीस पैसे उसके पीछे थे वह इतराता फिरता रहा।उसके निचले तबके के लोग गुम होते रहे, खत्म होते रहे फिर भी उसने उनकी ओर पलट कर भी नहीं देखा। वह अठन्नी से होड़ लेता रहा। वह रुपये का हिस्सेदार था एक चौथाई का हिस्सेदार। पर अचानक वह खतरे के निशान के आस-पास पाया गया। उसे बनाने वालों ने उसकी प्रजाति की पैदावार पर बिना उसे इत्तिला दिए रोक लगाने का ऐलान कर दिया तो वह एक दम बौखला

फिल्म समीक्षा : डबल धमाल

डबल मलाल -अजय ब्रह्मात्मज इन्द्र कुमार की पिछली फिल्म धमाल में फिर भी कुछ तर्क और हंसी मजाक था। इस बार उन्होंने सब कुछ किनारे कर दिया है और लतीफों कि कड़ी जोड़ कर डबल धमाल बनायीं है। पिछली फिल्म के किरदारों के साथ दो लड़कियां जोड़ दी हैं। कहने को उनमें से एक बहन और एक बीवी है, लेकिन उनका इस्तेमाल आइटम ग‌र्ल्स की तरह ही हुआ है। मल्लिका सहरावत और कंगना रानौत क निर्देशक ने भरपूर अश्लील इस्तेमाल किया है। फिल्म हंसाने से ज्यादा यह सोचने पर मजबूर करती है की हिंदी सिनेमा क नानसेंस ड्रामा किस हद तक पतन कि गर्त में जा सकता है। अफसोस तो यह भी हुआ की इस फिल्म को मैंने व‌र्ल्ड प्रीमियर के दौरान टोरंटो में देखा। बात फिल्म से अवांतर हो सकती है, लेकिन यह चिंता जगी की आइफा ने किस आधार पर इसे दुनिया भर के मीडिया और मेहमानों के सामने दिखाने के लिए सोचा। इसे देखते हुए डबल मलाल होता रहा। फिल्म में चार नाकारे दोस्त कबीर को बेवकूफ बनाने की कोशिश करने में लगातार खुद ही बेवकूफ बनते रहते हैं। उनकी हर युक्ति असफल हो जाती है। चारों आला दर्जे के मूर्ख हैं। कबीर भी कोई खास होशियार नहीं हैं, लेकिन जाहिर सी बात है क

अब वो डायलॉग कहाँ?

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-सौम्‍या अपराजिता और रघुवेन्‍द्र सिंह संवाद अदायगी का अनूठा अंदाज और उसका व्यापक प्रभाव हिंदी फिल्मों की विशेषता रही है, लेकिन वक्त के साथ इस खासियत पर जमने लगी हैं धूल की परतें मेरे पास मां है.. लगभग एक वर्ष पूर्व ऑस्कर अवॉर्ड के मंच पर हिंदी फिल्मों का यह लोकप्रिय संवाद अपने पारंपरिक अंदाज में गूंजा था। सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार ग्रहण करने के बाद ए.आर. रहमान ने कहा, ''भारत में एक लोकप्रिय संवाद है- 'मेरे पास मां है।' हिंदी फिल्मों के इस संवाद के साथ मैं अपनी मां को यह अवॉर्ड समर्पित करता हूं।'' जी हाँ, विश्व सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित मंच पर पुरस्कार ग्रहण करने के बाद अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए ए.आर. रहमान को अपने असंख्य गीतों की कोई पंक्ति नहीं, बल्कि दीवार फिल्म का लोकप्रिय संवाद ही सूझा। गुम हो रहे हैं संवाद इसके उलट विडंबना यह है कि अब कम शब्दों में प्रभावी ढंग से लिखे जाने वाले संवादों और उनकी अदायगी की विशिष्ट शैली को अस्वाभाविक माना जाने लगा है। नए रंग-ढंग के सिनेमा के पैरोकारों ने अपनी फिल्मों को स्वाभाविकता और वास्तविकता के रंग में घोलने

फिल्‍म समीक्षा : भिंडी बाजार

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बादशाहत के लिए लड़ते प्यादे -अजय ब्रह्मात्‍मज इस फिल्म के शीर्षक में आईएनसी यानी इन कारपोरेट शब्द जोड़ा गया है, लेकिन पूरी फिल्म शतरंज की चालों के बीच हिस्सों में चलती रहती है। शतरंज की बिसात पर बादशाहत के लिए प्यादों की लड़ाई चलती रहती है और फिल्म आगे बढ़ती रहती है। मुंबई के अंडरव‌र्ल्ड और उसके चलने-चलाने के तरीके पर राम गोपाल वर्मा ने कंपनी नाम की फिल्म बनाई थी। आगे वे डिपार्टमेंट बनाने जा रहे हैं। अंडरव‌र्ल्ड की कहानी हिंदी फिल्मकारों को आकर्षित करती रहती है, लेकिन ज्यादातर फिल्मों में कोई नई बात नजर नहीं आती। भिंडी बाजार भी उसी दोहराव का शिकार हुई है, जबकि कुछ नए दृश्य रचे गए हैं। भिंडी बाजार में हिंदू और मुस्लिम सरगनों के जरिए यह भी बता दिया है कि मुंबई में अंडरव‌र्ल्ड धर्म के आधार पर बंटा हुआ है। उनके विस्तार में लेखक-निर्देशक नहीं गए हैं, इसलिए पता नहीं चलता कि इसकी वजह क्या है और दोनों के इंटरेस्ट में कोई फर्क भ ी है क्या? निर्देशक का मुख्य फोकस मुस्लिम अंडरव‌र्ल्ड पर है। यहां चल रही मारकाट और नेतृत्व लेने की ललक में साजिश रचते किरदार सामान्य किस्म के हैं। कलाकारों की भिन्न

