पड़ोसी देश का परिचित अभिनेता अली जफर


-अजय ब्रह्मात्मज
    अभिषेक शर्मा की ‘तेरे बिन लादेन’ के पहले ही अली जफर को भारतीय दर्शकों ने पहचानना शुरू कर दिया था। उनके गाए गाने पाकिस्तान में धूम मचाने के बाद सरहद पार कर भारत पहुंचे। सोशल मीडिया से सिमटती दुनिया में अली जफर के लिए भारतीय श्रोताओं और फिर दर्शकों के बीच आना मुश्किल काम न रहा। हालांकि उन्होंने गायकी से शुरुआत की, लेकिन अब अभिनय पर ध्यान दे रहे हैं। थोड़ा पीछे चलें तो उन्होंने पाकिस्तान की फिल्म ‘शरारत’ में ‘जुगनुओं से भर ले आंचल’ गीत गाया था। एक-दो टीवी सीरिज में भी काम किया। उन्हें बड़ा मौका ‘तेरे बिन लादेन’  के रूप में मिला। अभिषेक शर्मा की इस फिल्म के चुटीले दृश्यों और उनमें अली जफर की बेचैन मासूमियत ने दर्शकों को मुग्ध किया। अली जफर चुपके से भारतीय दर्शकों के भी चहेते बन गए।
    शांत, मृदुभाषी और कोमल व्यक्तित्व के अली जफर सचमुच पड़ोसी लडक़े (नेक्स्ट डोरब्वॉय ) का एहसास देते हैं। तीन फिल्मों के बाद भी उनमें हिंदी फिल्मों के युवा स्टारों जैसे नखरे नहीं हैं। पाकिस्तान-भारत के बीच चौकड़ी भरते हुए अली जफर फिल्में कर रहे हैं। गौर करें तो आजादी के बाद से अनेक पाकिस्तानी कलाकारों ने हिंदी फिल्मों में जोर आजमाईश की। उनमें से कुछ ही सफल रहे। ऐसे सफल नामों में सबसे नए और अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय अली जफर हैं। हिंदी फिल्मों के इतिहास के जानकारों को मालूम है कि लाहौर हिंदी फिल्मों के निर्माण के आरंभिक त्रिभुज का मुख्य कोण रहा है। दुर्भाग्य से बंटवारे के बाद लाहौर की गरिमा खत्म हुई। बंटवारे के समय ही अनेक प्रतिभाएं भारत आई थीं। कुछ प्रतिभाएं मुंबई से भी लाहौर गईं, लेकिन हम सभी जानते हैं कि पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री कभी रोशनदार नहीं हो सकी। कुछ स्टार थे, लेकिन समय के साथ उनकी रौनक भी खत्म हो गई। बहरहाल, उसी लाहौर से अली जफर आते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के मिसिंग लिंक लाहौर को वे जोड़ेंगे।
    यूनिवर्सिटी प्रोफेसर मुहम्मद जफरूल्लाह और कंवल हसीन के बड़े बेटे अली जफर का ध्यान शुरू में पेंटिंग की तरफ था। उन्होंने लाहौर के नेशनल आर्ट कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद उमर बट, साद कुरैशी, सोहेल जावेद और सुमराया खान आदि की संगत में चित्रकारी की। फिर म्यूजिक और गायकी में रुझान हुआ तो मौशिकी की ओर मुड़ गए। गायक और संगीतकार के तौर पर पहचान बनने के साथ उनका भारत आना-जाना आरंभ हुआ। इसी दरम्यान उन्होंने भारतीय फिल्मकारों से मेल-जोल बढ़ाया। वे कहते हैं, ‘पाकिस्तान के आर्टिस्ट मुझ से पूछते हैं कि भारत में कैसे काम मिल सकता है? मेरा छोटा सा जवाब होता है - धैर्य और कोशिश। आप लोगों से लगातार मिलते रहें और अपने इरादे ठोस रखें। मेरे कई पाकिस्तानी परिचित चाहते हैं कि बगैर मुंबई या भारत आाए ही उनके पास ऑफर आ जाएं। ऐसा होता है क्या? ऐसा नहीं हो सकता।’
    अली जफर की ‘तेरे बिन लादेन’, ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ और ‘लंदन पेरिस न्यूयार्क’ फिल्में आ चुकी हैं। तीनों फिल्मों में अली जफर के अभिनय की प्रशंसा हुई है। अली जफर सीधे-सादे और नेक मिजाज किरदारों में अच्छे लगते हैं। नौवें दशक के फारुख शेख और अमोल पालेकर की परंपरा में उन्हें देखा जा रहा है। अपनी इस छवि के बारे में अली जफर कहते हैं, ‘दोनों ही जबरदस्त अभिनेता हैं। उनसे सीखा जा सकता है। मैं अपने किरदारों में नैचुरल रहने की कोशिश करता हूं। मेलोड्रामा और नाटकीयता मुझे अपनी जिंदगी में भी पसंद नहीं है। मैं पर्दे पर ऐसा किरदार निभाते या अभिनय करते हुए सहज नहीं लगूंगा। वास्तव में मेरा वैसा स्वभाव नहीं है।’
    डेविड धवन की फिल्म ‘चश्मेबद्दूर ’ में फारुख शेख के निभाए किरदार सिद्धार्थ पाराशर को अली जफर ने आधुनिक रंगत दी है। वे कहते हैं, ‘मैंने अपने किरदार को पिछली फिल्म की तरह सरल ही रखा है। बस, उसे थोड़ा शरारती रंग दिया है। डेविड धवन ने हमें अच्छी तरह समझा दिया था कि उन्हें क्या चाहिए? मैं निर्देशक के सुझावों पर बहुत ज्यादा गौर करता हूं। किसी भी किरदार को अच्छी तरह समझने के लिए जरूरी है कि उसे अन्य किरदारों के साथ देखा जाए। वह उनके साथ कैसे रिएक्ट करता है?’ अली जफर मानते हैं कि उनकी सॉफ्ट रोमांटिक छवि बन गई है। वे चलते-चलते बताते हैं कि शाद अली की अगली फिल्म ‘किल दिल’ में आप मुझे एक्शन करते देखेंगे। इस फिल्म में मैं रणबीर कपूर और परिणीति चोपड़ा के साथ दिखूंगा। शाद अली की फिल्म के लिए मैं बहुत उत्साहित हूं। उनकी ‘साथिया’ और ‘बंटी और बबली’ बहुत अच्छी लगी थी।’ इन दिनों वे लंदन में नीरज पांडे के निर्माण और ई निवास के निर्देशन में बन रही ‘अमन की आशा’ की शुटिंग कर रहे हैं। इसमें उनके साथ यामी गौतम,अनुपम खेर और किरण खेर हैं।

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