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प्‍यार का कोई धर्म नहीं होता - संजय लीला भंसाली

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-अजय ब्रह्मात्‍मज   ‘ बाजीराव मस्‍तानी ’ की रिलीज के बाद 16 घंटों की नींद के बाद जागे निर्देशक संजय लीला भंसाली को मित्रों ने बताया कि उनकी फिल्‍म को जबरदस्‍त सराहना मिल रही है। फिर भी पहले दिन का कलेक्‍शन उन्‍हें उदास कर गया। दूसरे दिन दर्शकों के रुझान का पता चला। भंसाली भी उत्‍साहित हुए। फिल्‍म की रिलीज के पहले व्‍यस्‍तता की वजह से बात न कर पाने की उन्‍होंने अब भरपाई की। हमारे लिए भी अच्‍छा मौका था कि यह बातचीत फिल्‍म देखने की बाद हुई। इस बातचीत में संजय लीला भंसाली ने अपना पक्ष रखा... -बाजीराव पेशवा पर फिल्म बनाने की क्यों सोची आप ने ? 0 बाजीराव ने चालीस लड़ाइयां जीती थी। इसके बावजूद उन्हें अपने परिवार के सामने हथियार डालने पड़े थे। इस विचार ने मुझे मोहित कर लिया। अपने प्यार और परिवार के संतुलन में उन्‍होंने कुर्बानियां दीं। उन्‍होंने भी संघर्षपूर्ण जिंदगी जी। हिंदुस्तान में या कहीं भी कोई व्‍यक्ति जब नई सोच लेकर आता है तो उसे रोकने की कोशिश की जाती है। हम लोग अच्छी चीजों को अपनाते ही नहीं हैं। यह उस वक्त भी होता था। यह आज भी हो रहा है। मैं मराठी कल्‍चर से जु

दरअसल : छोटी फिल्‍मों की मुश्किलें

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     2015 बीतने को है। इस साल रिलीज फिल्‍मों की संख्‍या पिछले सालों से कम रही। 110 से भी कम फिल्‍में रिलीज हुईं। हिंदी फिल्‍मों के लिए यह चिंताजनक स्थिति है। संख्‍या कम होना इस बात का द्योतक है कि हिंदी फिल्‍मों के निर्माण में स्‍थापित और नए निर्माताओं की रुचि घटी है। दरअसल,फिल्‍म निर्माण,प्रचार और उसके प्रदर्शन-वितरण की जटिलताओं के बढ़ने से इंडस्‍ट्री में पहले की तरह स्‍वतंत्र निर्माता नहीं आ रहे हैं। स्‍थापित और अनुभवी निर्माता सचेत हो गए हैं। पूरी नाप-तौल के बाद ही वे फिल्‍मों में निवेश कर रहे हैं। फिल्‍म निर्माण के साथ उसके प्रचार पर हो रहे बेतहाशा अनियोजित खर्च ने सभी को परेशान कर रखा है। वितरण में पारदर्शिता नहीं है। सभी फिल्‍मों को प्रदर्शन के समान अवसर नहीं मिलते।     पिछले हफ्ते रिलीज हुई ‘ बाजीराव मस्‍तानी ’ और ‘ दिलवाले ’ के पी एंड ए ( प्रमोशन और ऐड ) पर नजर डालें और उनके बरक्‍स बाकी छोटी फिल्‍मों को रखें तो स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि मझोली और छोटी फिल्‍मों की दिक्‍कतें कितनी बढ़ गई हैं। दोनों फिलमें मंहगी थीं। संजय लीला भंसाली आनी क्रिएटिव व्‍य

