दबंग के पक्ष में - विनोद अनुपम

सिने सवाद           दबंग के पक्ष में  विनोद अनुपम          भरा पूरा गाँव, ढ़ेर सारे बेतरतीब लोग, जिसमें कुछ को हम पहचान पाते हैं कुछ को नहीं। इनमें पाण्डेय भी हैं, सिंह भी, कुम्हार भी। सबों की अलग-अलग बनावट, अलग-अलग वेषभूषा, अलग-अलग स्वभाव। हद दर्जे का लालची भी, पियक्कड़ भी, मेहनती भी, आलसी भी, हिम्मती भी और डरपोक भी। यही विविध्ता पहचान है किसी हिन्दी समाज की, जो अपनी पूर्णता में प्रतिबिम्बित होता दिखता है 'दबंग' में। यही है जो 'दबंग' को एक विशिष्टता देती है, जिसमें हम अपने आस-पास को दख सकते हैं। ठीक 'शोले' की तरह, जहाँ नायक भले ही ठाकुर होता है, लेकिन गाँव को गाँव बनाने में 'मौसी' की भी उतनी ही भूमिका होती है जितना मौलबी साहब की। 'अनजाना अनजानी' और 'वी आर पफैमिली' के दौर में जब याद करने की कोशिश करते हैं कि पिछली बाद पर्दे पर अपना यह समाज हमने कब देखा था तो 'दबंग' की अहमियत का अहसास होता है। आश्चर्य नहीं कि छपरा, मुंगेर और बलिया जैसे शहरों में जहाँ कहा जाता था लोगों ने सिनेमा द्घर जाना छोड़ दिया है, वहाँ महीने भर तक टिकटों के लिए मारा-मारी होती रही थी। कहीं छुरे निकल रहे थे तो कहीं पुलिस लाठियां बरसा रही थी। १८०० प्रिंट के साथ रिलीज 'दबंग' की लोकप्रियता का यही कमाल था कि पहले ही दिन १७ करोड़ की कमाई कर इसने हिन्दी सिनेमा की कमाई के सारे रिकार्ड तोड़ डाले। यह लोकप्रियता सिर्पफ मार्केटिंग गिमिक्स पर आधरित नहीं थी। जैसे जैसे दिन बीतता गया दर्शकों की बढ़ती भीड़ के साथ यह भी स्पष्ट होता गया। शुक्रवार, शनिवार, रविवार मात्रा तीन दिनों में इसकी कुल कमाई थी लगभग ५० करोड़, अब तक की सबसे बड़ी हिट मानी जाने वाली 'थ्री इडियट्स' से लगभग १२ करोड़ ज्यादा। पिफल्म के टे्रड विश्लेषको के चौंकने की बारी तब थी जब पहले हफ्रते में कुल ८२ करोड़ की कमाई के बावजूद टिकट खिड़की पर दर्शकों की भीड़ कायम थी। जबकि 'लपफंगे परिंदे' और 'अंजाना अंजानी' जैसी बड़े बैनर की बड़े सितारों की पिफल्में पहले दिन भी दर्शकों को सिनेमा द्घरों में नहीं रोक पा रही थी।  क्या कमाल सलमान खान का था, यदि ऐसा होता तो 'युवराज' जैसी भव्य पिफल्म दर्शकों द्वारा नकार नहीं दी जाती। क्या 'मुन्नी' की नाच देखने लोग जा रहे थे, यदि ऐसा होता तो 'आक्रोश' भी हिट होती जहाँ लगभग इसी तरह के गानों को पिफल्माने की कोशिश की गई थी। नवोदित निर्देशक अभिनव सिंह कश्यप और देशी सी लगती नवोदित नायिका सोनाक्षी के नाम में भी दर्शकों को इस कदर खींचने की क्षमता कहा हो सकती थी। दबंग के प्रति दर्शकों के पागलपन की वजह एक ही लगती है वह है उसका लगता अपनापन। वह अपनापन जो हिन्दी सिनेमा से बीते दस व८र्ाों से पूरी तरह से लगभग गुम हो गया है। 