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फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर-वैरायटी-मैग्‍गी ली

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Gangs of Wasseypur (India) By Maggie Lee A Viacom 18 Motion Pictures release of a Tipping Point Films presentation of an AKFPL production in association with Jar Films. (International sales: Elle Driver, Paris.) Produced by Guneet Monga, Sunil Bohra, Anurag Kashyap. Directed by Anurag Kashyap. Screenplay, Zeishan Quadri, Akhilesh, Sachin Ladia, Kashyap, based on the story by Quadri. With: Manoj Bajpayee, Jaideep Ahlawat, Tigmanshu Dhulia, Nawazuddin Siddiqui, Vineet Singh, Richa Chaddha, Reema Sen, Anurita Jha, Huma Qureshi, Rajat Bhagat, Vipin Sharma. (Hindi, Bhojpuri, Bihari dialogue) The love child of Bollywood and Hollywood, "Gangs of Wasseypur" is a brilliant collage of genres, by turns pulverizing and poetic in its depiction of violence. A saga of three generations of mobsters cursed and driven by a blood feud, it's epic in every sense, not least due to its five-hour-plus duration. Helmer Anurag Kashyap puts auds on disturbin

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई-गौरव सोलंकी

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यह रिव्‍यू गौरव सोलंकी के ब्‍लॉग रोटी कपड़ा और मकान से चवन्‍नी के पाठकों के लिए... शंघाई' हमारी राष्ट्रीय फ़िल्म है  एक लड़का है , जिसके सिर पर एक बड़े नेता देश जी का हाथ है। शहर के शंघाई बनने की मुहिम ने उसे यह सपना दिखाया है कि प्रगति या ऐसे ही किसी नाम वाली पिज़्ज़ा की एक दुकान खुलेगी और ‘ समृद्धि इंगलिश क्लासेज ’ से वह अंग्रेजी सीख लेगा तो उसे उसमें नौकरी मिल जाएगी। अब इसके अलावा उसे कुछ नहीं दिखाई देता। जबकि उसकी ज़मीन पर उसी की हड्डियों के चूने से ऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं, वह देश जी के अहसान तले दब जाता है। यह वैसा ही है जैसी कहानी हमें ‘ शंघाई ’ के एक नायक (नायक कई हैं) डॉ. अहमदी सुनाते हैं। और यहीं से और इसीलिए एक विदेशी उपन्यास पर आधारित होने के बावज़ूद शंघाई आज से हमारी ‘ राष्ट्रीय फ़िल्म ’ होनी चाहिए क्योंकि वह कहानी और शंघाई की कहानी हमारी ‘ राष्ट्रीय कथा ’ है। और उर्मि जुवेकर और दिबाकर इसे इस ढंग से एडेप्ट करते हैं कि यह एडेप्टेशन के किसी कोर्स के शुरुआती पाठों में शामिल हो सकती है। लेकिन कपड़े झाड़कर खड़े मत होइए, दूसरी राष्ट्रीय चीजों की तरह

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई -रवीश कुमार

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  रवीश कुमार की यह समीक्षा उनके ब्‍लॉग कस्‍बा से चवन्‍नी के पाठकों के लिए...  प्रगति का कॉलर ट्यून है शांघाई शांघाई। जय प्रगति,जय प्रगति,जय प्रगति। राजनीति में विकास के नारे को कालर ट्यून की तरह ऐसे बजा दिया है दिबाकर ने कि जितनी बार जय प्रगति की आवाज़ सुनाई देती यही लगता है कि कोई रट रहा है ऊं जय शिवाय ऊं जय शिवाय । अचानक बज उठी फोन की घंटी के बाद जय प्रगति से नमस्कार और जय प्रगति से तिरस्कार। निर्देशक दिबाकर स्थापित कर देते हैं कि दरअसल विकास और प्रगति कुछ और नहीं बल्कि साज़िश के नए नाम हैं। फिल्म का आखिरी शाट उन लोगों को चुभेगा जो व्यवस्था बदलने निकले हैं लेकिन उन्हीं से ईमानदारी का इम्तहान लिया जाता है। आखिरी शाट में प्रसनजीत का चेहरा ऐसे लौटता है जैसे आपको बुला रहा हो। कह रहा हो कि सिस्टम को बदलना है तो मरना पड़ेगा। लड़ने से कुछ नहीं होगा। उससे ठीक पहले के आखिरी शाट में इमरान हाशमी को अश्लील फिल्में बनाने के आरोप में जेल भेज दिया जाता है। कल्की अहमदी पर किताब लिखती है जो भारत में बैन हो जाती है। अहमदी की मौत के बाद उसकी पत्नी चुनावी मैदान में उतर आती है। अहमदी