हिज़्र का रंग औऱ बाजीराव मस्तानी... - विमलेश शर्मा

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अजमेर की विमलेश शर्मा ने 'बाजराव मस्‍तानी' के बारे में लिखा है। पकरख्‍य मिलते ही उनके बारे में विस्‍तार से बजाऊंगा।                मराठा योद्धा बाजीराव औऱ दीवानी मस्तानी के किरदार को जिस भव्यता औऱ सहजता के मिश्रण के साथ संजय लीला भंसाली ने उतारा है शायद ही कोई औऱ उतार पाता। मराठी उपन्यास राव पर आधारित यह फिळ्म इतिहास में कल्पना को कुछ यूँ परोसती है जैसे कि दिसम्बर के महीने की ठंड घुली धूप । पेशवा के सामने गुहार से शुरू हुआ बाजीराव मस्तानी का प्रथम साक्षात्कार अंत तक उसी उष्णता के साथ फिल्म में   बना रहता है।     प्रेम इस फिल्म की आत्मा है औऱ यह अंत तक हर मन को बाँधे रखता है। बाजीराव वाकई एक बहादुर   योद्धा है, एक   पति हैं, एक समर्पित प्रेमी   है औऱ एक जिम्मेदार पति भी । इन सबके बावजूद यहाँ जो रूप सर्वथा मुखर है वह है एक प्रेमी। जो योद्धा होकर भी , बाहर से सख्त होकर भी ओस की बूँदों को थामना जानता है। हवाओं के रूख को पहचानता है और प्रेम को धर्म , समाज औऱ तमाम मान्यताओं से आगे जाकर देखता है। इतिहास में   हिन्दु पद पादशाही की स्थापना करने वाला यह योद्धा पूरे प्राण प्रण

फिल्‍म समीक्षा : दिलवाले

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कार और किरदार -अजय ब्रह्मात्‍मज         रोहित शेट्टी की ‘ दिलवाले ’ और आदित्‍य चोपड़ा की ‘ दिवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे ’ में दिलवाले के अलावा एक संवाद की समानता है-बड़े-बड़ शहरों में एसी छोटी-छोटी बाते होती रहती है सैनोरीटा। इसे बोलते हुए शाह रुख खान दर्शकों को हंसी के साथ वह हसीन सिनेमाई याद भी देते हें,जो शाह रुख खान और काजोल की जोड़ी के साथ जुड़ी हुई है। ऐसा कहा और लिखा जाता है कि पिछले 20 सालों में ऐसी हॉट जोड़ी हिंदी फिल्‍मों में नहीं आई। निश्चित ही इस फिल्‍म के खयाल में भी यह जोड़ी रही होगी। ज्‍यादातर एक्‍शन और कॉमेडी से लबरेज फिल्‍में बनाने में माहिर रोहित शेट्टी ने इसी जोड़ी की उपयोगिता के लिए फिल्‍म में उनके रोमांटिक सीन और गाने रखे हैं। तकनीकी प्रभावो से वे शाह रुख और काजोल को जवान भी दिखाते हैं। हमें अच्‍छा लगता है। हिंदी स्‍क्रीन के दो प्रमियों को फिर से प्रेम करते,गाने गाते और नफरत करते देखने का आनंद अलग होता है।     रोहित शेट्टी की फिल्‍मों में कार भी किरदार के तौर पर आती हैं। कारें उछलती हैं,नाचती हैं,टकराती हैं,उड़ती है,कलाबाजियां खाती हैं,और

फिल्‍म समीक्षा : बाजीराव मस्‍तानी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज कल्‍पना और साक्ष्‍य का भव्‍य संयोग       यह कहानी उस समय की है,जब मराठा साम्राज्‍य का ध्‍वज छत्रपति साहूजी महाराज के हाथों में लहरा रहा था और जिनके पेशवा थे बाजीराव वल्हाड़। तलवार में बिजली सी हरकत और इरादों में हिमालय की अटलता,चितपावन कुल के ब्राह्मनों का तेज और आंखों में एक ही सपना... दिल्‍ली के तख्‍त पर लहराता हुआ मराठाओं का ध्‍वज। कुशल नेतृत्‍व,बेजोड़ राजनीति और अकल्‍पनीय युद्ध कौशल से दस सालों में बाजीराव ने आधे हिंदुस्‍तान पर अपना कब्‍जा जमा लिया। दक्षिण में निजाम से लेकर दिल्‍ली के मुगल दरबार तक उसकी बहादुरी के चर्चे होने लगे।        इस राजनीतिक पृष्‍ठभूमि में रची गई संजय लीला भंसाली की ऐतिहासिक प्रेमकहानी है ‘ बाजीराव मस्‍तानी ’ । बहादुर बाजीराव और उतनी ही बहादुर मस्‍तानी की यह प्रेमकहानी छोटी सी है। अपराजेय मराठा योद्धा बाजीराव और  बुंदेलखंड की बहादुर राजकुमारी मस्‍तानी के बीच इश्‍क हो जाता है। बाजीराव अपनी कटार मस्‍तानी को भेंट करता है। बुंदेलखंड की परंपरा में कटार देने का मतलब शादी करना होता है। मस्‍तानी पुणे के लिए रवाना होती है ताकि बा

