फ़िल्म समीक्षा: ह्वाट्स योर राशि?

-अजय ब्रह्मात्मज
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आशुतोष गोवारिकर की फिल्म सामान्य नहीं हो सकती। असमान्य फिल्मों के साथ यह जोखिम रहता है कि वह या तो खूब पसंद आती हैं या बिल्कुल नहीं। इसके अलावा लगान के बाद आशुतोष लंबी फिल्म बनाने के लिए भी मशहूर हो गए। वह हर बार एक नए विषय के साथ फिल्म लेकर आते हैं। उनकी ह्वाट्स योर राशि? रोमांटिक कामेडी है। गंभीर और पीरियड फिल्मों के बाद आशुतोष की यह कोशिश सराहनीय है। उन्होंने मूल लेखक की मदद से समाज में विवाह संबंधी प्रचलित मान्यताओं व मूल्यों को छूने और अप्रत्यक्ष रूप से सवाल खड़े करने की कोशिश की है।

मध्यवर्गीय परिवार का योगेश पटेल एमबीए की पढ़ाई के लिए अमेरिका के शिकागो चला गया है। वह नफा-नुकसान की मानसिकता से बाहर निकलना चाहता है। इधर उसका परिवार कई मायनों में पारंपरिक और रूढि़वादी है। परिवार पर एक आर्थिक मुसीबत आ खड़ी हुई है। उससे निजात पाने का एक ही तरीका है कि आकस्मिक धन आए। कुछ ऐसा संयोग बनता है कि अगर योगेश की शादी एक निश्चित तारीख तक कर दी जाए तो आवश्यक धन मिल जाएगा। योगेश को झूठ बताकर भारत बुलाया जाता है। यहां आने के बाद उस पर भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक दबाव डाला जाता है। उसे दस दिनों के अंदर शादी करनी है। प्रेम विवाह की ख्वाहिश रखने वाला योगेश आखिरकार झटपट शादी के लिए तैयार हो जाता है। वह छह दिनों में शादी के लिए चुनी गई लड़कियों में बारह से मिलना तय करता है। वह सभी राशियों की एक-एक लड़की से मिलता है।

फिल्म इसी युक्ति पर केंद्रित है। आशुतोष ने बारह लड़कियों के रूप में प्रियंका चोपड़ा को रखने का साहसिक निर्णय लिया है। प्रियंका निराश नहीं करतीं। उन्होंने सभी लड़कियों को मिले मिजाज के मुताबिक निभाने की पूरी कोशिश की है। एक ही फिल्म में बारह किरदारों को निभाने के लिए अभिनेत्री में आंतरिक विविधता अनिवार्य शर्त है। कुछ जगहों पर प्रियंका से चूक हुई है। मोटे तौर पर प्रियंका ने निर्देशक के चरित्रांकन को पकड़ने की कोशिश की है। अगर उन्होंने अपनी आवाज और संवाद अदायगी पर और मेहनत की होती एवं वैविध्य ला पातीं तो फिल्म अधिक प्रभावशाली हो जाती। बहस हो सकती है कि अगर आशुतोष बारह लड़कियों की भूमिकाओं के लिए बारह अभिनेत्रियों को चुनते तो फिल्म कैसी बनती? निश्चित ही तब विविधता अधिक स्पष्ट होती। यहां आशुतोष पर आए व्यवहारिक दबाव को ध्यान में रखना होगा। हिंदी फिल्मों में अभिनेत्रियों की लोकप्रियता और वरीयता का ऐसा क्रम बना हुआ है कि बारह अभिनेत्रियों को चुनने और फिर उनकी हैसियत के मुताबिक रोल छोटा-बड़ा करने में ही पूरा श्रम निकल जाता। आशुतोष ने पुरानी सफलता को दोहराने का सुरक्षित तरीका नहीं अपनाया है। उन्होंने रोमांटिक कामेडी में प्रयोग किया है। हमें यह भी नहंीं भूलना चाहिए कि कामेडी के नाम पर अभी जो फूहड़ता पड़ोसी जा रही है, उससे दर्शक कंडीशंड हो चुके हैं। आशुतोष ने हृषिकेष मुखर्जी और बासु चटर्जी की परंपरा को निभाने की कोशिश की है। इस साहस और कोशिश के लिए उनकी सराहना होनी चाहिए।

हरमन बावेजा के चरित्र की सीमाएं थीं। उन्हें एकरेखीय चरित्र निभाना था। पिछली दोनों फिल्मों से वह आगे आए हैं। अंजन श्रीवास्तव ने लोलुप पिता की भूमिका के साथ न्याय किया है। उनकी पत्नी के रूप में मंजू सिंह जंची हैं। आशुतोष को अपने प्रिय और भरोसेमंद अभिनेताओं को हर फिल्म में लेने के लोभ से बचना चाहिए। इस बार वे एक्टर निराश करते हैं।

संगीत के संदर्भ में भी आशुतोष का प्रयोग उल्लेखनीय है। उन्होंने नए संगीतकार और गायक सोहेल सेन का समुचित उपयोग किया है। फिल्म के लिए जरूरी गीत लिखे गए हैं। फिल्म के बाहर आइटम के रूप में वह लोकप्रिय नहीं हैं, लेकिन किरदारों के लिए उचित हैं। प्रचलित धुनों और स्वरों से अलग जाकर सोहेल सेन ने फिल्म की थीम में बहुत कुछ जोड़ा है।

Comments

सभी जगह से जो समीक्षाएं आ रही है, यह इससे विपरीत है....सोच में डाल दिया...
Arshia Ali said…
आपकी समीक्षा पढकर इसके बारे में सोचना पडेगा।
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दुर्गापूजा एवं दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएं।
( Treasurer-S. T. )
भाई मैंने तो फिल्म देखी है और मुझे पसंद आई....हाँ गानों को कम किया जाता तो और ज्यादा मनोरंजन संभव था
Unknown said…

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