हमारा काम सिर्फ मनोरंजन करना है: विक्रम भट्ट

हमारा काम सिर्फ मनोरंजन करना है: विक्रम भट्ट-अजय ब्रह्मात्‍मज

आपका जन्म मुंबई का है। फिल्मों से जुडाव कैसे और कब हुआ?

मेरे दादाजी का नाम था विजय भट्ट। वे प्रसिद्ध प्रोडयूसर-डायरेक्टर रहे हैं। हिमालय की गोद में, गूंज उठी शहनाई, हरियाली और रास्ता बैजू बावरा जैसी बडी पिक्चरें बनाई। मेरे पिता प्रवीण भट्ट कैमरामैन थे। मैं डेढ साल की उम्र से ही फिल्म के सेट पर जा रहा था। अंकल अरुण भट्ट डायरेक्टर व स्टोरी राइटर थे, पापा कैमरामैन थे तो दादा डायरेक्टर। घर में दिन-रात फिल्मों की चर्चा होती थी। बचपन से फिल्म इन्फॉर्मेशन और ट्रेड गाइड पत्रिकाएं देखता आ रहा हूं घर में। ऐसे माहौल में फिल्मों से इतर कुछ और सोचने की गुंजाइश थी ही कहां। हालांकि मेरे चचेरे भाई फिल्मों से नहीं जुडे। मुझे शुरू से यह शौक रहा। कहानियां सुनाने का शौक मुझे बहुत था।

सुना है कि कॉलेज के दिनों में आपने और बॉबी देओल ने मिलकर फिल्म बनाई थी?

तब केवल सोलह की उम्र थी मेरी। मैंने निर्देशन दिया और बॉबी ने एक्ट किया।

कब फैसला किया कि डायरेक्टर ही बनना है, एक्टर नहीं?

सात साल का था, तभी फैसला कर लिया था कि डायरेक्टर ही बनूंगा। इतनी कम उम्र में करियर का फैसला कम ही लोग करते हैं शायद। तभी से डायरेक्टर बनने की धुन सवार हो गई थी।

क्या वजह हो सकती है इसकी?

पता नहीं, ठीक-ठीक बताना मुश्किल होगा। मुझे कहानी सुनाने में आनंद मिलता है। मैं डायरेक्टर बना कहानियां सुनाने के लिए.. अलग-अलग कहानियां। लेकिन फिर इस फिल्मी सफर में मैं कहीं खो गया। कहानियां बताना ही बंद कर दिया मैंने, जबकि डायरेक्टर का पहला काम कहानी सुनाना ही है। अब यह काम मैं फिर से कर रहा हूं। मुझे स्कूल के दिनों में काफी सजा मिलती थी। उनसे बचने के लिए कहानियां गढता था।

कैसे स्टूडेंट थे आप?

सामान्य स्टूडेंट था। कोई कमाल का स्टूडेंट नहीं था। लगता था कि नंबर पाने के लिए क्यों पढाई करो। उतना ही पढो कि अगली क्लास में चले जाओ और टीचर और पेरेंट्स से डांट न सुननी पडे। सच कहूं तो पढाई से ज्यादा मेरा मन किस्से-कहानियों में लगता था।

किस्से सुनाना, झूठ बोलना, ये-वो कुछ भी गढना..?

किस्से नहीं, कहानियां सुनाना। संयोग ऐसा था कि मेरे सभी दोस्त सुनते थे। सभी को लगता था कि विक्रम राइटर बनेगा। उसका मन इसी में लगता है। लेकिन सीरियस लिटरेचर की तरफ मेरा ध्यान नहीं था। गुजराती होने के कारण सामान्य साहित्यिक संस्कार जरूर मिले थे।

सेल्यूलाइड पर कहानी लिखना ही फिल्म है। कई मायने में उससे जटिल और बडा काम है। अन्य विधाएं भी जुडती हैं। ट्रेनिंग कैसे की आपने?

सबसे पहले मैं जुडा मुकुल आनंद साहब से, उनका असिस्टेंट बना, तब सिर्फ चौदह साल का था। वे कानून क्या करे बना रहे थे। वह उनकी भी पहली फिल्म थी। उनके साथ मैं छह-सात साल रहा। पढाई भी साथ में चल रही थी। अग्निपथ में मैं उनका चीफ असिस्टेंट था। अग्निपथ के बाद मैंने उन्हें छोड दिया। फिर मैंने शेखर कपूर के साथ काम किया।

कौन सा प्रोजेक्ट था वह?

