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सिनेमालोक : फिल्म निर्माण में महिलाओं की बढती भागीदारी

  सिनेमालोक फिल्म निर्माण में महिलाओं की बढती भागीदारी -अजय ब्रह्मात्मज सालों पहले अमिताभ बच्चन से एक बार सेट के बदलते परिदृश्य पर बात हो रही थी. मैंने उनसे पूछा था कि उनके अनुभव में सेट और शूटिंग में किस तरह के बदलाव दिख रहे हैं? अमिताभ बच्चन ने अपनी ख़ास दार्शनिक मुद्रा में सबसे पहले युवा निर्देशकों और तकनीकी टीम की तारीफ की. उनके अनुशासन, कार्यशैली और प्रोफेशनलिज्म की प्रशंसा की. वे सेट पर ना तो अपना समय बर्बाद करते हैं और ना कलाकारों को बेवजह बिठाए रखते हैं. साथ ही गौर करने की बात है कि सेट पर लड़कियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. फिल्म निर्माण के हर विभाग में उनकी सहभागिता और सक्रियता देखकर मैं अचंभित रहता हूं. हमारे समय में केवल पुरुष पुरुष नजर आते थे. 10 - 12 साल पहले से सेट पर महिला तकनीशियनों की आमद बढ़ने लगी थी. छिटपुट संख्या में नजर आती लड़कियों की संख्या में इजाफा होने लगा था. लंबे समय तक निर्माण के कुछ काम केवल पुरुषों के लिए ही माने और समझे जाते थे. उनमें भी महिलाओं की हिस्सेदारी और जिम्मेदारी बढ़ी   है. थोड़ा पीछे चले तो हिंदी फिल्मों के लेखन,निर्देशन और तकनीक

सिनेमालोक : भटकती बहस नेपोटिज्म की

  सिनेमालोक भटकती बहस नेपोटिज्म की सही परिप्रेक्ष्य और संदर्भ में विमर्श आगे नहीं बढ़ रहा है. नेपोटिज्म और आउटसाइडर को लेकर चल रहा वर्तमान विमर्श अनेक दफाअतार्किक, निराधार और धारणागत टिप्पणियों से उलझता जा रहा है. कोई दिशा नहीं दिख रही है. निदान तो दूर की बात है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में जारी इस प्रवृत्ति से इनकार नहीं किया जा सकता. समाज के हर क्षेत्र की तरह यहां भी पहले से स्थापित हस्तियां अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए हर तिकड़म अपनातीहैं. भाई-भतीजावाद आम बात है, लेकिन इसी सामाजिक और पेशेगत व्यवस्था को भेद कर कुछ प्रतिभाएं मेहनत, लगन और बेहतर काम से अपनी जगह बना लेती हैं. शुरू शुरू में आउटसाइडर रही प्रतिभाएं 20 - 25 सालों तक टिकने के बाद इनसाइडर बन जाती हैं. अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और अक्षय कुमार ताजा उदाहरण है. स्वभाविक रूप से अभिषेक बच्चन, आर्यन और आरो का फिल्मी झुकाव होता है. परिवार के प्रभाव में उन्हें आसानी से फिल्में मिलीं और आगे भी मिलेंगी,लेकिन अपनी प्रतिभा और अभ्यास से ही वे दर्शकों के दिलों में जगह बना पाते हैं. यह सिलसिला दशकों से चला आ रहा है. आगे भी चलता रहेगा. इस