दरअसल : फिर से आमने-सामने शाह रुख और भंसाली

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-अजय ब्रह्मात्‍मज        खोजबीन की जाए तो यह पता चल जाएगा कि शाह रुख खान और संजय लीला भेसाली में से किस ने पहले घोषणा की थी कि उसकी फिल्‍म 18 दिसंबर,2015 को रिलीज होगी। फिलहाल स्थिति यह है कि शाह रुख खान की ‘ दिलवाले ’ और संजय लीला भंसाली की ‘ बाजीराव मस्‍तानी ’ एक ही दिन रिलीज हो रही हैं। मजेदार तथ्‍य यह भी है कि दोनों की फिल्‍मों को उनके नाम से ही जाना जाता है,जबकि शाह रुख खन अपनी फिल्‍म के निर्माता और अभिनेता हैं और संजय लीला भंयाली निर्माता होने के साथ निर्देशक हैं। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। 9 नवंबर,2007 को रिलीज हुई ‘ ओम शांति ओम ’ और ‘ सांवरिया ’ को भी उनके नाम से ही जाना गया था। उन्‍हें उनकी टक्‍कर के रूप में देखा गया था। यह दो बड़े नामों के आमने-सामने आने की वजह से हुआ था। वही अब भी हो रहा है। इस बार ‘ दिलवाले ’ के निर्देशक रोहित शेट्टी है और ‘ बाजीराव मस्‍तानी ’ के अभिनेता रणवीर सिंह हैं। इस टक्‍ककर में उनदोनो का कोई तजक्र नहीं है। यह भी रोचक है कि पिछली बार शाह रुख खान की नायिका थीं दीपिका पादुकोण। इस बार वह टक्‍कर में आ रही फिल्‍म की नायिका हैं।     इन दोनो

पंख पसारना चाहती हूं - प्रियंका चोपड़ा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज प्रियंका चोपड़ा संजय लीला भंसाली की ‘ बाजीराव मस्‍तानी ’ में काशीबाई की भूमिका निभा रही हैं। अमेरिकी टीवी शो ‘ क्‍वैंटिको ’ की शूटिंग की व्‍यस्‍तता के कारण इस फिल्‍म के प्रमोशन में उनकी सीमित सक्रियता है। फिर भी मांट्रियल से उन्‍होंने दैनिक जागरण के अजय ब्रह्मात्‍मज से बात की। -पहला सवाल तो यही कि काशीबाई की भूमिका कैसे मिली ? 0 मैं दार्जीलिंग में ‘ मैरी कॉम ’ की शूटिंग कर रही थी। वहीं संजय सर का संदेश मिला कि वे मिलना चाहते हैं। उनके लेखक प्रकाश भाई ने मुझे नैरेशन दिया। मुझे काशीबाई का किरदार इसलिए अच्‍छा लगा कि उनके बारे में अधिक जानकारी नहीं है। बाजीराव और मस्‍तानी के बारे में सभी जानते हैं। किसी ने सोचा ही नहीं कि काशी का क्‍या हुआ ? मेरे पास कोई रेफरेंस पाइंट नहीं था कि उनके दिल पर क्‍या बीती होगी ? उनके बारे में रहस्‍य बना हुआ है। -किस तरह का रहस्‍य है ? 0 बाजीराव के बारे में सभी जानते हैं कि वह अराजेय योद्धा था। मस्‍तानी की प्रेमकहानी भी लोग जानते हैं। बाजीराव घर तो आते होंगे। तब क्‍या होता था ?  उनकी पर्सनल लाइफ कैसी थी ? संजय सर ने

बदलता है सिनेमा समाज के साथ्‍ा - सनी देओल

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सनी देओल -अजय ब्रह्मात्‍मज सनी देओल फिर से डायरेक्‍टर की कुर्सी पर बैठे हैं। इस बार वे 1990 में आई अपनी फिल्‍म ‘ घायल ’ का सिक्‍वल ‘ घायल वंस अगेन ’ निर्देशित कर रहे हैं। इस फिल्‍म के लिए उन्‍हें काफी तारीफ मिली थी। ‘ घायल ’ के सिक्‍वल का इरादा सनी देओल को लंबे समय से मथ रहा था। एक-दो कोशिशों में असफल होने के बाद उन्‍होंने बागडोर अपने हाथों में ली और ‘ दिल्‍लगी ’ (1999) के बाद फिर से निर्देशन की कमान संभाल ली। -16 सालों के बाद फिर से निर्देशन में आने की जरूरत क्‍यों महसूस हुई ? 0 ‘ दिल्‍लगी ’ पूरी नहीं हो पा रही थी,इसलिए मैंने तब जिम्‍मेदारी ली थी। फिल्‍म अधिक सफल नहीं रही। हालंाकि मेरे निर्देशन की सराहना हुई,लेकिन तब बतौर एक्‍टर मुझे फिल्‍में मिल रही थीं। फिलमों में एक्‍टर का काम थोड़ा आसान होता है। ‘ घायल ’ मैं बनान चाह रहा था। बहुत कोशिशें कीं। नहीं हो पाया। फिर लगा कि मुझे ही निर्देशन करना होगा। काम शुरू हुआ तो रायटिंग में भी मजा नहीं आ रहा था। जो मैं सोच रहा था,वह सीन में नहीं उतर रहा था। नतीजा यह हुआ कि लिखना भी पड़ा। - ‘ घायल ’ किस तरह से प्रांसंगिक है