उनके तीन प्रोजेक्ट थे तब, जो बदकिस्मती से नहीं बन सके। सनी देओल और जैकी श्राफ के साथ हम दुश्मनी कर रहे थे। टाइम मशीन पर भी काम चल रहा था, जो बीच में ही बंद हो गई। बॉबी देओल की फिल्म बरसात थी। बरसात बाद में राजकुमार संतोषी ने पूरी की। फिर दो सालों तक उनके साथ कुछ न कुछ करता रहा। उसके बाद महेश भट्ट साहब के साथ रहा दो साल। उनसे फिल्म के इमोशन की बारीकियां सीखीं। कुल मिला कर मैं तकरीबन ग्यारह सालों तक असिस्टेंट रहा। उसके बाद मुकेश जी ने ब्रेक दिया जानम में। जानम के बाद मदहोश, गुनहगार और बंबई का बाबू आई। किस्मत ऐसी थी कि मेरी चारों फिल्में फ्लॉप हो गई। काम मिलना ही बंद हो गया। मुकेश जी ने एक दिन वापस बुलाया। हिम्मत बंधाई और एक किस्म से मुझे नया जन्म दिया। मैंने फरेब बनाई। उसके बाद अच्छा दौर चला। गुलाम, कसूर, राज और आवारा पागल दीवाना में कामयाबी मिली। उसके बाद फिर एक डरावना दौर भी आया, जब पांच-छह पिक्चरें नहीं चलीं।

भट्ट साहब के साथ किन फिल्मों में आप उनके असिस्टेंट थे?

हम हैं राही प्यार के और जुनून। दोनों ही फिल्मों का अनुभव अच्छा रहा।

मैंने सुना था कि आमिर खान ने आपको गुलाम फिल्म दिलवाई थी। उस समय भट्ट साहब से निर्देशन के मसले पर उनका झगडा हुआ था?

नहीं, गुलाम मुझे भट्ट साहब ने ही दिलवाई। आमिर खान के साथ उनका झगडा कभी नहीं हुआ था। आमिर ने उन्हें कहा कि आप फिल्म को पूरा समय दें। और भट्ट साहब का जवाब था कि गुलाम मेरी जिंदगी की अहम पिक्चर नहीं है। फिर उन्होंने कहा कि हमारी कंपनी में दो डायरेक्टर हैं। एक विक्रम भट्ट और दूसरी तनूजा चंद्रा। आप दोनों में से किसके साथ काम करना चाहते हैं? चूंकि आमिर ने मेरे साथ पहले हम हैं राही प्यार के में काम किया था और मैंने मदहोश बनाई थी उनके भाई फैजल खान के साथ, तो वे मुझे अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने कहा कि मैं विक्रम भट्ट के साथ काम करूंगा। गुलाम मुझे मिल गई।

आपके गुरु मुकुल आनंद, शेखर कपूर और महेश भट्ट हुए। तीनों अलग-अलग किस्म के फिल्ममेकर हैं। तीनों की विशेषताएं आपमें आई हैं या आप अलग लीक पर भी चले?

मुकुल आनंद से मैंने टेक्निकल चीजें सीखीं। कैमरा प्लेसिंग, लाइटिंग, ब्लॉक वगैरह..। लेकिन कहानी बनाना मैंने शेखर कपूर के साथ सीखना शुरू किया। महेश भट्ट जी ने मुझे और सिखाया, उनका प्रभाव मुझ पर सबसे ज्यादा है। कुछ लोग मुझे उनका विस्तार मानते हैं।

मेरा सीधा सवाल है कि और कौन-कौन से डायरेक्टर हैं, जिनसे आप प्रभावित रहे? इन तीनों के अलावा भी तो कुछ लोग होंगे?

