फ़िल्म समीक्षा:हीरोज


विषय और भाव से भटकी फिल्म

फौज के चार जवानों और उनके परिवार के सदस्यों की भावनाओं के जरिए समीर कर्णिक ने आज के संदर्भ में देशभक्ति और देश सेवा की याद दिलाई है। इसके लिए उन्होंने कुछ पापुलर स्टार चुने और वे स्टार ही फिल्म के विषय पर भारी पड़ गए। समीर सितारों की लोकप्रियता भुनाने के चक्कर में मूल भाव से भटक गए। दुर्भाग्य की बात है कि हीरोज समेत अपनी तीनों फिल्मों में समीर से समान भूलें हुई हैं।
मोटर साइकिल और हजार किलो मीटर के सफर से माना जा रहा था कि हीरोज चेग्वेरा के जीवन को लेकर बनी मोटरसाइकिल डायरी से प्रभावित होगी। लेकिन, समीर ने बिल्कुल अलग फिल्म बनाई है। विचार नया और अद्भुत है लेकिन उसके फिल्मांकन में उन्होंने सलमान खान और सनी देओल पर कुछ ज्यादा ही ध्यान दे दिया है। अगर वे स्टार के बजाए किरदार पर ध्यान केंद्रित कर चलते तो फिल्म ज्यादा प्रभावकारी होती और अपने विषय व भाव के साथ न्याय कर पाती। सलमान का प्रसंग बेवजह लंबा खींचा गया है। सनी देओल के मुक्के और बहादुरी को दिखाने के लिए भी सीन ठूंसे गए हैं। नतीजा यह हुआ कि हीरोज न तो मसाला फिल्म बन पाई और न ही अपना संदेश ढंग से रख पाई।
समीर और अली लापरवाह व उदंड किस्म के युवक हैं। पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा मौज-मस्ती में उनका वक्त गुजरता है। दोनों फिल्म स्कूल के छात्र हैं। उन्हें स्नातक होने के लिए एक फिल्म बनानी है। उन्हें विषय सूझता है - क्यों फौज में भर्ती नहीं हों? उनके पास तर्क है कि फौजी की जिंदगी में सिर्फ मौत और फिर परिजनों की परेशानी होती है। अपने रिसर्च के सिलसिले में वे तीन फौजियों के परिवारों से मिलते हैं तो पाते हैं कि देश के लिए मर-मिटने का जज्बा ही अलग होता है। उनकी समझ में यह भी आता है कि देश सेवा के लिए कंधे पर किसी मेडल की जरूरत नहीं होती। फिल्म के अंत में यही पंक्ति संदेश के तौर पर उभरती है। शायद समीर अपने रिसर्च में यह नहीं समझ पाए कि मेडल कंधे पर नहीं सीने पर लगाए जाते हैं।
कलाकारों की बात करें तो सलमान अलग अंदाज में अच्छे लगे हैं और प्रीटी जिंटा घरेलू महिला की जीवट भूमिका में जंची हैं। दोनों फिल्म का एक तिहाई हिस्सा भर हैं। सनी देओल संयमित भूमिका में ठीक लग रहे थे लेकिन फिर मुक्का चलाने से बाज नहीं आए। डिनो मोरिया और मिथुन चक्रवर्ती का ट्रैक उभर नहीं पाया। फिल्म के नायक सोहेल खान और वत्सल सेठ सामान्य हैं।

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