तमाशा और जादू का स्‍कूल - ममता सिंह

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ममता सिंह ने अपने बेटे जादू के बचपन,मस्‍ती और व्‍यवहार से जोड़ते हुए 'तमाशा' को अलग अंदाज में समझा है। इम्तियाज अली की मंशा यही थी कि कुछ लोग भी अगर इस फिल्‍म से प्रेरित होकर नैसर्गिक जिंदगी जी सकें तो काफी होगा। अब हमें जादू के रूप में एक आजाद बालक मिलेगा,जो बड़े होने पर भी किसी हद में नहीं बंधेगा। ममता ने अपनी बात बहुत सादगी से सरल शब्‍दों में रखी है। -ममता सिंह जिंदगी भी कई बार किस तरह से आइना दिखाती है। पिछले शनिवार को अजीब इत्‍तेफाक हुआ। सुबह जादू के स्‍कूल गए ,  पैरेन्‍ट - टीचर - मीटिंग में ,  जिसे ओपन - हाउस भी कहते हैं। उम्‍मीद तो यही थी कि शिकायत सुनने को मिलेगी कि जादू बहुत मस्‍ती करते हैं , He is very naughty but he is good at studies.  लेकिन इस बार दो टीचर्स ने एक ही बात कही , nowadays he is very quiet. He does very good behavior.  मेरा माथा थोड़ा ठनका। इंग्लिश टीचर ने आश्‍चर्य भी जताया कि आजकल वो बड़ा शांत रहने लगा है। लेकिन मैथ टीचर ,  जो क्‍लास - टीचर भी है -  इस बात से खुश थी कि जादू आजकल शांत बैठने लगा है। पहले उसकी मस्‍ती और शरारतों से पूरी क्‍लास

अपना नज़रिया रखते थे दिलीप कुमार - प्रभात रंजन

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'कोठागोई' के लेखक प्रभात रंजन को हम ने अनचोके पकड़ लिया। वे दिलीप कुमार की अंग्रेजी में छपी आत्‍मकथा का हिंदी अनुवाद कर रहे हैं। उन्‍होंने दिलीप कुमार के बारे में कुछ बातें कहीं। अगर उन्‍हें लिखने का मौका मिलता तो वे ज्‍यादा बेहतर तरीके से अपनी बात कहते। यहां उन्‍होंने झटपट अपनी बात रखी है। -प्रभात रंजन          दिलीप कुमार की फिल्‍में देख कर बोलने की भाषा सीखी जा सकती है1मैंने तो उर्दू ज़ुबान उनसे ही सीखी। दिलीप कुमार की आत्‍मकथा में सलीम खान ने इसका उल्‍लेख किया है। उनके उच्‍चारण में परफेक्‍शन है। उनकी एक्टिंग की तरह... आप ‘ देवदास ’ देख लें। उसमें उपन्‍यास वाला देवदास उभर कर आता है। उनकी आत्‍मकथा में मुझे लेखकों के उल्‍लेख ने बहुत प्रभावित किया है। उन्‍होंने बहुत सारे लेखकों को याद किया है। पंडित नरेन्‍द्र शर्मा,भगवती चरण वर्मा,राजेन्‍दर सिंह बेदी...राजेन्‍दर सिंह बेदी के बारे में उन्‍होंने लिखा है कि उनके जैसे संवाद लिखने वाले कम थेत्र वे कम शब्‍दों में संवाद लिख देते थे। कम शब्‍दों में अर्थपूर्ण लिखने की शैली उनसे सीखी जा सकती है। चार शब्‍दों के भी संवाद हैं ‘ दे