फिल्‍म समीक्षा : गट्टू

Review : Gattu
निश्‍छल और मासूम
-अजय ब्रह्मात्‍मज 
हिंदी में बच्चों पर केंद्रित फिल्में बहुत कम बनती हैं। चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी के सौजन्य से कुछ बनती भी हैं तो रेगुलर थिएटर में रिलीज नहीं हो पातीं। इस लिहाज से राजन खोसा की गट्टू खास फिल्म है। चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी की इस फिल्म को राजश्री ने वितरित किया है।
रुड़की शहर का गट्टू अपने चाचा के साथ रहता है। उसका चाचा उसे लाड़-प्यार देता है, लेकिन अपनी तंगहाली और बदहाली की खीझ में कभी-कभी उसकी पिटाई भी कर देता है। गट्टू को चाचा की मार से फर्क नहीं पड़ता। कबाड़ का काम सीखने में उसका ज्यादा मन नहीं लगता। उसे अपनी उम्र के दूसरे बच्चों की तरह पतंगाबजी का शौक है। वह पतंग उड़ाता है और सपने पालता है कि एक दिन शहर की काली पतंग वह जरूर काटेगा।
काली पतंग उड़ाने वाले की किसी को जानकारी नहीं है। काली पतंग सभी पतंगों को काट कर आसमान में अकेली उड़ती रहती है। गट्टू की समझ में आता है कि शहर की सबसे ऊंची छत से पतंग उड़ाई जाए तो काली पतंग को काटा जा सकता है। बाल दिमाग से वह युक्ति भिड़ाता है और स्कूल में दाखिल हो जाता है। अपने आत्मविश्वास और नेकदिली से अनपढ़ होने के बावजूद वह दोस्तों को अपने साथ कर लेता है।
एक दिन स्कूल की छत पर चढ़कर वह काली पतंग काट ही देता है। इस विजय के बाद उसका भेद खुल जाता है तो वह स्कूल के प्रिंसिपल का सच-सच सारी बात बता देता है। उसकी सच्चाई से प्रिंसिपल प्रभावित होते हैं और उसे स्कूल में दाखिला दे देते हैं।
बालमन की निर्दोष संवेदना पर राजन खोसा ने समान संवेदनात्मक गहराई के साथ फिल्म बनाई है। अमूमन बाल फिल्मों में बड़ों के दृष्टिकोण के हावी होने का खतरा रहता है या फिर फिल्में उपदेशात्मक हो जाती हैं। गट्टू अत्यंत मासूम फिल्म है। गट्टू का बचपन वंचित है, लेकिन उसके उत्साह और जोश में बच्चों की ढीठता है। यही बात इस फिल्म को सुंदर बनाती है। राजन खोसा ने छोटे शहर का माहौल रचने के लिए इसे रुड़की में शूट किया है। किसी भी पूर्वधारणा से बचाने के लिए फिल्म में परिचित कलाकारों को नहीं लिया गया है। सारे कलाकार नए हैं और वे अपने किरदारों में जंचते हैं।
खास कर मोहम्मद समद की तरलता उल्लेखनीय है। वह आसानी से हर सिचुएशन में ढल जाता है। स्कूल के बच्चों ने मोहम्मद समद का पूरा साथ दिया है। लगता है राजन खोसा ने बच्चों के साथ एक्टिंग वर्कशॉप कर उन्हें साधा है। चाचा के किरदार में नरेश कुमार और प्रिंसिपल के रूप में जतिन दास का अभिनय उल्लेखनीय है।
फिल्म की पटकथा और संवाद के लिए लेखकीय टीम राजन खोसा, के डी सत्यम और दिलीप शुक्ला को खास बधाई। उन्होंने दृश्यों और संवादों में बचपना रहने दिया है। कैमरामैन से फिल्म का माहौल रचने में सहायता मिली है। छोटे शहर की गालियां, छतें और विहंगम दृश्य मोहक और विश्वसनीय हैं।
*** 1/2 साढ़े तीन स्टार
चवन्‍नी के पाठकों ने दिए-3.8 स्‍टार 

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