'दबंग' की कहानी भी बहुत सीध्ी सी नहीं। ढ़ेर सारे पात्रा और ढ़ेर सारे पेंच है कहानी में, जैसा कि हमारे लोक कथाओं में होते रहे हैं। एक काम्पलेक्स सा परिवार, माँ नैना देवी, माँ का अपना बेटा चुलबुल पाण्डेय, माँ का दूसरा पति प्रजापति पाण्डेय और दोनों का बेटा मक्खी पाण्डेय। 'दबंग' में हालांकि इस पारिवारिक पृष्ठभूमि को जरा भी व्याख्यायित करने की कोशिश नहीं की जाती, लेकिन हिन्दी समाज के बदलते स्वरूप को जिस सहजता से स्थापित करती है वह चकित करता है, जो अपनी कटटर पारंपरिक स्वरूप के लिए कुख्यात रहा है। उस समाज में आज से बीस वर्ष पहले विध्वा विवाह ही नहीं हो रहे थे, उसके बच्चे को भी स्वीकार्य किया जा रहा था, और गाँव में इस विवाह, इस परिवार को प्रतिष्ठा भी मिल रही थी। यह है अपने समाज के बदलाव की पहचान जो निश्चित रूप से किसी चोपड़ा और किसी जौहर या मुम्बई में रमे किसी पिफल्मकार को नहीं मिल सकती। इसके लिए आपको अभिनव सिंह कश्यप या विशाल भारद्वाज या प्रकाश झा होना जरूरी हो जाता है।  चुलबुल पाण्डेय पढ़-लिख कर इंस्पेक्टर बन जाता है लेकिन अपने सौतेले पिता को स्वीकार्य करना उसके लिए मुश्किल रहता है। भाई मक्खी के साथ उसका प्रेम और द्घृणा का रिश्ता बना रहता है। चुलबुल अपने आपको रॉबिन हुड पाण्डेय कहता है। जुझारू इंस्पेक्टर लेकिन नैतिकता से कोई सरोकार नहीं। अपनी दिल की बात सुनता है वह। उसका सामना होता है गाँव की कुम्हारन रज्जो से, और मजबूत कद काठी की हिम्मती लड़की को वह दिल दे बैठता है। रज्जो की अपनी समस्या है उसके पिता पियक्कड़ हैं और दारू के लालच में वह कुछ भी करने को तैयार होता है। रज्जो की जिद है कि जब तक उसके पिता जीवित है वह शादी नहीं कर सकती, क्योंकि उसके पिता की देखभाल कौन करेगा। कहानी की एक पराकाष्ठा यहा भी दिखती है जब चुलबुल से शादी की उम्मीद में रज्जो के पिता अपने आप को अड़चन समझ कर नदी में डूब कर आत्महत्या कर लेते हैं।  'दबंग' में अध्किांश चरित्रा ग्रे शेड में हैं, जैसा की हम होते हैं। किसी पल कोई महानता के शिखर पर होता है तो दूसरे ही पल मानवीय कमजोरियों में डगमग दिखता है। मक्खी निर्मला से प्यार करता है। निर्मला मास्टर के बेटी है, वह मक्खी से शादी की शर्त रखता है, लाख रुपये। मक्खी के पिता प्रजापति पाण्डेय अपनी छोटी सी पैफक्ट्री चलाते हैं वह मक्खी की शादी पर कोई पैसे खर्च करना नहीं चाहते।  इध्र चुलबुल पाण्डेय का सामना छेदी सिंह से हो जाता है, जो एक क्षेत्रिाय पार्टी के छात्रा संध् का अध्यक्ष है। लेकिन राजनीति के नाम पर सारे कुकृत्य करने को तैयार। चुलबुल छेदी के पर कतरने के लिए पार्टी के नेता दयाल बाबू से संपर्क करता है। लेकिन छेदी मक्खी के हाथों बम विस्पफोट करवा कर दयाल बाबू की हत्या करवा देता है। इतना ही नहीं छेदी चुलबुल की मां की हत्या ही नहीं करता उसके पिता के पैफक्ट्री में भी आग लगवा देता है।  