बात हो रही थी किसी से। उन्होंने पूछा कि आप के फेवरिट डायरेक्टर कौन हैं? मेरा जवाब था, कोई नहीं। हर डायरेक्टर की ही कुछ फिल्में हैं, जो मुझे अच्छी लगती हैं। मुझे लगता है कि हर डायरेक्टर कुछ अच्छा काम करता है तो कुछ बुरा करता है। कपोला की गॉडफादर और ड्रैकुला मुझे पसंद हैं। लेकिन उनकी वन फ्रॉम द हार्ट पसंद नहीं है। भट्ट साहब की सारांश, अर्थ, काश, जख्म, तमन्ना, हम हैं राही प्यार के जैसी फिल्में पसंद हैं, कुछ फिल्में पसंद नहीं हैं। डेविड धवन की शोला और शबनम, कुली नंबर वन, बीवी नंबर वन अच्छी लगी। लेकिन कुछ फिल्में अच्छी नहीं लगीं। जब कोई अच्छा काम देखता हूं तो महसूस होता है कि मैं कितना पीछे रह गया। जे.पी. दत्ता की बॉर्डर देखता हूं तो लगता है कि क्या सचमुच कोई इतनी मेहनत कर सकता है? रामगोपाल वर्मा की सरकार देखता हूं। इतनी नई टेक्नीक के साथ, ऐसी नई फोटोग्राफी के साथ वे फिल्म लेकर आए कि मुझे ईष्र्या होती है। ऐसे लोग मुझे प्रेरित करते हैं।

आपकी ट्रेनिंग फिल्म के सेट पर हुई। क्या कभी इंस्टीटयूट जाने या ट्रेनिंग करने का खयाल नहीं आया? चौदह साल की उम्र में ही आपको मौका मिल गया। अगर कोई बाहर से आना चाह रहा हो तो वह क्या करे?

मुझे लगता है कि यहीं सीखना बेहतर है। कहते हैं, यहां सेटअप बनाना जरूरी है। फिल्म टेक्नीक तो आदमी सीख जाता है। उससे इंडस्ट्री नहीं चलती। इंडस्ट्री के उतार-चढाव कैसे हैं? लोग कैसे हैं? उनसे कैसे बर्ताव होना चाहिए या करना चाहिए? कैसे उठना-बैठना चाहिए? यह सब भी सीखना बहुत जरूरी है।

मैं कहूं कि यहां काम करने से ज्यादा आपको काम निकालना आना चाहिए?

बिलकुल। काम निकालना आता है तो आप काम कर सकते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ही नहीं, हर बिजनेस में यह जरूरी है। जब तक आप फिल्म न बना लें, डायरेक्टर नहीं बन सकते। थ्योरी जान लेने से क्या होता है?

पहली फिल्म जानम का सेटअप कैसे तैयार हुआ? याद करके बताएं?

पूजा बचपन की दोस्त हैं। मेरे डैडी ने हमेशा महेश भट्ट साहब की पिक्चरें की हैं। राहुल भी दोस्त था। सेटअप बन गया। फिर मदहोश के लिए ताहिर साहब ने मुझे बुलाया। मैं हम हैं राही प्यार के पर काम कर रहा था। उन्हें लगा कि मैं डायरेक्टर बन सकता हूं। आमिर ने भी ग्रीन सिग्नल दिया तो काम मिल गया।

जानम के लिए पहले दिन एक्शन बोला तो मन में क्या चल रहा था?

वास्तव में उसके पहले मैंने भट्ट साहब के लिए काफी शूटिंग की थी। वे सीन देकर जाते थे। गाना हो या एक्शन, भट्ट साहब व्यस्त होते तो मुझसे ही करने को कहते। इस तरह थोडा-बहुत हाथ साफ करने का मौका मिला। जानम की बात करूं तो वर्ली में सत्यम थिएटर हुआ करता था। उसकी कार पार्किग में पहले दिन की मेरी शूटिंग थी। जिंदगी का पहला दिन। पूजा और राहुल रॉय थे उसमें। कार पार्क में एक सीन शूट किया हम लोगों ने। अच्छी तरह याद है। अब सोचता हूं कि कितना बुरा काम किया था हमने।

रिग्रेट फील करते हैं?

कई रिग्रेट हैं, हर रोज ही कुछ न कुछ रिग्रेट करता हूं। लेकिन इंडस्ट्री में आना रिग्रेट नहीं करता। मैंने कई गलतियां की हैं। खुशनसीब हूं कि इसके बावजूद यहां हूं। मुमकिन है कि यहां कोई मुझे पसंद करता है और मेरे लिए फिल्मों का इंतजाम कर देता है। काम मिल ही जाता है।

जो नए लडके आ रहे हैं, उनके लिए क्या कहेंगे आप? अगर उन्हें डायरेक्टर बनना हो तो?

