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है सबसे जरूरी समझ जिंदगी की - अनुष्‍का शर्मा

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विस्‍तृत बातचीत की सीरिज में इस बार अनुरूका शर्मा। अनुष्‍का शर्मा की विविधता गौरतलब है। अपनी निंदा और आलोचना से बेपरवाह वह प्रयोग कर रही हैं। साहसी तरीके से फिल्‍म निर्माण कर रही हैं। वह आगे बढ़ रही हैं। -अजय ब्रह्मात्‍मज मुझे स्वीकार किया जा रहा है। यह बहुत बड़ी चीज है। इसके बिना मेरी मेहनत के कोई मायने नहीं होंगे। हम लोग एक्टर हैं। हमारी सफलता इसी में है कि लोग हमारे काम के बारे में क्या सोचते हैं ? चाहे वह अप्रत्यक्ष सफलता हो या प्रत्यक्ष सफलता हो। इससे हमें और फिल्में मिलती हैं। यह हमारे लिए जरूरी है। मैं बचपन से ऐसी ही रही हूं। मुझे हमेशा कुछ अलग करने का शौक रहा है। यही मेरा व्यक्तित्व है। फिल्‍मों में आरंभिक सफलता के बाद मुझे एक ही तरह के किरदार मिलें। वे मैंने किए। लेकिन मुझ में कुछ अलग करने की भूख थी। मैंने सोचा कि अब मुझे कुछ अलग तरह का किरदार निभाना है। मैंने सोचा कि कुछ अलग फिल्में करूंगी,जिनमे अलग किरदार हों या फिर अलग पाइंट दिखाया जा रहा हो। कोई अलग सोच हो। यह एक सचेत कोशिश थी। बीच में ऐसी कई फिल्में आईं, जिनमें मुझे लगा कि कुछ करने के लिए नहीं हैं। उन फिल्

खुदपसंदी यहां ले आई - स्‍वरा भास्‍कर

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स्‍वरा भास्‍कर से यह विस्‍तृत बातचीत है। किसी अभिनेत्री को चंद सवालों और जवाबों में नहीं समझा जा सकता। फिर भी उनकी सोच,समझ और काम की झलक मिलती है। इस सीरिज में और भी इंटरव्‍यू आएंगे....  -निल बटे सन्नाटा से ही शुरू करते हैं। जीत जैसा ना कहें लेकिन इस फिल्म का लोगों पर असर रहा ही है?इस फिल्म के बारे में बोलते हुए आप अपनी बात पर आएं? 0निल बटे सन्नाटा का ब्रीफ यही है कि जब यह फिल्म मुझे मिली मैं उत्साहित थी। मैंने सोचा कि लीड में टाइटल पार्ट और इतना एक दम नायक जैसा रोल। इससे पहले मेरी दो –तीन फिल्में आ चुकी थी। जहां में सहायक भूमिका का किरदार निभा रही थी। लेकिन जब इस फिल्म के लिए मुझे पता चला कि पंद्रह साल की बच्ची की मां का रोल है, तो हल्की सी कड़वाहट मेरे अंदर पैदा हुई।मैंने सोचा कि यार, पता नहीं क्या करना पड़ेगा हीरोईन बननेके लिए। लीड भी मिल रहा है तो मां के किरदार के लिए। सच कहूं तो मेरी सोच यही थी। पर मैंने जब स्क्रिप्ट पढ़ी तो मुझे लगा कि इस फिल्म को मना नहीं करना चाहिए। मैंने सोचा कि रिस्क है। पर कोई बात नहीं। इस फिल्म के लिए मुझे मना नहीं करना चाहिए। फिल्म शुरू ह