कई सारे छोटे-छोटे क्लाइमेक्सों के साथ अंत में कहानी राजी खुशी खत्म होती है। जब चुलबुल और मक्खी दोनों भाई मिल जाते हैं। दोनों को अपनी अपनी प्रेमिकाएँ मिल जाती हैं और जिस पिता से चुलबुल ने जिंदगी भर द्घृणा की उनका प्यार भी उन्हें हासिल हो जाता है। कहानी को इतने विस्तार से बयान करने का अर्थ सिर्पफ इतना भर है कि ये कथा वाचन हिन्दी समाज की परंपरा है। आज अध्किांश पिफल्में 'दे दना-दन' और 'वेलकम' जैसे कॉमेडी की बात छोड़ भी दें तो 'अनजाना अनजानी' और 'वी आर पैफमिली' जैसी पिफल्मों में कहानी के सूत्रा शुरू होते ही समाप्त हो जाते हैं। अध्किांश पिफल्में सिपर्फ दृष्यों का संयोजन होती हैं, अनजाना अनजानी जैसी पिफल्मों की कहानी आप एक पंक्ति में बयान कर दे सकते हैं। न किसी चरित्रा का विस्तार आप देख सकते हैं, न उसके अंतःकरण में झाँकने का अवसर पा सकते हैं। देख सकते हैं तो बस उसके डिजायनर कपड़े, डिजायनर एक्ससेरीज, मेकअप यशपाल की 'दुःख' कहानी को याद करें तो इनके दुख भी इनके खुद के ढोए हुए लगते हैं, जिनके प्रति आप लाख कोशिश करले कतई सहानुभूति नहीं कर सकते। वहाँ कोई समाज नहीं दिखता जिसे आप पहचान सकते, दिखते हैं अमेरिका की सड़कें, बैंकाक की रंगीनियाँ जहाँ आप एकदम अजनबी हो जाते हैं। 'दबंग' में जिन चेहरों को आप नहीं पहचान पाते, वे भी आप को अपने जैसे लगते हैं क्योंकि वे सब मिलकर एक समाज बनाते लगते हैं।  'दबंग' की लोकप्रियता की वजह इसके भदेसपन, इसकी 'मुन्नीबाई' में, इसके सलमान में, ढूँढ़े जाने के पहले इसके कथानक और इसकी प्रस्तुति में ढूँढ़ी जानी चाहिए। संयोग नहीं कि अभिनव सिंह कश्यप और लेखक दिलीप शुक्ला दोनो ही उत्तर प्रदेश से आते हैं जो अपने चरित्राों के साथ जिते रहे हैं। इसी लिए 'दबंग' के चरित्रा लार्जर देन लाइपफ होते हुए भी अपरिचित नहीं लगते। चाहे वह हवाओं में उड़कर मार करने वाला चुलबुल पाण्डेय हो या खुबसूरत कुम्हारन रज्जो। सभी पात्राों के बेहद करीब ले जाते हैं अभिनव। इतना कि आल्हा के सूर में 'हुड़ हुड़ दबंग दबंग' की गुंज के साथ जब चुलबुल की बांहे पफड़कती हैं तो सिनेमा द्घरों में बैठे दर्शकों के भी सीने चौड़े हो जाते है। अपने पात्राों से यह निकटता वह भी महसूस करते हैं जिन्होने वर्षों पहले अपनी माटी को छोड़कर रोजी रोटी के लिए महानगर को आशियाना बनाया और वे भी करते हैं जो अपनी माटी को अभी भी सींच रहे है। शायद इसीलिए दबंग जिस तरह छोटे शहरों के सिंगल थियेटरों में पसंद की गई, उतना ही महानगरों के मल्टीप्लेक्सों में भी। वास्तव में लम्बे अर्से के बाद कोई ऐसी हिन्दी पिफल्म उनके सामने आयी थी जिसमें उनके वजूद पर सवाल नहीं उठाया गया था। 'ओमकारा' हो या 'अपहरण', 'गंगाजल' अपने पर ही शर्म करने को मजबूर करते थे। खुद को सवालों के द्घेरे में खड़ा करते थे। ये पिफल्में अपने 'होने' के प्रति उत्साहित नहीं करती थी। 'दबंग' में भी हिंसा है, यहा भी नकारात्मकता है, राजनीतिक गड़बड़ियाँ यहाँ भी दिखती है, लेकिन यह सब समाज के एक अंश के रूप में दिखता है, जो आश्वस्त करती है कि हम इससे निबट सकते हैं। 