फिल्‍म समीक्षा : ये खुला आसमान

review : yeh khula aasmaan 

दादु और पोते का अकेलापन 

- अजय ब्रह्मात्‍मज

माता-पिता को इतनी फुर्सत नहीं कि वे अपने बेटे का फोन भी उठा सकें। मां अपनी आध्यात्मिकता और योग में लीन हैं और पिता भौतिकता और भोग में.. नतीजतन हताश बेटा मुंबई से अपने दादु के पास जाता है। गांव में छूट चुके दादु अपनी ड्योढ़ी में कैद हैं। उन्हें अपने बेटे का इंतजार है, जिसने वादा किया था कि वह हर साल उनसे मिलने आया करेगा। आधुनिक भारत के गांवों से उन्नति, भौतिकता और सुख की तलाश में शहरों और विदेशों की तरफ भाग रही पीढ़ी के द्वंद्व और दुख को गीतांजलि सिन्हा ने ये खुला आसमान में चित्रित करने की कोशिश की है।
वह दादु और पोर्ते के अकेलेपन और निराशा को उभारने में माता-पिता की निगेटिव छवि पेश करती हैं। दोनों बाद में सुधर जाते हैं, फिर भी कहानी में फांक रह जाती है। अविनाश (राज टंडन)को अपने माता-पिता(मंजुषा गोडसे-यशपाल शर्मा) से ढाढस और सराहना के शब्द नहीं मिलते। पढ़ाई में अच्छा करने और ज्यादा अंक हासिल करने के दबाव में वह पिछड़ जाता है। आईआईटी की इंट्रेंस परीक्षा पास नहीं कर पाता। अच्छी बात है कि हताशा में भी वह आत्महत्या जैसा शार्टकट नहीं अपनाता।
वह अपने दादु (रघुवीर यादव)के पास लौटता है। दादु उसे बेहतर परफॉर्म करने की प्रेरणा देते हैं। उसे हां और ना की दुविधा से बाहर निकालते हैं। दादु बताते हैं कि पहले सोच-समझ कर कोई फैसला लो और फिर अपने फैसले पर अटल रहो तो कामयाबी अवश्य मिलेगी। अविनाश की जिंदगी पलटती है। गांव की पतंगबाजी से उसके जीत का अभियान शुरू होता है, जो आखिरकार उसे जीवन में सफल बनाता है। अविनाश भी अपने पिता की तरह करिअर के लिए बाहर निकलता है। फर्क यह है कि वह हर साल गांव लौटता है। गांव से छूटने या जुड़े रहने और बेहतर भविष्य के इस द्वंद्व से ऐसा हर परिवार गुजरता है, जिनके पूर्वजों की जड़ें गांव में हैं।
गीतांजलि सिन्हा ने पीढि़यों की सोच के भेद की कहानी को सादगी से पेश किया है। उनके किरदार सहज और आसपास के हैं। शिल्प में सादगी के साथ विश्वसनीयता भी है, जिसे रघुवीर यादव और यशपाल शर्मा जैसे अनुभवी अभिनेताओं ने मजबूत किया है। किशोर उम्र की नई जोड़ी ने अपने किरदारों का उचित निर्वाह किया है। खास कर मुस्कान की भूमिका में आई अन्या आनंद में स्वाभाविकता और मासूमियत है। उनकी कस्बाई प्रतिक्रियाएं और मुद्राएं मनमोहक हैं। अविनाश और मुस्कान की अंतरंगता चौंकाती है। इसके अलावा पतंगबाजी में वैमनस्य दिखाने के लिए सलीम(आदित्य सिद्धू) को मुस्लिम चरित्र गढ़ना अनावश्यक लगता है।
गांव के हिंदू परिवार का हिंदू युवक रहता तो क्या पतंगबाजी में जीत के लिए रची गई दुश्मनी कम हो जाती क्या? दरअसल, चरित्रों की संकल्पना और गठन में यह फिल्मों से बनी प्रचलित धारणा का ही प्रभाव है। फिर भी सलीम के किरदार को आदित्य सिद्धू ने बहुत अच्छी तरह निभाया है। फिल्मों के निगेटिव किरदारों का असर उस युवक के चाल-ढाल में दिखाई पड़ता है। पतंगबाजी के दृश्य में दोहराव और ढीलापन है। कमंटेटर जब बता रहा कि अब तीन पतंग बचे हैं, तब आकाश में दस से ज्यादा पतंग दिख रहे हैं।
बहरहाल, फिल्म का लोकेशन नया और फिल्म के कस्बाई लुक के मेल में है। अगर फिल्म के संवादों में कस्बाई लहजा होता तो विश्वसनीयता और बढ़ती। यशपाल शर्मा का अंग्रेजी उचारण खटकता है। हां, रघुवीर यादव हर तरह से प्रभावित करते हैं।
**1/2 ढाई स्टार

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यह आधुनिक समाज के प्रश्न है, फिल्में में उठना स्वाभाविक है।

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