यही कहूंगा कि हर फिल्म ऐसे बनाओ, जैसे पहली फिल्म बना रहे हो। मार्केट के प्रेशर से कभी मत डरो। जो फिल्म बनानी है वही बनाओ। क्योंकि यहां किसी को भी कुछ नहीं मालूम। जो पंडित या समीक्षक हैं, उन्हें भी कुछ नहीं मालूम है। इसलिए अपने दिल की और अपने सोच की पिक्चर बनाओ।

लेकिन ब्रेक कैसे मिले? पहली फिल्म किए बगैर आपको कोई दूसरी फिल्म नहीं देगा?

मैं यह मानता हूं कि हर डायरेक्टर एक नया एंगल लेकर आता है लाइफ का। उसके अनुभव व सोच अलग होते हैं। अब सोचिए कि इंडस्ट्री क्या करती है? हर नई सोच को हमारी यह फिल्म इंडस्ट्री अपने हिसाब से ढालने की कोशिश करती है। ऐसे में नया तो बचता ही नहीं। नए आदमी को नया काम करने दो, तभी तो बात बनेगी।

अगर मैं पूछूं कि आपने या आपकी पीढी ने हिंदी सिनेमा में क्या कंट्रीब्यूट किया तो क्या कहेंगे?

मुझे लगता है कि मेरे सारे कलीग्स ने बहुत अच्छा काम किया है। खासतौर पर आदित्य चोपडा, करण जौहर, सूरज बडजात्या और राम गोपाल वर्मा ने, जो मेरे सीनियर हैं। संजय गुप्ता ने टेक्नीक में काफी अलग-अलग चीजें की हैं। मेरी पीढी ने जितने सुपर स्टार डायरेक्टर देखे हैं, शायद किसी और पीढी ने नहीं देखे होंगे।

फिर बार-बार ये क्यों कहा जाता है कि 50-60 का दौर था ?

ये सब कहने की बातें हैं। लोग हमेशा पुराने को याद करते हैं। मुझे भी बचपन की फिल्में अच्छी लगती हैं। मुझे भी अमित जी की फिल्में नमकहलाल, शोले, और दीवार बहुत अच्छी लगती हैं। मुझसे दस साल छोटे चचेरे भाई को अमर अकबर एंथोनी अच्छी लगती है। कहता है, ऐसी फिल्में क्यों नहीं आतीं अब? जबकि उसके लिए 50-60 का दौर एक इतिहास की तरह ही है। मुझे लगता है कि आदमी हमेशा अपनी जवानी की फिल्मों को याद रखता है। क्योंकि उनसे वह सर्वाधिक प्रेरित होता है। उनसे खुद को जोडता है। मुझे भी युवावस्था में देखी फिल्में अब तक याद हैं और मैं भी सोचता हूं कि अब ऐसी फिल्में क्यों नहीं बनतीं?

क्या शूटिंग करते समय आपको दर्शकों का खयाल रहता है?

ये तो सोचना ही होता है कि अमुक सीन करेंगे तो दर्शक हंसेंगे या ये करेंगे तो दर्शक पसंद नहीं करेंगे। दर्शकों के टेस्ट को तो दिमाग में रखना ही पडता है। एक फार्मूले में रहते हुए ही अलग काम कर सकते हैं। सबसे जरूरी है, दर्शकों का मनोरंजन हो।

शिक्षा या संदेश नहीं होना चाहिए?

शिक्षा और संदेश के लिए किताबें हैं और डिस्कवरी चैनल है। टिकट लेकर कोई पढने क्यों आएगा? मनोरंजन के साथ सबक या सोच मिल जाए तो यह अलग बात है। शायद हम भी यही कर रहे हैं। फिल्में किसी को उत्तेजित कर सकती हैं, उन्हें पल भर के लिए दुनियादारी से दूर कर सकती हैं। हम लोग विशुद्ध एंटरटेनर हैं, हमें मनोरंजन ही करना है, बस और कुछ नहीं।


Comments

वाह अजय भाई ,
विक्रम भट्ट के कई अनछुए पहलूओं को आपने पाठकों के सा्मने रख दिया । बढिया लगा पढ कर

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