'अपहरण' या 'ओमकारा' यह विश्वास दिलाने में सक्षम नहीं होती, इन पिफल्मों को देखते हुए हिन्दी समाज अपराध् का पर्याय लगने लगती है। 'दबंग' को शायद इसीलिए सर आँखों पर स्वीकार्य करते हैं। निश्चित रूप से 'दबंग' कोई क्लासिक पिफल्म नहीं है, क्लासिक 'शोले' भी नहीं थी लेकिन समय ने उसे क्लासिक का दर्जा दिलाया, हो सकता है २५ वर्ष बाद शायद 'दबंग' को भी एक क्लासिक के रूप में याद किया जाय। लेकिन आज यह क्लासिक होने का दावा करते भी नहीं लगती। पिफल्म के संवादों में भदेस शब्दों की भरमार है, वस्त्रा विन्यास में बिहार उत्तरप्रदेश की स्थानियता का खास ध्यान रखा गया है। अभिनय अतिरंजित है किसी ग्रामीण रंगमंच जैसा। यहाँ तक की चुलबुल पाण्डेय के गले में पड़ी माला भी कापफी जानी पहचानी लगती है। िपफल्म की पूरी शूटिंग महाराष्ट्र के वई में की गई, जहां प्रकाश झा भी अपना बिहार सृजित करते है। जाहिर है अभिनव को भी अपना लालगंज सृजित करने में कोई असुविध नहीं होती। वास्तव में हिन्दी सिनेमा ने जिस तरह हमारे सौंदर्यबोध् को तथाकथित रूप से लगातार कोशिश करते हुए हमें अपने ही समाज से अपरिचित करने की कोशिश की है उसमें 'दबंग' को मुखरता से स्वीकार्य करना मुश्किल होता है। लेकिन सच यह भी है कि अपनी सच्चाई, अपनी सहजता, अपनी माटी से मुकरना भी हमारे लिए मुश्किल होता है। इसीलिए 'दबंग' हमें चाहे अनचाहे भी आकर्षित करती है। इसलिए भी की भोजपुरी पिफल्मों की तरह भी अभिनव हिन्दी का स्वभाविक वातावरण रचते हुए भी तकनीकी कुशलता से कहीं समझौता नहीं करते। 'दबंग' में जितनी ही कुशल सिनेमेटोग्रापफी दिखती है उतना ही तीक्ष्ण संपादन, जो कहीं पर भी दर्शकों को 'लालगंज' से निकलने का अवसर नहीं देती। आश्चर्य नहीं कि दबंग हमें सिनेमायी संतुष्टि भी देती है। 'दबंग' की सपफलता वास्तव में हिन्दी सिनेमा में हिन्दी की जीत है। हिन्दी के स्वभाविक सिनेमा की जीत है। जिसमें जीवन के सारे सुर एक साथ मिलते हैं, इमोशन भी, हिंसा भी, परिवार भी, प्रेम भी, द्घृणा भी। लेकिन सारी जद्दोजहद के बीच जीत सच की। वास्तव में हिन्दी सिनेमा में यह सीध्ी सी बात देखने के लिए आँखें तरस गयी थीं। 'दबंग' हिन्दी सिनेमा को एक बार पिफर अपने पुराने व्याकरण की ओर लौटने को प्रेरित कर सकती है, बशर्ते 'दबंग' की सपफलता को संयोग नहीं माने हिन्दी सिनेमा।  ;लेखक पिफल्म समीक्षा के लिए राष्ट्रीय पिफल्म पुरस्कार से सम्मानित हैंद्ध ५३, सचिवालय कॉलोनी, कंकड़बाग, पटना-२०,  मो. ९३३४४०६४४२नेशनल फिल्‍म अवार्ड मिलने के बाद से निरंतर 'दबंग' की चर्चा चल रही है। ज्‍यादातर लोग 'दंबग' को पुरस्‍कार मिलने से दंग हैं। विनोद अनुपम ने 'दबंग' के बारे में यह लेख फिल्‍म की रिलीज के समय ही लिखा था। उसकी प्रासंगिकता देखते हुए हम उसे यहां पोस्‍ट कर रहे हैं...