फिल्‍म समीक्षा : भेजा फ्राय 2

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पिछली से कमजोर -अजय ब्रह्मात्‍मज सिक्वल की महामारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में फैल चुकी है। भेजा फ्राय 2 उसी से ग्रस्त है। पिछली फिल्म की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश में नई फिल्म विफल रहती है। सीधी वजह है कि मुख्य किरदार भारत भूषण पिछली फिल्म की तरह सहयोगी किरदार को चिढ़ाने और खिझाने में कमजोर पड़ गए हैं। दोनों के बीच का निगेटिव समीकरण इतना स्ट्रांग नहीं है कि दर्शक हंसें। पिछली फिल्म में विनय पाठक को रजत कपूर और रणवीर शौरी का सहयोग मिला था। इस बार विनय पाठक के कंधों पर अकेली जिम्मेदारी आ गई है। उन्होंने अभिनेता के तौर पर हर तरह से उसे रोचक और जीवंत बनाने की कोशिश की है लेकिन उन्हें लेखक का सपोर्ट नहीं मिल पाया है। के के मेनन को भी लेखक ठीक से गढ़ नहीं पाए है। फिल्म भी कमरे से बाहर निकल गई है,इसलिए किरदारों को अधिक मेहनत करनी पड़ी है। बीच में बर्मन दा के फैन के रूप में जिस किरदार को जोड़ा गया है, वह चिप्पी बन कर रह गया है। फिल्म में और भी कमजोरियां हैं। क्रूज के सारे सीन जबरदस्ती रचे गए लगते हैं। संक्षेप में पिछली फिल्म जितनी नैचुरल लगी थी, यह उतनी ही बनावटी लगी है। इस

फिल्‍म समीक्षा : आलवेज कभी कभी

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फिर से जेनरेशन गैप -अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्म के शीर्षक का इस्तेमाल करूं तो मुझे आलवेज कभी कभी आश्चर्य होता है कि अनुभवी और कामयाब स्टारों से भी क्यों ऐसी भूलें होती हैं? शाहरूख खान हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सफलता के पर्याय हैं। मतलब यह कि वे जानते-समझते होंगे कि अच्छी फिल्मों में क्या-क्या नहीं होना चाहिए? उनके होम प्रोडक्शन की ताजा फिल्म आलवेज कभी कभी निराश करती है। हम लोगों ने अभी हाल ही में तो फालतू देखी थी। वहां भी शिक्षा व्यवस्था और युवकों एवं अभिभावकों के बीच पीढि़यों के अंतर से पैदा हुई गलतफहमियां थीं। 3 इडियट में तो इसे और अच्छे तरीके से चित्रित किया गया था। बहरहाल शाहरूख खान ने पुराने मित्र रोशन अब्बास के निर्देशक बनने की तमन्न ा पूरी कर दी और इस फिल्म में कुछ नए चेहरों को अपना टैलेंट दिखाने का मौका मिला। उम्मीद है उन्हें आगे भी फिल्में मिलेंगी। फिल्म की शुरूआत में किरदारों के बीच के रिश्ते को स्थापित करने और मूल बात तक आने में लेखक-निर्देशक ने लंबा समय लगा दिया है। इंटरवल के पहले कहानी का सिरा ही पकड़ में नहीं आता। बाद में दो स्तरों पर द्वंद्व उभरता है। बारहवीं के

मनोरंजन का व्यसन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पहले वांटेड फिर दबंग और अब रेडी.., इन तीन फिल्मों की कामयाबी ने सलमान खान को अजीब आत्मविश्वास से भर दिया है, जो हिंदी सिनेमा के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता। सुना है कि सलमान ने दक्षिण की छह हिट फिल्मों के अधिकार खरीद लिए हैं। वे बगैर जोखिम और शर्म के दक्षिण की हिट फिल्मों के रीमेक पर रीमेक बनाने के लिए तैयार हैं। उन्हें अपनी आलोचना और समीक्षकों की राय की परवाह नहीं है। वे बातचीत में किसी और के सवाल करने से पहले ही सवाल दाग देते हैं कि दर्शक फिल्में देख रहे हैं। वे हिट भी हो रही हैं तो फिर क्यों मैं कुछ और सोचूं या करूं? ट्रेंड सा बनता जा रहा है। हर स्टार इस पॉपुलैरिटी की चाहत में मसाला फिल्मों की तरफ बढ़ या झुक रहा है। मनोरंजन का यह व्यसन हिंदी फिल्मों को गर्त में ले जा रहा है। कोई समझने, मानने और सोचने को तैयार नहीं है कि इन फिल्मों की क्वालिटी खराब है। सिनेमाघरों से एक बार निकलने के बाद इन फिल्मों को शायद ही दर्शक मिल पाएं। भविष्य के दर्शकों की चिंता कौन करे? अभी तो सारा जोर इमिडिएट कमाई पर है। रिलीज होने के तीन दिनों के अंदर फिल्म ने कितना व्यवसाय किया? सोमवार के बाद