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई-वरूण ग्रोवर

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वरूण ग्रोवर ने शांघाई की यह पर लिखी है। उनसे पूछे बगैर मैंने उसे चवन्‍नी के पाठकों के लिए यहां पोस्‍ट किया है। moifightclub.wordpress.com/2012/06/11/%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%AD%E0%A5%80-%E0%A4%A6%E0%A5%8B-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%98%E0%A4%BE%E0%A4%88/ आनंद लें। नोट: इस लेख में कदम-कदम पर spoilers हैं. बेहतर यही होगा कि फिल्म देख के पढ़ें. (हाँ, फिल्म देखने लायक है.) आगे आपकी श्रद्धा. मुझे नहीं पता मैं लेफ्टिस्ट हूँ या राइटिस्ट. मेरे दो बहुत करीबी, दुनिया में सबसे करीबी, दोस्त हैं. एक लेफ्टिस्ट है एक राइटिस्ट. (वैसे दोनों को ही शायद यह categorization ख़ासा पसंद नहीं.) जब मैं लेफ्टिस्ट के साथ होता हूँ तो undercover-rightist होता हूँ. जब राइटिस्ट के साथ होता हूँ तो undercover-leftist. दोनों के हर तर्क को, दुनिया देखने के तरीके को, उनकी political understanding को, अपने अंदर लगे इस cynic-spray से झाड़ता रहता हूँ. दोनों की समाज और राजनीति की समझ बहुत पैनी है, बहुत नयी भी. अपने अपने क्षेत्र में दोनों शायद सबसे revolutionary, सबसे संजीदा विचार ले

सत्‍यमेव जयते-6 : जीडीपी बढ़ाने की सरल राह-आमिर खान

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अमेरिका में 12 प्रतिशत आबादी अशक्त-विकलांग के रूप में गिनी जाती है। इंग्लैंड में यह प्रतिशत 18 है तो जर्मनी में 9 प्रतिशत लोग विकलांग की श्रेणी में आते हैं। भारत में सरकारी आंकड़ों के अनुसार दो प्रतिशत लोग विकलांग की श्रेणी में आते हैं। विकलांग लोगों के लिए रोजगार के अवसरों को प्रोत्साहन देने वाले केंद्र एनसीपीईडीपी के जावेद अबीदी इन आंकड़ों के संदर्भ में एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं। भारतीय वातावरण अथवा माहौल में ऐसी क्या खास बात है कि हमारे यहां दुनिया के अन्य देशों की तुलना में केवल 1/10 अथवा 1/5 अशक्त लोग ही हैं। क्या इस मामले में अपने देश में हुई गिनती में कोई खामी हुई है? यह चौंकाने वाली बात है कि 2000 तक यानी आजादी के 53 साल बाद भी भारत की जनगणना रिपोर्ट में एक भी अशक्त व्यक्ति नहीं गिना गया। दूसरे शब्दों में कहें तो जो लोग अपने देश में नीतियों का निर्धारण करते हैं, फैसले लेते हैं, सरकारी योजनाओं के लिए धन का आवंटन करते हैं उनके दिमाग में विकलांगों का अस्तित्व ही नहीं है। साफ है कि हम उनके लिए कुछ नहीं करते हैं। लिहाजा आजादी के बाद पहले 53 वर्षो तक हम