भरा पूरा गाँव, ढ़ेर सारे बेतरतीब लोग, जिसमें कुछ को हम पहचान पाते हैं कुछ को नहीं। इनमें पाण्डेय भी हैं, सिंह भी, कुम्हार भी। सबों की अलग-अलग बनावट, अलग-अलग वेषभूषा, अलग-अलग स्वभाव। हद दर्जे का लालची भी, पियक्कड़ भी, मेहनती भी, आलसी भी, हिम्मती भी और डरपोक भी। यही विविध्ता पहचान है किसी हिन्दी समाज की, जो अपनी पूर्णता में प्रतिबिम्बित होता दिखता है 'दबंग' में। यही है जो 'दबंग' को एक विशिष्टता देती है, जिसमें हम अपने आस-पास को दख सकते हैं। ठीक 'शोले' की तरह, जहाँ नायक भले ही ठाकुर होता है, लेकिन गाँव को गाँव बनाने में 'मौसी' की भी उतनी ही भूमिका होती है जितना मौलबी साहब की। 'अनजाना अनजानी' और 'वी आर पफैमिली' के दौर में जब याद करने की कोशिश करते हैं कि पिछली बाद पर्दे पर अपना यह समाज हमने कब देखा था तो 'दबंग' की अहमियत का अहसास होता है।
आश्चर्य नहीं कि छपरा, मुंगेर और बलिया जैसे शहरों में जहाँ कहा जाता था लोगों ने सिनेमा द्घर जाना छोड़ दिया है, वहाँ महीने भर तक टिकटों के लिए मारा-मारी होती रही थी। कहीं छुरे निकल रहे थे तो कहीं पुलिस लाठियां बरसा रही थी। १८०० प्रिंट के साथ रिलीज 'दबंग' की लोकप्रियता का यही कमाल था कि पहले ही दिन १७ करोड़ की कमाई कर इसने हिन्दी सिनेमा की कमाई के सारे रिकार्ड तोड़ डाले। यह लोकप्रियता सिर्पफ मार्केटिंग गिमिक्स पर आधरित नहीं थी। जैसे जैसे दिन बीतता गया दर्शकों की बढ़ती भीड़ के साथ यह भी स्पष्ट होता गया। शुक्रवार, शनिवार, रविवार मात्रा तीन दिनों में इसकी कुल कमाई थी लगभग ५० करोड़, अब तक की सबसे बड़ी हिट मानी जाने वाली 'थ्री इडियट्स' से लगभग १२ करोड़ ज्यादा। पिफल्म के टे्रड विश्लेषको के चौंकने की बारी तब थी जब पहले हफ्रते में कुल ८२ करोड़ की कमाई के बावजूद टिकट खिड़की पर दर्शकों की भीड़ कायम थी। जबकि 'लपफंगे परिंदे' और 'अंजाना अंजानी' जैसी बड़े बैनर की बड़े सितारों की पिफल्में पहले दिन भी दर्शकों को सिनेमा द्घरों में नहीं रोक पा रही थी।
क्या कमाल सलमान खान का था, यदि ऐसा होता तो 'युवराज' जैसी भव्य पिफल्म दर्शकों द्वारा नकार नहीं दी जाती। क्या 'मुन्नी' की नाच देखने लोग जा रहे थे, यदि ऐसा होता तो 'आक्रोश' भी हिट होती जहाँ लगभग इसी तरह के गानों को पिफल्माने की कोशिश की गई थी। नवोदित निर्देशक अभिनव सिंह कश्यप और देशी सी लगती नवोदित नायिका सोनाक्षी के नाम में भी दर्शकों को इस कदर खींचने की क्षमता कहा हो सकती थी। दबंग के प्रति दर्शकों के पागलपन की वजह एक ही लगती है वह है उसका लगता अपनापन। वह अपनापन जो हिन्दी सिनेमा से बीते दस व८र्ाों से पूरी तरह से लगभग गुम हो गया है।
