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निर्देशक की सामन्ती कुर्सी और लेखक का समाजवादी लैपटॉप (part 2) - दीपांकर गिरि

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(continued from previous post) दीपांकर गिरि लोग “बायसिकल थीव्स ” की बात करते हैं ..”मालेगांव के  सुपरमैन” की बात करते हैं और फिल्मो के जुनून में पगलाए रहते हैं ….सिनेमा को बदलने की बातें करते हैं पर ब्लू फिल्म की बातें कोई नहीं करता ….अभी 10 साल तक जो भी फिल्म शुरू होता था उससे पहले किसी देवी देवता की पूजा करते हुए दिखाई देते थे और सिनेमा के  परदे संस्कार बांटा करते थे  ……ज़ाहिर हैं ब्लू  फिल्में संस्कार नहीं फैलाती  तो सिनेमाई  पैशन से ही कौन सा समाज बदल रहा है .?..कौन सा नया आर्ट डिस्कवर हो रहा है  …न “दो बीघा ज़मीन” बदल सका छोटे  किसानो की हालत न “पीपली लाइव” ….फिर सिनेमा बनाने का purpose   क्या है  ? इससे अच्छा तो पंकज उधास का गाया  “चिट्ठी  आई है ” गाना था जिसे सुनने के बाद विदेशों में बसे कई हिंदुस्तानी डॉक्टर्स अपनी मिटटी……. अपने वतन लौट आये थे …. फिर सिनेमा का ये स्वांग क्यों ?…क्या इतनी बेहतरीन फिल्मो के बावजूद ईरान  में रह रही औरतों के सामाजिक अस्तित्व में कोई सुधार आया है … और ये बहस बहुत पुरानी हो चुकी है की हम कुछ बदलने के लिए सिनेमा नहीं बना रहे ….हम सिर्फ दर्श

फिल्‍म समीक्षा : काय पो छे

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-अजय ब्रह्मात्मज गुजराती भाषा का 'काय पो छे' एक्सप्रेशन हिंदी इलाकों में प्रचलित 'वो काटा' का मानी रखता है। पतंगबाजी में दूसरे की पतंग काटने पर जोश में निकला यह एक्सप्रेशन जीत की खुशी जाहिर करता है। 'काय पो चे' तीन दोस्तों की कहानी है। तीनों की दोस्ती का यह आलम है कि वे सोई तकदीरों को जगाने और अंबर को झुकाने का जोश रखते हैं। उनकी दोस्ती के जज्बे को स्वानंद किरकिरे के शब्दों ने मुखर कर दिया है। रूठे ख्वाबों को मना लेने का उनका आत्मविश्वास फिल्म के दृश्यों में बार-बार झलकता है। हारी सी बाजी को भी वे अपनी हिम्मत से पलट देते हैं। तीन दोस्तों की कहानी हिंदी फिल्मों में खूब पसंद की जा रही है। सभी इसका क्रेडिट फरहान अख्तर की फिल्म 'दिल चाहता है' को देते हैं। थोड़ा पीछे चलें तो 1981 की 'चश्मेबद्दूर' में भी तीन दोस्त मिलते हैं। सिद्धार्थ, ओमी और जय। 'काय पो चे' में भी एक ओमी है। हिंदी फिल्मों में रेफरेंस पाइंट खोजने निकलें तो आज की हर फिल्म के सूत्र किसी पुरानी फिल्म में मिल जाएंगे। बहरहाल, 'काय पो छे' चेतन भगत के बेस्ट स