सिनेमालोक फिर से दबा ‘पॉज’ बटन

सिनेमालोक फिर से दबा ‘पॉज’ बटन -अजय ब्रह्मात्मज पिछले हफ्ते इसी स्तंभ में ‘शूटिंग आरंभ होने के आसार’ का जिक्र हुआ था. इन दिनों जिस प्रकार से फिल्म कलाकारों के घर से निकलने, स्टूडियो जाने और पार्टियों की तस्वीरें आ रही थीं,उनसे लग रहा था कि सब कुछ सामान्य हो रहा है. इस बीच अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन के कोविड संक्रमित होने से फिल्म इंडस्ट्री फिर से ठिठक गई है. ‘पॉज’ बटन फिर से दब गया है. हम सभी जानते हैं कि अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन दोनों ही शूटिंग और डबिंग के काम में लगे हुए थे. कोविड- 19 के संक्रमण के स्रोत का पता लगाना मुश्किल काम है, लेकिन ऐसा लगता है कि शूटिंग में डबिंग की गतिविधियों में शामिल होने से इसकी संभावना बनी होगी. बच्चन पिता-पुत्र अभी डॉक्टरों की निगरानी में अस्पताल में हैं. ऐश्वर्या राय बच्चन और आराध्या घर पर ही क्वारंटाइन का पालन कर रहे हैं. बच्चन परिवार के अलावा खेर परिवार में भी कोविड संक्रमण हो चूका है. आने वाले दिनों में गहन जांच के बाद कुछ और मामले निकल सकते हैं. अभी संख्या और व्यक्ति अधिक महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण सावधानी है. किसी भी प्रकार की ला

परी चेहरा नसीम बानो

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जन्मदिन विशेष नसीम बानो(४ जुलाई १९१६- १८ जून २००२) परी चेहरा नसीम बानो -अजय ब्रह्मात्मज   104 वर्ष पहले पुरानी दिल्ली में गायिका शमशाद बेगम के घर रोशन आरा बेगम का जन्म हुआ था. यह शमशाद बेगम फिल्मों की मशहूर गायिका शमशाद बेगम नहीं थीं. शमशाद बेगम दिल्ली में नाच-गाना करती थीं. वह छमियाबाई के नाम से मशहूर थीं. उनकी बेटी रोशन आरा बेगम फिल्मों में आने के बाद नसीम बानो नाम से विख्यात हुई. नसीम  बानो  के वालिद हसनपुर के नवाब थे. उनका नाम वाहिद अली खान था. मां चाहती थीं कि उनकी बेटी बड़ी होकर मेडिकल की पढ़ाई करे और डॉक्टर बने, लेकिन बेटी को तो फिल्मों का चस्का लग गया था. सुलोचना(रुबी मेयर्स) की फिल्में देखकर वह फिल्मों की दीवानी हो चुकी थी. स्कूल की छुट्टी के दिनों एक बार वह मां के साथ मुंबई आई थी. रोज मां से मिन्नत करती कि मुझे शूटिंग दिखला दो. एक दिन मां का दिल बेटी की जीत के आगे पसीज गया और वह उसे शूटिंग पर ले गईं. ‘सिल्वर किंग’ की शूटिंग चल रही थी. उसमें मोतीलाल और सबिता देवी काम कर रहे थे. किशोरी रोशन आरा एकटक उनकी अदाओं को देखती रही. इसे संयोग कहें या नसीम बानो की खुशकिस्मत...

सिनेमालोक : अभिषेक बच्चन के 20 साल

सिनेमालोक अभिषेक बच्चन के 20 साल अजय ब्रह्मात्मज   आज 30 जून को अभिषेक बच्चन की पहली फिल्म ‘रिफ्यूजी’ को रिलीज़ हुए 20 साल हो गए. 20 साल पहले जब यह फिल्म आई थी, तब बच्चन परिवार और कपूर परिवार में संयुक्त खुशी की लहरें हिलोरे भर रही थीं. दोनों परिवारों के लिए अनुपम खुशी का दिन था, क्योंकि ‘रिफ्यूजी’ से कपूर परिवार की करीना कपूर भी लॉन्च हुई थीं. आज दोनों अपने कैरियर में बेहद व्यस्त हैं और सबसे अधिक खुशी की बात है कि 20 सालों के बाद भी दोनों काम कर रहे हैं. उनकी फिल्में आ रही हैं. अभिषेक बच्चन को ‘रिफ्यूजी’ के प्रीमियर का दिन अच्छी तरह याद है. हमें किसी भी नई शुरुआत का पहला दिन ताजिंदगी याद रहता है. उन्होंने उस दिन को याद करते हुए बताया था कि फिल्म के प्रीमियर के लिए निकलने से पहले वह दादा(हरिवंश राय बच्चन) और दादी(तेजी बच्चन) का आशीर्वाद लेने ‘प्रतिक्षा’ गए थे. दादी ने माथा चूमते हुए उनसे कहा था कि मुझे भी फिल्म दिखाना. अभिषेक ने वीएचएस से दिखाने का वादा किया और अपने चाचा व छोटे भाई सरीखे सिकंदर खेर के साथ लिबर्टी के लिए निकले. ‘रिफ्यूजी’ का प्रीमियर मुंबई के लिबर्टी सिनेमाघर