'दबंग' की कहानी भी बहुत सीध्ी सी नहीं। ढ़ेर सारे पात्रा और ढ़ेर सारे पेंच है कहानी में, जैसा कि हमारे लोक कथाओं में होते रहे हैं। एक काम्पलेक्स सा परिवार, माँ नैना देवी, माँ का अपना बेटा चुलबुल पाण्डेय, माँ का दूसरा पति प्रजापति पाण्डेय और दोनों का बेटा मक्खी पाण्डेय। 'दबंग' में हालांकि इस पारिवारिक पृष्ठभूमि को जरा भी व्याख्यायित करने की कोशिश नहीं की जाती, लेकिन हिन्दी समाज के बदलते स्वरूप को जिस सहजता से स्थापित करती है वह चकित करता है, जो अपनी कटटर पारंपरिक स्वरूप के लिए कुख्यात रहा है। उस समाज में आज से बीस वर्ष पहले विध्वा विवाह ही नहीं हो रहे थे, उसके बच्चे को भी स्वीकार्य किया जा रहा था, और गाँव में इस विवाह, इस परिवार को प्रतिष्ठा भी मिल रही थी। यह है अपने समाज के बदलाव की पहचान जो निश्चित रूप से किसी चोपड़ा और किसी जौहर या मुम्बई में रमे किसी पिफल्मकार को नहीं मिल सकती। इसके लिए आपको अभिनव सिंह कश्यप या विशाल भारद्वाज या प्रकाश झा होना जरूरी हो जाता है।
चुलबुल पाण्डेय पढ़-लिख कर इंस्पेक्टर बन जाता है लेकिन अपने सौतेले पिता को स्वीकार्य करना उसके लिए मुश्किल रहता है। भाई मक्खी के साथ उसका प्रेम और द्घृणा का रिश्ता बना रहता है। चुलबुल अपने आपको रॉबिन हुड पाण्डेय कहता है। जुझारू इंस्पेक्टर लेकिन नैतिकता से कोई सरोकार नहीं। अपनी दिल की बात सुनता है वह। उसका सामना होता है गाँव की कुम्हारन रज्जो से, और मजबूत कद काठी की हिम्मती लड़की को वह दिल दे बैठता है। रज्जो की अपनी समस्या है उसके पिता पियक्कड़ हैं और दारू के लालच में वह कुछ भी करने को तैयार होता है। रज्जो की जिद है कि जब तक उसके पिता जीवित है वह शादी नहीं कर सकती, क्योंकि उसके पिता की देखभाल कौन करेगा। कहानी की एक पराकाष्ठा यहा भी दिखती है जब चुलबुल से शादी की उम्मीद में रज्जो के पिता अपने आप को अड़चन समझ कर नदी में डूब कर आत्महत्या कर लेते हैं।
'दबंग' में अध्किांश चरित्रा ग्रे शेड में हैं, जैसा की हम होते हैं। किसी पल कोई महानता के शिखर पर होता है तो दूसरे ही पल मानवीय कमजोरियों में डगमग दिखता है। मक्खी निर्मला से प्यार करता है। निर्मला मास्टर के बेटी है, वह मक्खी से शादी की शर्त रखता है, लाख रुपये। मक्खी के पिता प्रजापति पाण्डेय अपनी छोटी सी पैफक्ट्री चलाते हैं वह मक्खी की शादी पर कोई पैसे खर्च करना नहीं चाहते।
इध्र चुलबुल पाण्डेय का सामना छेदी सिंह से हो जाता है, जो एक क्षेत्रिाय पार्टी के छात्रा संध् का अध्यक्ष है। लेकिन राजनीति के नाम पर सारे कुकृत्य करने को तैयार। चुलबुल छेदी के पर कतरने के लिए पार्टी के नेता दयाल बाबू से संपर्क करता है। लेकिन छेदी मक्खी के हाथों बम विस्पफोट करवा कर दयाल बाबू की हत्या करवा देता है। इतना ही नहीं छेदी चुलबुल की मां की हत्या ही नहीं करता उसके पिता के पैफक्ट्री में भी आग लगवा देता है।
कई सारे छोटे-छोटे क्लाइमेक्सों के साथ अंत में कहानी राजी खुशी खत्म होती है। जब चुलबुल और मक्खी दोनों भाई मिल जाते हैं। दोनों को अपनी अपनी प्रेमिकाएँ मिल जाती हैं और जिस पिता से चुलबुल ने जिंदगी भर द्घृणा की उनका प्यार भी उन्हें हासिल हो जाता है। कहानी को इतने विस्तार से बयान करने का अर्थ सिर्पफ इतना भर है कि ये कथा वाचन हिन्दी समाज की परंपरा है। आज अध्किांश पिफल्में 'दे दना-दन' और 'वेलकम' जैसे