उतरा क्रिकेट का खौफ

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-अजय ब्रह्मात्‍मज 2 अप्रैल से सत्ताईस मई तक चले आईपीएल क्रिकेट मैचों के दौरान इस साल ज्यादातर फिल्मों ने अपनी रिलीज की तारीखों में हेरफेर नहीं की। पिछले साल के अनुभव से फिल्म निर्माताओं वितरकों और प्रदर्शकों का विश्वास बना रहा। दो साल पहले जो घबराहट फैली थी, वह धीरे-धीरे छंट गई है। फिल्म बिजनेस और कलेक्शन के लिहाज से आईपीएल के क्रिकेट मैचों के दौरान भी फिल्में रिलीज हो सकती हैं। इस साल कुछ फिल्मों की कामयाबी ने यह भी साबित कर दिया कि फिल्मों का अलग मार्केट है। दर्शकों की रुचि बनी रहती है। उन्हें आईपीएल जैसे मैंचों से अधिक फर्क नहीं पड़ता। इस साल आईपीएल मैचों के दौरान पांच फिल्में कामयाब रहीं। इन कामयाब फिल्मों में से एक हाउसफुल-2 ने तो 100 करोड़ से ज्यादा का कलेक्शन किया। इस फिल्म की चर्चा पहले से थी। माना जा रहा था कि साजिद नाडियाडवाला और साजिद खान की जोड़ी पिछली कामयाबी को दोहराएगी। वैसे कुछ ट्रेड पंडित अक्षय कुमार और आईपीएल की वजह से सशंकित रहे। फिल्म रिलीज हुई तो सारी शंकाए खत्म हो गई। आईपीएल सभी के लिए लकी रहा। फिल्म इंडस्ट्री में जिस तरह से सारे स्टार अपनी फि

दो तस्‍वीरें : कट्रीना कैफ

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सलमान खान और शाहरुख खान...दोनों के साथ अलग-अलग फिल्‍मों में आ रही कट्रीना कैफ की चर्चा है। कयास लगाए जा रहे हैं कि दोनों में किस के साथ कट्रीना की फिल्‍म बड़ी हिट होगी। आप क्‍या सोचते हैं, बताएं !!!

चाहता हूं दर्शक खुद को टटोलें ‘मैक्सिमम’ देखने के बाद -कबीर कौशिक

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज   हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के शोरगुल और ग्लैमर में भी कबीर कौशिक ने अपना एकांत खोज लिया है। एडवल्र्ड से आए कबीर अपनी सोच-समझ से खास परिपे्रक्ष्य की फिल्में निर्देशित करते रहते हैं। किसी भी बहाव या झोंके में आए बगैर वे वर्तमान में तल्लीन और समकालीन बने रहते हैं। ‘सहर’ से उन्होंने शुरुआत की। बीच में ‘चमकू’ आई। निर्माता से हुए मतभेद के कारण उन्होंने उसे अंतिम रूप नहीं दिया था। अभी उनकी ‘मैक्सिमम’ आ रही है। यह भी एक पुलिसिया कहानी है। पृष्ठभूमि सुपरिचित और देखी-सुनी है। इस बार कबीर कौशिक ने मुंबई पुलिस को देखने-समझने के साथ रोचक तरीके से पेश किया है।    कबीर फिल्मी ताम झाम से दूर रहते हैं। उनमें एक आकर्षक अकड़ है। अगर वेबलेंग्थ न मिले तो वे जिद्दी, एकाकी और दृढ़ मान्यताओं के निर्देशक लग सकते हैं। कुछ लोग उनकी इस आदत से भी चिढ़ते हैं कि वे फिल्म निर्देशक होने के बावजूद सूट पहन कर आफिस में बैठते हैं। यह उनकी स्टायल है। उन्हें इसमें सहूलियत महसूस होती है। बहरहाल, वीरा देसाई स्थित उनके दफ्तर में ‘मैक्सिमम’ और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री पर ढेर सारी बातें हुई पेश हैं कुछ प्