रंगमंच पर मुगलेआजम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दशकों पहले बनी ‘ मुगलेआजम ’ का जादू अब तक जारी है। जब यह रंगीन होकर रिलीज हुई थी तो भी दर्शकों ने इसे पसंद किया था। अब फिरोज अब्‍बास खान इसे मंच पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके ही शब्‍दों में... कोशिश और ट्रिब्‍यूट है कि हम ‘ मुगलेआजम ’ को रंगमंच पर लेकर आएं1 मुझे हमेशा लगा कि इस फिल्‍म का स्ट्रक्‍चर थिएट्रिकल ही रहा। परफारमेंस,स्‍टायल और संवाद अदायगी में इसे देख सकते हैं। पारसी रंगमंचा पर ‘ अनारकली ’ देख कर के आसिफ ने मुगलेआजम के बारे में सोचा था। यह मूल फिल्‍म से प्रेरित रहेगा। हमारे लेखक ने रंगमंच के हिसाब से बदला है। बहुत ही स्‍ट्रांग मैसेज है। देश है,तख्‍त है और बाप-बेटे का संबंध है। बेटा अपनी दिलअजीज से शादी करना चाहता है और बाप उसके खिलाफ है। उसे यह मुनासिब नहीं लगता। क्‍लासिक लवस्‍टोरी है। इसमें कोई भी डल मोमेंट नहीं है। हिंदी में म्‍यूजिकल प्‍ले करने का इरादा था। मुझे उसके मुगलेआजम सही लगा। इसमें लाइव म्‍यूजिक रहेगा। नए मीडियम में म्‍यूजिकल थिएटर देख कर आनंद आएगा। स्‍क्रीन से यह कहानी स्‍टेज पर लाने में अधिक दिक्‍कत नहीं हुई,क्‍य

फिल्‍म समीक्षा : इनफर्नो

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जैसी किताब,वैसी फिल्‍म -अजय ब्रह्मात्‍मज डैन ब्राउन के उपन्‍यास पर आधारित रॉन होवार्ड की फिल्‍म ‘ इनफर्नो ’ का भारत में सबसे बड़ा आकर्षण इरफान खान हैं। इनकी वजह से फिल्‍म का एक भारतीय ट्रेलर भारत में जारी किया गया। यह भ्रम बनाया गया कि इस फिल्‍म में इरफान खान की भूमिका टॉम हैंक्‍स को टक्‍कर देगी। ऐसे प्रशंसक दर्शकों को ‘ इनफर्नो ’ निराश करेगी। प्रचार के मुताबिक इसमें इरफान खान हैं। उन्‍हें महत्‍वपूर्ण किरदार भी मिला है,लेकिन स्‍क्रीन प्रेजेंस के लिहाज से यह अपेक्षाकृत छोटा है। डेविड कोएप ने मूल उपन्‍यास को स्क्रिप्‍ट में बदला है। उन्‍होंने पहले भी डैन ब्राउन के उपन्‍यास की फिल्‍म स्क्रिप्‍ट तैयार की है। पिछले अनुभवों से उन्‍हें लाभ हुआ है। उपन्‍यास की आत्‍मा के साथ उसके शरीर को भी उन्‍होंने फिल्‍म में जस का तस रखा है। यही वजह है कि निर्देशक रॉन होवार्ड की कोशिशों के बावजूद फिल्‍म साधारण ही रह जाती है। भारत में डैन ब्राउन लोकप्रिय लेखक हैं। विदेश में उन्‍हें एयरपोर्ट रायटर का दर्जा हासिल है। भारत समेत अनेक देशों में साधारण उपन्‍यासों पर बेहतरीन फिल्‍में बनती रही

फिल्‍म समीक्षा : सात उचक्‍के

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गालियां और गलियां -अजय ब्रह्मात्‍मज संजीव शर्मा की ‘ सात उचक्‍के ’ का सबसे बड़ा आकर्षण मनोज बाजपेयी,के के मेनन और विजय राज का एक साथ एक फिल्‍म में होना है।तीनों थिएटर की पृष्‍ठभूमि से आए अभिनेता हैं। तीनों की शैली में हल्‍की भिन्‍नता है। फिल्‍म के कुछ दृश्‍यों में तीनों साथ हैं। उन दृश्‍यों में हंसी की स्‍वच्‍छंद रवानी है। वे एक-दूसरे को स्‍पेस देते हुए अपनी मौजूदगी और शैली से खुश करते हैं। अपने निजी दृश्‍यों में उनका हुनर दिखता है। लेखक-निर्देशक संजीव शर्मा तीनों के साथ पुरानी दिल्‍ली की उन गलियों में घुसे हैं,जिनसे हिंदी सिनेमा अपरिचित सा रहा है। पुरानी दिल्‍ली के निचले तबके के ‘ सात उचक्‍कों ’ की कहानी है यह। ’ सात उचक्‍के ’ में पुरानी दिल्‍ली की गलियां और गालियां हैं। गालियों की बहुतायत से कई बार आशंका होती है कि कहीं लेखक-निर्देशक स्‍थानीयता के लोभ में असंयमित तो नहीं हो गए हैं। फिल्‍म के सातों उचक्‍कों का कोई भी संवाद गालियों के बगैर समाप्‍त नहीं होता। भाषा की यह खूबी फिल्‍म के आनंद में बाधक बनती है। हां,पुरानी दिल्‍ली की तंग गलियां इस फिल्‍म में अपनी खूबसूरती