फिल्‍म समीक्षा : जिला गाजियाबाद

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-अजय ब्रह्मात्मज इसी हफ्ते रिलीज हुई 'काय पो चे' से ठीक उलट है 'जिला गाजियाबाद'। सब कुछ बासी, इतना बासी की अब न तो उसमें स्वाद रहा और न उबाल आता है। हाल-फिलहाल में हिट हुई सभी मसाला फिल्मों के मसाले लेकर बनाई गई एक बेस्वाद फिल्म ़ ़ ़ कोई टेस्ट नहीं, कोई एस्थेटिक नहीं। बस धूम-धड़ाका और गोलियों की बौछार। बीच-बीच में गालियां भी। निर्माता विनोद बच्चन और निर्देशक आनंद कुमार ने मानो तय कर लिया था कि अधपकी कहानी की इस फिल्म में वे हाल-फिलहाल में पॉपुलर हुई फिल्मों के सारे मसाले डाल देंगे। दर्शकों को कुछ तो भा जाए। एक्शन, आयटम नंबर, गाली-गलौज, बेड सीन, गोलीबारी, एक्शन दृश्यों में हवा में ठहरते और कुलांचे मारते लोग, मोटरसायकिल की छलांग, एक बुजुर्ग एक्टर का एक्शन, कॉलर डांस ़ ़ ़ 'जिला गाजियाबाद' में निर्माता-निर्देशक ने कुछ भी नहीं छोड़ा है। हालांकि उनके पास तीन उम्दा एक्टर थे - विवेक ओबेराय, अरशद वारसी और रवि किशन, लेकिन तीनों के किरदार को उन्होंने एक्शन में ऐसा लपेटा है कि उनके टैलेंट का कचूमर निकल गया है। तीनों ही कलाकार कुछ दृश्यों में शानदार

निर्देशक की सामन्ती कुर्सी और लेखक का समाजवादी लैपटॉप - दीपांकर गिरि

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दीप ां कर गिरि अपने परिचय में लिखते ह ैं .... जब सबकुछ सफेद था तो रंग ढूढने निकल पडे। जब रंग मिले तो वापस ब्लैक एंड व्हाइट की तलाश में निकले।बस यूं ही किसी न किसी बहाने चलतो रहे।कहीं कोई मजमा दिखा तो खडे होकर देखने लगे। मजमेबाज़, तमाशेबाज़,जादूगर, बहुरूपिये    चलो ढूंढें अपने आसपास इन्हें .. दीपांकर गिरि  बचपन में जब फुटबॉल  खेलते थे तो 15 -20 लड़कों के  बीच से उछलते फुटबाल को देखकर बस  एक ही इच्छा रहती थी कि किसी तरह एक बार फुटबाल मेरे पास  भी आ जाए। उतनी भीड़ में बाल कभी कभार  ही अपने पास आता  था लेकिन उस एक पल में फुटबॉल  को किक करने का जो रोमांच था वो  उस लड़की को देखने में भी नहीं था  जिस पर हमारा आवारा दिल आया हुआ था कई सालों बाद कई फिल्मों की  खुजली के बाद अपनी पहली फिल्म का पहला शॉट लेते हुए कुछ वैसा ही महसूस हुआ …वो एक टॉप शॉट था जहाँ से एक शहर भागता दौड़ता अपनी पूरी रवानी में दीखता था ….”कैमरा” और “एक्शन” बोलते हुए एक लडखडाहट थी और एक पल के लिए कुछ समझ नहीं आया की मैंने क्या शूट किया ….समझ में नहीं आता था की जिस भीडभाड को मैं रोज़ देखता हू

फिल्मों पर पाबंदी

-अजय ब्रह्मात्मज     अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदियां बढ़ती जा रही हैं। फिल्मों के मामले में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) का प्रमाण मिलने के बाद चंद फिल्मों पर पाबंदी लगाने की मांग को लेकर बहसें चलती रहती हैं। आए दिन व्यक्ति, समूह, संगठन, राजनीतिक पार्टियां और दूसरे स्वार्थी समुदाय विभिन्न कारणों से फिल्मों की रिलीज को बाधित करते हैं। कमल हासन की ‘विश्वरूप’ की रिलीज को चल रहे विवाद के समय पाबंदी का मामला राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया था। इस बार सेंसर बोर्ड औचित्य पर सवाल नहीं किए जा रहे थे। आम धारणा है कि भारत में सेंसर बोर्ड प्रासंगिक नहीं रह गया है। मौजूदा स्वरूप में वह अपनी जिम्मेदारी ढंग से नहीं निभा पा रहा है। निश्चिित ही सेंसर बोर्ड के नियमों-अधिनियमों में परिवर्तन की जरूरत है।     दरअसल, सेंसर बोर्ड के सदस्य हर फिल्म की रिलीज के पहले उसे देखते हैं। अधिनियम के अनुसार वे दृश्यों, संवादों या पूरी फिल्म पर पाबंदी लगाने की हिदायत देते हैं। सेंसर बोर्ड के नियम 3 ़ 3 के मुताबिक , ‘तीन साल पहले उच्च न्यायालय ने यह आदेश दिया कि फिल्मों का सेंसरशिप इसलिए जरूरी है कि एक फि

