रिश्तों की बेईमानी पर ईमानदार फिल्म है दिल कबड्डी


शुक्रवार को रिलीज हो रही फिल्म दिल कबड्डी को एक अलग विषय की फिल्म कहा जा रहा है। इस फिल्म को लेकर इरफान खान से हुई विशेष बातचीत के कुछ अंश-

फिल्म 'दिल कबड्डी' के बारे में कुछ बताएं?
यह नए किस्म की फिल्म है। रिश्तों में चल रही बेईमानी पर यह एक ईमानदार फिल्म है। महानगरों में ऐसे रिश्ते देखे -सुने जाते हैं। महानगरों में आदमी और औरत रहते एक रिश्ते में हैं, लेकिन पंद्रह रिश्तों की बातें सोचते रहते हैं। समय आ गया है कि हम इस पर बातें करें।
[इस फिल्म की क्या खासियत मानते हैं आप? विवाहेतर संबंधों पर तो और भी फिल्में बनी हैं?]
इस विषय पर इतने मनोरंजक तरीके से बनी फिल्म आपने पहले नहीं देखी होगी। मैं वैसी फिल्मों से दूर भागता हूं, जो मुद्दे पर बात करते हुए डार्क हो जाती हैं या उपदेश देने लगती हैं। मेरी समझ में आ गया है कि फिल्म मनोरंजन का माध्यम है। यह आपको सोचने पर मजबूर कर सकती है, लेकिन साथ में मनोरंजन जरूरी है।

लेकिन आपने 'मुंबई मेरी जान' जैसी फिल्म भी की?
वह फिल्म आपको जिम्मेदार महसूस करवाती है। उस फिल्म को मैंने इसलिए किया था, क्योंकि निशिकांत कामत की ईमानदारी पर मेरा विश्वास था। मैंने उनकी पिछली फिल्म देखी थी। मैं उनके साथ काम करना चाहता था।

'दिल कबड्डी' के प्रति आप आरंभ से ही उत्साहित थे?
इस फिल्म में झूठा मनोरंजन नहीं है। इस फिल्म को देखने के बाद आप खाली दिमाग नहीं सोएंगे। फिल्म के दृश्य दिमाग में घूमते रहेंगे। यह फिल्म मुझे जब मिली थी, तभी मैंने हां कह दी थी। लेखक-निर्देशक की सोच में विश्वास था मेरा।

बाक्स आफिस पर आपका आकर्षण इतना है कि लोग इसे देखने आएंगे?
मुझे नहीं मालूम कि मेरा आकर्षण कितना है, लेकिन इतना मैं जानता हूं कि लोग मेरा काम पसंद करते हैं और मुझे चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ मेरे नाम से ही लोग अंदर चले आएं। लोग आएंगे और फिल्म अच्छी लगेगी, तो ज्यादा लोग आएंगे। मैं इस कोशिश में जरूर लगा हूं कि मेरा नाम दर्शकों को अच्छी मनोरंजक फिल्म देखने का भरोसा दे।

मुंबई के अभी के माहौल से परेशान हैं आप?
मैं सुन्न हो गया हूं। कुछ अखबारों से प्रतिक्रिया के लिए फोन आए थे, मैं कुछ कह नहीं सका, क्योंकि घटनाओं से दिमाग में घालमेल हो गया था। अब बात समझ में आ रही है कि इस्तीफा देने या जिम्मेदारी लेने से ही काम नहीं चलेगा। मुझे लग रहा है कि जिम्मेदार लोगों को सजा मिलनी चाहिए। आजादी के बाद से यही ढर्रा चला आ रहा है। लोकतंत्र तभी कारगर होता है, जब जनता जागरूक हो। मुझे डर और परेशानी नहीं है। एक हताशा है। मैं हतोत्साहित हूं। मोमबत्ती जलाना, मार्च करना, काली पट्टी लगाना यह सब भावनात्मक है। इसका असर होता है, लेकिन यह दर्द होने पर रोने-चीखने की तरह है। दर्द तो तभी खत्म होगा, जब दवा होगी।

इस ट्रेजडी पर क्या कहेंगे?
हमें सोचना होगा। हम अपनी ट्रेजडी की तुलना भी 9/11 से कर रहे हैं। क्यों भाई? हर चीज में अमेरिका की नकल करने की क्या जरूरत है। हमें जवान, दृष्टि संपन्न और ईमानदार नेता चाहिए। खतरा सिर्फ बाहरी नहीं हैं। अंदरूनी भी है। हम उन्हें ढंग से नहीं देखेंगे, तो मुश्किलें बढ़ेंगी। अगर कहीं से सीखना ही है, तो चीन से सीखें। उसने कैसे ताकत बटोरी है और वह किसी के दबाव में नहीं है। उसकी स्वतंत्र नीति है। वहां संस्कार और परंपरा का निर्वाह किया जाता है।

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