कॉमेडी की बात छोड़ भी दें तो 'अनजाना अनजानी' और 'वी आर पैफमिली' जैसी पिफल्मों में कहानी के सूत्रा शुरू होते ही समाप्त हो जाते हैं। अध्किांश पिफल्में सिपर्फ दृष्यों का संयोजन होती हैं, अनजाना अनजानी जैसी पिफल्मों की कहानी आप एक पंक्ति में बयान कर दे सकते हैं। न किसी चरित्रा का विस्तार आप देख सकते हैं, न उसके अंतःकरण में झाँकने का अवसर पा सकते हैं। देख सकते हैं तो बस उसके डिजायनर कपड़े, डिजायनर एक्ससेरीज, मेकअप यशपाल की 'दुःख' कहानी को याद करें तो इनके दुख भी इनके खुद के ढोए हुए लगते हैं, जिनके प्रति आप लाख कोशिश करले कतई सहानुभूति नहीं कर सकते। वहाँ कोई समाज नहीं दिखता जिसे आप पहचान सकते, दिखते हैं अमेरिका की सड़कें, बैंकाक की रंगीनियाँ जहाँ आप एकदम अजनबी हो जाते हैं। 'दबंग' में जिन चेहरों को आप नहीं पहचान पाते, वे भी आप को अपने जैसे लगते हैं क्योंकि वे सब मिलकर एक समाज बनाते लगते हैं।
'दबंग' की लोकप्रियता की वजह इसके भदेसपन, इसकी 'मुन्नीबाई' में, इसके सलमान में, ढूँढ़े जाने के पहले
इसके कथानक और इसकी प्रस्तुति में ढूँढ़ी जानी चाहिए। संयोग नहीं कि अभिनव सिंह कश्यप और लेखक दिलीप शुक्ला दोनो ही उत्तर प्रदेश से आते हैं जो अपने चरित्राों के साथ जिते रहे हैं। इसी लिए 'दबंग' के चरित्रा लार्जर देन लाइपफ होते हुए भी अपरिचित नहीं लगते। चाहे वह हवाओं में उड़कर मार करने वाला चुलबुल पाण्डेय हो या खुबसूरत कुम्हारन रज्जो। सभी पात्राों के बेहद करीब ले जाते हैं अभिनव। इतना कि आल्हा के सूर में 'हुड़ हुड़ दबंग दबंग' की गुंज के साथ जब चुलबुल की बांहे पफड़कती हैं तो सिनेमा द्घरों में बैठे दर्शकों के भी सीने चौड़े हो जाते है। अपने पात्राों से यह निकटता वह भी महसूस करते हैं जिन्होने वर्षों पहले अपनी माटी को छोड़कर रोजी रोटी के लिए महानगर को आशियाना बनाया और वे भी करते हैं जो अपनी माटी को अभी भी सींच रहे है। शायद इसीलिए दबंग जिस तरह छोटे शहरों के सिंगल थियेटरों में पसंद की गई, उतना ही महानगरों के मल्टीप्लेक्सों में भी। वास्तव में लम्बे अर्से के बाद कोई ऐसी हिन्दी पिफल्म उनके सामने आयी थी जिसमें उनके वजूद पर सवाल नहीं उठाया गया था। 'ओमकारा' हो या 'अपहरण', 'गंगाजल' अपने पर ही शर्म करने को मजबूर करते थे। खुद को सवालों के द्घेरे में खड़ा करते थे। ये पिफल्में अपने 'होने' के प्रति उत्साहित नहीं करती थी। 'दबंग' में भी हिंसा है, यहा भी नकारात्मकता है, राजनीतिक गड़बड़ियाँ यहाँ भी दिखती है, लेकिन यह सब समाज के एक अंश के रूप में दिखता है, जो आश्वस्त करती है कि हम इससे निबट सकते हैं। 'अपहरण' या 'ओमकारा' यह विश्वास दिलाने में सक्षम नहीं होती, इन पिफल्मों को देखते हुए हिन्दी समाज अपराध् का पर्याय लगने लगती है। 'दबंग' को शायद इसीलिए सर आँखों पर स्वीकार्य करते हैं।