सिनेमालोक : हिंदी फिल्मों के ‘आउटसाइडर’

सिनेमालोक हिंदी  फिल्मों के ‘आउटसाइडर’ -अजय ब्रह्मात्मज कुछ सालों पहले कंगना रनोट ने स्पष्ट शब्दों में ‘नेपोटिज्म’ और ‘मूवी माफिया’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया था तो फिल्म इंडस्ट्री के ताकतवर पैरोकारों ने खुले मंच पर उनका मखौल उड़ाया. आम दर्शकों के बीच भी इसे उनकी व्यक्तिगत भड़ास माना गया. फिल्म इंडस्ट्री बदस्तूर मशगूल रही और सब कुछ रूटीन तरीके से चलता रहा. पिछले सप्ताह 14 जून को सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से जुड़े पहलुओं के संदर्भ में ‘नेपोटिज्म’ शब्द तेजी से उभरा है. अभी बाहर का यह शोर फिल्म इंडस्ट्री के गलियारे में भी गूंज रहा है. ‘मी टू’ के आरोपों से सजग हुई फिल्म इंडस्ट्री ज्यादा सावधान हो गई है. गौर करें तो फिल्म इंडस्ट्री में ‘नेपोतिज्म’ का चलन नया नहीं है. पहले पहुंच और सिफारिश के नाम पर रिश्तेदारों को मौके मिलते रहे हैं. आठवें और नौवें दशक में तो फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हुए पहली पीढ़ी के अभिनेता-अभिनेत्रियों ने अपनी संतानों को समारोह के साथ लांच किया. उनमें से कुछ आज भी फिल्म इंडस्ट्री पर राज कर रहे हैं. इसे स्वाभाविक मान कर स्वीकार कर लिया गया था. बाहर से आए

ब्लैक कॉमेडी के लिफ़ाफ़े में पोस्ट की गयी त्रासद चिट्ठी उर्फ़ ‘गुलाबोसिताबो’ : विभावरी

ब्लैक कॉमेडी के लिफ़ाफ़े में पोस्ट की गयी त्रासद चिट्ठी उर्फ़ ‘गुलाबोसिताबो’ -विभावरी .......................................................................................................................... सामाजिक-राजनीतिक और वैचारिक महामारी के इस दौर में सिनेमा में एक नई बहार आई है पिछले कुछ बरसों में...छोटे शहरों के उदास कोनों में चमकती , धुंधली कहानियों की बहार. ‘गुलाबो सिताबो’ इसी बहार का एक काव्यात्मक पड़ाव है. फ़िल्म आपसे ख़ुद के अच्छा लगने की गुहार नहीं लगाती...ठीक अपने तमाम किरदारों की तरह जो उतने ही मानवीय हैं जितनी यह फ़िल्म अपनी संरचना में. शायद यही कारण है कि इसके कुछ हिस्सों पर आपका मन जितना रीझता है , कुछ पर उतना ही उखड़ता भी है...बावजूद इसके यह फ़िल्म आपको शुरू से आखीर तक बाँधे रखती है.      फ़िल्म अपने गढ़न में दरअसल कॉमेडी के एक विशेष रूप ‘ब्लैक कॉमेडी’ के नज़दीक है. सिनेमा/कला की भाषा में ‘ब्लैक/ डार्क कॉमेडी’ के मायने त्रासद विषयों को हास्यात्मक तरीके से पेश करने से सम्बंधित है...ज़ाहिर है ऐसे विषय आपको एक ऐसी विडंबनात्मक स्थिति में लेकर जाते हैं जहाँ यह तय करना मुश्