बढ़ रही है सतही समझ

बढ़ रही है सतही समझ -अजय ब्रह्मात्मजं     निश्चित ही सार्वजनिक हस्तियों की बड़ी जिम्मेदारियां होती हैं। किसी भी क्षेत्र में सफलता और लोकप्रियता हासिल कर चुकी हस्तियां रोजाना ऐसी जिज्ञासाओं से दो-चार होती हैं। विभिन्न किस्म के सामाजिक, राजनीतिक और व्यवहारिक मुद्दों पर उनसे सवाल पूछे जाते हैं। अपेक्षा रहती है कि वे हर सवाल का सटीक और प्रेरक जवाब देंगे। देश के सामाजिक जीवन में उनके हस्तक्षेप के लिए हम तैयार रहते हैं और उनकी हर पहल का स्वागत करते हैं। इस संदर्भ में हम एक मूल बात भूल जाते हैं कि फिल्म का पॉपुलर अभिनेता या सफल निर्देशक होना बिल्कुल अलग बात है और सामाजिक मुद्दों की समझ रखना बिल्कुल दूसरी बात है। मेरा निजी अनुभव है कि बेहतर अभिनेता निजी जिंदगी में हमेशा उतने ही बेहतर इंसान नहीं होते। उनमें अनेक प्रकार की खामियां और विसंगतियां रहती हैं। कई बार उनके विचार और व्यवहार में बड़ा फर्क नजर आता है।     आजादी के बाद से हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन में मूल्यों का हास हुआ है। सारे मानक और स्तर लगातार नीचे खिसक रहे हैं। साधारण को श्रेष्ठ मानने और कहने का फैशन चल गया है। अभी औसत ही विशिष

चवन्नी भर तो ईमानदारी बची रहे-संजय चौहान

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-अजय ब्रह्मात्मज     संजय चौहान भोपाल से दिल्ली होते हुए मुंबई आए। दिल्ली में जेएनयू की पढ़ाई के दिनों में उनका संपर्क जन नाट्य मंच से हुआ। कैंपस थिएटर के नाम से उन्होंने जेएनयू में थिएटर गतिविधियां आरंभ कीं। पढ़ाई पूरी करने के बाद आजीविका के लिए कुछ दिनों अध्यापन भी किया। मन नहीं लगा तो पत्रकारिता में लौट आए। लंबे समय तक पत्रकारिता करने के बाद टीवी लेखन से जुड़े। और फिर बेहतर मौके की उम्मीद में मुंबई आ गए। सफर इतना आसान नहीं रहा। छोटी-मोटी शुरुआत हुई। एक समय आया कि फिल्मों और टीवी के लिए हर तरह का लेखन किया। कुछ समय के बाद तंग आकर उन्होंने अपनी ही पसंद और प्राथमिकताओं को तिलांजलि दे दी। सोच-समझ कर ढंग का लेखन करने के क्रम में पहले ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ आई। उसके बाद ‘आई एम कलाम’ से एक पहचान मिली। पिछले साल ‘साहब बीवी और गैंगस्टर’ एवं ‘पान सिंह तोमर’ से ख्याति मिली। इन फिल्मों के लिए उन्हें विभिन्न पुरस्कार भी मिले। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में प्रतिष्ठा बढ़ी। - कुछ सालों पहले आप ने फैसला किया था कि अब गिनी-चुनी मन की फिल्में ही करेंगे। आखिरकार उस फैसले ने आप को पहचान और प्रतिष्ठा

