फिल्‍म समीक्षा : खेलें हम जी जान से

इतिहास का रोचक और जरूरी पाठ-अजय ब्रह्मात्‍मज

आजादी की लड़ाई के अनेक शहीद गुमनाम रहे। उनमें से एक चिटगांव विद्रोह के सूर्य सेन हैं। आशुतोष गोवारीकर ने मानिनी चटर्जी की पुस्तक डू एंड डाय के आधार पर उनके जीवन प्रसंगों क ो पिरोकर सूर्य सेन की गतिविधियों का कथात्मक चित्रण किया है। स्वतंत्रता संग्राम के इस अध्याय को हम ने पढ़ा ही नहीं है, इसलिए किरदार, घटनाएं और प्रसंग नए हैं। खेलें हम जी जान से जैसी फिल्मों से दर्शकों की सहभागिता एकबारगी नहीं बनती, क्योंकि सारे किरदार अपरिचित होते हैं। उनके पारस्परिक संबंधों के बारे में हम नहीं जानते। हमें यह भी नहीं मालूम रहता है कि उनका चारीत्रिक विकास किस रूप में होगा। हिंदी फिल्मों का आम दर्शक ऐसी फिल्मों के प्रति सहज नहीं रहता। खेलें हम जी जान से 1930 में सूर्य सेन के चिटगांव विद्रोह की कहानी है। उन्होंने अपने पांच साथियों और दर्जनों बच्चों के साथ इस विद्रोह की अगुवाई की थी। गांधी जी के शांति के आह्वान के एक साल पूरा होने के बाद उन्होंने हिंसात्मक क्रांति का सूत्रपात किया था। सुनियोजित योजना से अपने सीमित साधनों में ही चिटगांव में अंग्रेजों की व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया था। इस विद्रोह में किशोरों के साथ महिलाओं ने भी हिस्सा लिया था। चिटगांव विद्रोह सूर्य सेन और उनके साथियों की सूझ-बूझ, साहस और स्वतंत्रता की अभिलाषा का प्रतीक है। राष्ट्रीय भावना की लहर में पढ़ने-लिखने की उम्र के किशोरों ने प्राणोत्सर्ग किया था। खेलें हम जी जान से इतिहास का रोचक और जरूरी पाठ है।

आशुतोष गोवारीकर सूर्य सेन और उनके साथियों के चिटगांव विद्रोह की सही झलक देते हैं। कला निर्देशक नितिन चंद्रकांत देसाई और कॉस्ट्यूम डिजायनर न ीता लुल्ला से उन्हें अपेक्षित सहयोग मिला है। फिल्म का परिवेश वास्तविक लगता है। पीरियड गढ़ने में आशुतोष गोवारीकर सफल रहे हैं। अस्सी साल पहले के उस परिवेश भी भाषा तय करने में उनसे थोड़ी चूक हुई है। संवादों की भाषायी विविधता अखरती है और कलाकारों द्वारा शब्दों का गलत उच्चारण कानों में चुभता है। हिंदी से अपरिचित या अल्प परिचित दर्शकों का ध्यान इस पर न जाए, लेकिन हिंदी दर्शक को कलाकारों की यह लापरवाही बुरी लगती है। खास कर दीपिका पादुकोण को इस तरफ अतिरिक्त ध्यान देना चाहिए। वह खतरा बोलती हैं तो कतरा सुनाई पड़ता है।

खेलें हम जी जान से में सिकंदर खेर अपनी सहजता से चकित करते हैं। फिल्म में उनकी आंखें लगातार बोलती रहती हैं। सूर्य सेन के सहयोगी बने अभिनेताओं ने अपनी भूमिकाओं को सही ढंग से निभाया है। किशोर अभिनेता नैचुरल और प्रिय लगते हैं। अपनी मासूमियत और जोश से वे किरदार और कलाकार दोनों रूपों में प्रभावित करते हैं। दीपिका पादुकोण और विषाखा सिंह सामान्य हैं। अभिषेक बच्चन ने अभिनय में संयम और सूक्ष्मता का परिचय दिया है। कुछ दृश्यों में उनमें अमिताभ बच्चन के उबलते गुस्से की अभिव्यक्ति की झलक मिलती है। यह नकल नहीं, निखार है। आशुतोष गोवारीकर ने अपने अभिनेताओं को अधिक नाटकीय नहीं होने दिया है।

फिल्म के गीत भाव और अर्थ से पूर्ण हैं, लेकिन वे फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं। ऐसी फिल्म में गीत-संगीत के उपयोग में सावधानी आवश्यक है। लगातार सुने जाने के बावजूद वंदे मातरम का उदगार हमारी चेतना को झंकृत करता है। आशुतोष गोवारीकर ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के एक अनपढ़े अध्याय को पर्दे पर उतारने की कोशिश की है। खेलें हम जी जान से चालू मनोरंजन की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

**** चार स्टार


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