मल्टीप्लेक्स में क्षेत्रीय फिल्में

मुंबई में महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के तौर-तरीकों से सहमत नहीं हुआ जा सकता। मराठी अस्मिता की लड़ाई के लिए देश की दूसरी संस्कृतियों की बढ़ती पहचान को जबरन रोकना असांविधानिक और गलत है। फिर भी राज ठाकरे ने मल्टीप्लेक्स मालिकों पर मराठी फिल्मों के शोज प्राइम टाइम पर रखने का जो दबाव डाला है, वह मराठी सिनेमा के अस्तित्व और विकास के लिए जरूरी पहल है। न सिर्फ महाराष्ट्र में, बल्कि दूसरे प्रांतों में भी हमें मल्टीप्लेक्स मालिकों पर दबाव डालना चाहिए कि वे अपने प्रांत और क्षेत्र विशेष की फिल्मों का प्रदर्शन अवश्य करें। राजस्थान में राजस्थानी, हरियाणा में हरियाणवी और छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी भाषा में बनी फिल्मों का प्रदर्शन अनिवार्य करने पर निश्चित ही उन भाषाओं में सक्रिय फिल्म निर्माताओं को संबल मिलेगा।

फिल्मों के वितरण और प्रदर्शन के तंत्र से दर्शकों का सीधा रिश्ता नहीं बनता। उन्हें सामान्य रूप में लगता है कि जो फिल्में चलती हैं या जिनकी चलने की उम्मीद होती हैं, थिएटरों के मालिक उन फिल्मों का ही प्रदर्शन करते हैं। ऊपरी तौर पर यह सच है, लेकिन भीतर ही भीतर वितरकों की लॉबी और निर्माताओं के प्रभाव से गंदे खेल खेले जाते हैं। अगर बड़े प्रोडक्शन हाउस या कॉरपोरेट हाउस की चर्चित और अपेक्षित फिल्म रिलीज हो रही हो, तो पहले से चल रही फिल्मों के शोज आगे-पीछे कर दिए जाते हैं। कई बार उन्हें उतार भी दिया जाता है, ताकि नई फिल्म को ज्यादा से ज्यादा शो मिल सकें। सिंपल लॉजिक है कि अगर नई फिल्म अस्सी प्रतिशत बिजनेस दे सकती है, तो क्यों पहले से चल रही फिल्म के 30-35 प्रतिशत के बिजनेस से संतुष्ट हुआ जाए। एक व्यापारी के लिए यह फैसला फायदेमंद है, लेकिन छोटे निर्माताओं को दर्शकों का नुकसान होता है। एक इंटरव्यू के दौरान गोविंद निहलानी ने बताया था कि उनकी फिल्म द्रोहकाल मुंबई के मेट्रो थिएटर से एक हफ्ते के बाद उतार दी गई थी, जबकि उसे दर्शक मिल रहे थे। वास्तव में अगले हफ्ते एक बड़ी कॉमर्शियल मसाला फिल्म रिलीज हो रही थी, इसलिए वितरक और प्रदर्शक ने द्रोहकाल को उतारने में जरा भी देर नहीं की। मल्टीप्लेक्स थिएटरों के दौर में ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन चलता रहता है, लेकिन शोज की टाइमिंग ऐसी कर दी जाती है कि कई बार चाह कर भी दर्शक फिल्म नहीं देख पाते। इस समस्या पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि छोटी फिल्मों के प्रदर्शन को कैसे नियमित किया जा सके? कैसे उनके शोज प्राइम टाइम पर एडजस्ट किए जा सकें?

मनोरंजन उद्योग में कोटा सिस्टम या रिजर्वेशन लागू नहीं किया जा सकता। फिल्में दर्शक अपनी पसंद से देखते हैं। साल में बन रही 100 से अधिक हिंदी फिल्मों में से 5-6 ही हिट हो पाती हैं। बाकी फिल्में अब तो वीकएंड के तीन दिनों में ही थिएटर से बाहर निकल जाती हैं। इस माहौल में कई बार छोटी और क्षेत्रीय फिल्मों को भी नुकसान उठाना पड़ता है। अगर मुंबई के मल्टीप्लेक्स थिएटरों में मराठी फिल्मों के शोज प्राइम पर सुनिश्चित किए जाएं, तो निश्चित ही मराठी फिल्मों के दर्शक बढ़ेंगे। भोजपुरी फिल्मों के निर्माताओं और कलाकारों को शिकायत है कि मल्टीप्लेक्स थिएटर भोजपुरी फिल्में प्रदर्शित नहीं करते। उन्हें ये फिल्में डाउन मार्केट लगती है और उनकी धारणा है कि मल्टीप्लेक्स के दर्शक भोजपुरी फिल्में नहीं देखते। यह मुंबई और दिल्ली में एक हद तक सच हो सकता है, लेकिन हिंदी प्रदेशों में बने मल्टीप्लेक्स थिएटर भी इसी पूर्वाग्रह के शिकार हैं। दरअसल, मल्टीप्लेक्स थिएटर की नेशनल चेन हैं। उनकी फिल्मों के चयन और प्रदर्शन के फैसले मुंबई या दिल्ली में बैठ कर लिए जाते हैं। उन्हें स्थानीय दर्शकों की पसंद की जानकारी नहीं रहती

Comments

Anonymous said…
bahut hi sajakta se vicharo ko prastut kiya gaya hai....realy nic sir....
hapy n feelng proud 2 b ur studnt...
Anonymous said…
bahut hi sajakta se vicharo ko prastut kiya gaya hai....realy nic sir....
hapy n feelng proud 2 b ur studnt...
chavannichap said…
@annonymous
naam aur pata to batao bhai???
फिल्म लगेगी तो लोग देखने भी आयेंगे ।

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