फिल्‍म समीक्षा : जयंता भाई की लव स्‍टोरी

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प्यार में भाईगिरी -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्मों में गैंगस्टर और आम लड़की की प्रेम कहानी हम देखते रहे हैं। ऐसी फिल्मों में ज्यादातर लव स्टोरी का एंगल भर होता है, क्योंकि फिल्म का मुख्य उद्देश्य गैंगस्टर के आपराधिक जीवन के रोमांच पर रहता है। निर्देशक विनिल मार्कन नए रोमांच के साथ रोमांस के भी पर्याप्त दृश्य गढ़े हैं। मुंबई के उपनगर रिहाइशी इलाके में संयोग से आमने-सामने पड़ोसी की तरह रह रहे जयंता और सिमरन की लव स्टोरी अवश्रि्वसनीय होने के बावजूद रोचक लगती है। विवेक ओबेराय निस्संदेह योग्य और समर्थ अभिनेता हैं। निगेटिव इमेज की वजह से उनका काफी नुकसान हो चुका है। दर्शकों के बीच सी एक हिचक बनी हुई है। 'जयंताभाई की लव स्टोरी' देखते हुए विवेक ओबेराय की प्रतिभा की झलक मिलती है। रफ एवं रोमांटिक दोनों किस्म की भूमिकाओं में वे जंचते हैं। 'जयंताभाई की लव स्टोरी' में हम उन्हें स्पष्ट रूप से दो भूमिकाओं में देखते हैं। उन्होंने दोनों का ही सुंदर निर्वाह किया है। अगर सिमरन की भूमिका में कोई बेहतर अभिनेत्री रहती तो फिल्म अधिक प्रभावित करती। लेखक ने सिमरन के चरित्र

7 तस्‍वीरें सत्‍याग्रह की

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प्रकाश झा की फिल्‍म सत्‍याग्रह की भोपाल में शूटिंग आरंभ हो गई है। यह फिल्‍म अगस्‍त में रिलीज होगी। सत्‍याग्रह में अमिताभ बच्‍चन के साथ अजय देवगन,मनोज बाजपेयी,अर्जुन रामपाल और करीना कपूर हैं। राजनति के बैकड्राप पर एक और हाई ड्रामा प्रकाश झा की स्‍टाइल में...

फिल्‍म समीक्षा : मर्डर 3

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लव की मिस्ट्री -अजय ब्रह्मात्मज फिल्मकार इन दिनों लोभ और दबाव में हर फिल्म का ओपन एंड रख रहे हैं। अभी तक हिंदी फिल्में एक इंटरवल के साथ बनती थीं। अब पर्दे पर फिल्म समाप्त होने के बाद भी एक इंटरवल होने लगा है। यह इंटरवल महीनों और सालों का होता है, जबकि फिल्म का इंटरवल चंद मिनटों में खत्म हो जाता है। तात्पर्य यह कि सीक्वल की संभावना में लेखक-निर्देशक फिल्मों को 'द एंड' तक नहीं पहुंचा रहे हैं। विशेष भट्ट की 'मर्डर 3' भी इसी लोभ का शिकार है। पूरी हो जाने के बाद भी फिल्म अधूरी रहती है। लगता है कि क्लाइमेक्स अभी बाकी है। भट्ट परिवार के वारिस विशेष भट्ट ने फिल्म निर्माण के अनुभवों के बाद निर्देशन की जिम्मेदारी ली है। भट्ट कैंप में फिल्मों के 'असेंबल लाइन' प्रोडक्शन में डायरेक्टर के लिए अधिक गुंजाइश नहीं रहती है। महेश भट्ट की छत्रछाया और स्पर्श से हर फिल्म परिचित सांचे में ढल जाती है। दावा था कि विशेष भट्ट ने भट्ट कैंप की शैली में परिष्कार किया है। दृश्य संरचना में ऊपरी नवीनता दिखती है, लेकिन दृश्यों का आंतरिक भावात्मक तनाव पुराने सूत्रों पर ही चलता