जब बोकारो में ग़दर देखने के लिए मची थी ग़दर -अनुप्रिया वर्मा

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  अनुप्रिया वर्मा का यह संस्‍मरण उनके ब्‍नॉग अनुक्ष्‍शन से उठा लिया गया है। उनका पचिय है ' परफेक्टनेस का अब तक "पी" भी नहीं आया, पर फिर भी ताउम्र पत्रकारिता की "पी" के साथ ही जीना चाहती हूं। अखबारों में लगातार घटते स्पेस और शब्दों व भावनाओं के बढ़ते स्पेस के कारण दिल में न जाने कहां से स्पार्क आया.और अनुख्यान के रूप में अंतत: मैंने भी ब्लॉग का बल्ब जलाया.उनसे priyaanant62@gmail.com  पर संपर्क कर सकते हैं। बोकारो के लिए ग़दर ही थी १०० करोड़ क्लब की फिल्म  बोकारो का महा ब्लॉक बस्टर ग़दर .... वर्ष २००१ में रिलीज हुई थी फिल्म ग़दर.बोकारो में एक तरफ देवी सिनेमा हॉल में लगान लगी थी. दूसरी तरफ जीतेन्द्र में ग़दर. मैं, माँ- पापा. सिन्हा आंटी, चाची. सभी साथ में गए थे. मैं शुरुआती दौर से ही इस लिहाज से लकी रही हूँ कि मेरे ममी पापा दोनों ही सिनेमा थेयेटर में फिल्म देखने और हमें दिखाने के शौक़ीन थे. सो, हम सारी नयी फिल्में हॉल में ही देखते थे. कई बार तो हमने फर्स्ट डे फर्स्ट शो में भी फिल्में देखी हैं. लेकिन ज्यादातर वीकेंड जो बोकारो के लिए इतवार यान

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई

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  जघन्य राजनीति का खुलासा -अजय ब्रह्मात्‍मज शांघाई दिबाकर बनर्जी की चौथी फिल्म है। खोसला का घोसला, ओय लकी लकी ओय और लव सेक्स धोखा के बाद अपनी चौथी फिल्म शांघाई में दिबाकर बनर्जी ने अपना वितान बड़ा कर दिया है। यह अभी तक की उनकी सबसे ज्यादा मुखर, सामाजिक और राजनैतिक फिल्म है। 21वीं सदी में आई युवा निर्देशकों की नई पीढ़ी में दिबाकर बनर्जी अपनी राजनीतिक सोच और सामाजिक प्रखरता की वजह से विशिष्ट फिल्मकार हैं। शांघाई में उन्होंने यह भी सिद्ध किया है कि मौजूद टैलेंट, रिसोर्सेज और प्रचलित ढांचे में रहते हुए भी उत्तेजक संवेदना की पक्षधरता से परिपूर्ण वैचारिक फिल्म बनाई जा सकती हैं। शांघाई अत्यंत सरल और सहज तरीके से राजनीति की पेंचीदगी को खोल देती है। सत्ताधारी और सत्ता के इच्छुक महत्वाकांक्षी व्यक्तियों की राजनीतिक लिप्सा में सामान्य नागरिकों और विरोधियों को कुचलना सामान्य बात है। इस घिनौनी साजिश में नौकशाही और पुलिस महकमा भी चाहे-अनचाहे शामिल हो जाता है। दिबाकर बनर्जी और उर्मी जुवेकर ने ग्रीक के उपन्यासकार वसिलिस वसिलिलोस के उपन्यास जी का वर्तमान भारतीय संदर्भ में रूपांत