निश्चित रूप से 'दबंग' कोई क्लासिक पिफल्म नहीं है, क्लासिक 'शोले' भी नहीं थी लेकिन समय ने उसे क्लासिक का दर्जा दिलाया, हो सकता है २५ वर्ष बाद शायद 'दबंग' को भी एक क्लासिक के रूप में याद किया जाय। लेकिन आज यह क्लासिक होने का दावा करते भी नहीं लगती। पिफल्म के संवादों में भदेस शब्दों की भरमार है, वस्त्रा विन्यास में बिहार उत्तरप्रदेश की स्थानियता का खास ध्यान रखा गया है। अभिनय अतिरंजित है किसी ग्रामीण रंगमंच जैसा। यहाँ तक की चुलबुल पाण्डेय के गले में पड़ी माला भी कापफी जानी पहचानी लगती है। िपफल्म की पूरी शूटिंग महाराष्ट्र के वई में की गई, जहां प्रकाश झा भी अपना बिहार सृजित करते है। जाहिर है अभिनव को भी अपना लालगंज सृजित करने में कोई असुविध नहीं होती। वास्तव में हिन्दी सिनेमा ने जिस तरह हमारे सौंदर्यबोध् को तथाकथित रूप से लगातार कोशिश करते हुए हमें अपने ही समाज से अपरिचित करने की कोशिश की है उसमें 'दबंग' को मुखरता से स्वीकार्य करना मुश्किल होता है। लेकिन सच यह भी है कि अपनी सच्चाई, अपनी सहजता, अपनी माटी से मुकरना भी हमारे लिए मुश्किल होता है। इसीलिए 'दबंग' हमें चाहे अनचाहे भी आकर्षित करती है। इसलिए भी की भोजपुरी पिफल्मों की तरह भी अभिनव हिन्दी का स्वभाविक वातावरण रचते हुए भी तकनीकी कुशलता से कहीं समझौता नहीं करते। 'दबंग' में जितनी ही कुशल सिनेमेटोग्रापफी दिखती है उतना ही तीक्ष्ण संपादन, जो कहीं पर भी दर्शकों को 'लालगंज' से निकलने का अवसर नहीं देती। आश्चर्य नहीं कि दबंग हमें सिनेमायी संतुष्टि भी देती है।
'दबंग' की सपफलता वास्तव में हिन्दी सिनेमा में हिन्दी की जीत है। हिन्दी के स्वभाविक सिनेमा की जीत है। जिसमें जीवन के सारे सुर एक साथ मिलते हैं, इमोशन भी, हिंसा भी, परिवार भी, प्रेम भी, द्घृणा भी। लेकिन सारी जद्दोजहद के बीच जीत सच की। वास्तव में हिन्दी सिनेमा में यह सीध्ी सी बात देखने के लिए आँखें तरस गयी थीं। 'दबंग' हिन्दी सिनेमा को एक बार पिफर अपने पुराने व्याकरण की ओर लौटने को प्रेरित कर सकती है, बशर्ते 'दबंग' की सपफलता को संयोग नहीं माने हिन्दी सिनेमा।

Comments

is lekh ne dabang ko lekar dobara sochne par mazboor kar diya hai...
amitesh said…
दबंग को देखने के कई नज़रिये हैं हमारे पास...लेकिन ये महान फ़िल्म नहीं है और ऐसा शायद ही किसी ने कभी ये अपेक्षा की हो कि सलमान खान कभी कोई 'क्लासिक'रचेंगे...यह पुरी तर्ह दर्शकों का सिनेमा है...वैसा दर्शक जो मदारी का तमाशा पुरे आनंद के साथ देखता है ये जानते हुए कि जो भी कुछ वह देख रहा है भ्रम है छल है...हमें भारतीय दर्शकों के इस मिज़ाज़ को भी समझना होगा...दिल्ली में मैंने जितनी फ़िल्में देखी है उनमें दबंग एक मात्र ऐसी फ़िल्म है जिसमें रात्री शोव में भी दर्शक आगे की पंक्ति में बैठ कर सिनेमा देख रहे थे...सिंगल थियेटर के लिये राहत देने वाला सिनेमा था यह.
jyotin kumar said…
fully agree with the views expressed therein..
Anonymous said…
अब तक का मेरा फेवरेट सिनेमा है दबंग.
इसका आइटम गीत तो जबरदस्त था...क्या कमर झटकाए थे मल्लाइका मैम ने!

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को