दरअसल : भिखारी के तीन चेंज

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यह कानाफूसी नहीं है। स्‍वयं करण जौहर ने स्‍वीकार किया है। इस प्रसंग से पता चलता है कि हमारे फिल्‍मकार अपने समाज से कितना कटे हुए हैं। वे जिस दुनिया में रहते हैं और पर्दे पर जिस दुनिया को रचते हैं,वह वास्‍तविक दुनिया से कोसों दूर उनके खयालों में रहती है। हमें पर्दे पर रची उनकी दुनिया भले ही आकर्षक और सपने की तरह लगे,उसमें रमने का मन भी करे,उसकी चौंधियाहट से हम विस्मित होते रहे....लेकिन सच से उनका वास्‍ता नहीं होता। वस्‍तु,चरित्र,दृश्‍य,प्रसंग और कहानियां सब कुछ वायवीय होती हैं। जीवन के कड़वे और मीठे अनुभवों की काल्‍पनिक उड़ान से कहानियां रची जाती हैं। उन कहानियों को जब कलाकार पर्दे पर जीते हैं तो वह फिल्‍म का रूप लेती हैं। जरूरी है जीवनानुभव....इसके अभाव में इधर अनेक फिल्‍मकार आए हैं,जिन्‍होंने फिल्‍मों में एक वायवीय और चमकदार दुनिया रची है। एक बार सुधीर मिश्रा से बात हो रही थी। उनसे मैंने पूछा कि कुछ फिल्‍मकारों की फिल्‍में और उनमें किरदारों की मनोदशा इतनी नकली क्‍यों लगती है ? उन्‍होंने सवाल खत्‍म होते ही कहा, ’ क्‍योंकि उन्‍हें नकली लोग रच रहे होते हैं। ऐ

सजग-सक्रिय महानायक अमिताभ बच्‍चन

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जन्‍मदिन विशेष -अजय ब्रह्मात्‍मज दिलीप कुमार,मनोज कुमार,शशि कपूर,शत्रुघ्‍न सिन्‍हा,अमोल पालेकर,संजय खान,जीतेन्‍द्र कबीर बेदी,विनोद खन्‍ना,रणधीर कपूर,धर्मेन्‍द्र,सुरेश ओबेरा और अमिताभ बच्‍चन में एक समानता है कि सभी 70 की उम्र पार कर चुके हैं। इस सूची में और भी अभिनेताओं के नाम जोड़े जा सकते हैं। इनमें केवल अमिताभ बच्‍चन अभी अपनी सक्रिय मौजूदगी से दर्शकों को विस्मित कर रहे हैं। हिंदी फिल्‍मों के इतिहास में खंगाल कर देखें तो दिलीप कुमार और अशोक कुमार 70 की उम्र के बाद भी फिल्‍मों में अभिनय करते रहे और दमदार मुख्‍य भूमिकाओं में नजर आते रहे।  दूसरे अभिनेताओं को भी छिटपुट फिल्‍में मिलीं। उन सभी में अमिताभ बच्‍चन के अलावा और कोई लीड भूमिकाओं में इतनी लंबी पारी तक अभिनय करता नजर नहीं आता। अमिताभ बच्‍चन फिल्‍मों के साथ ऐड पर्ल्‍ड और सोशल मीडिया में भी सक्रिय हैं। वहां भी लोग उप पर गौर करते हैं। उन्‍हें फॉलो करते हैं। उनके प्रशंसक बने हुए हैं। हालांकि अमिताभ बच्‍चन अपनी पिछली मुलाकातों में लगातार कहते रहे हैं कि अब फिल्‍मों का भार उनके कंधों पर नहीं रहता,लेकिन उनकी पिछली फिल्‍मों