मुझे भी बेलने पड़े हैं पापड़-रणवीर सिंह


-अजय ब्रह्मात्मज
रणवीर सिंह का पहली ही फिल्म से पहचान और स्टारडम मिल गई। ऐसा लगता है कि उनके लिए शुरूआत आसान रही। पहली बार रणवीर सिंह शेयर कर रहे हैं अपने हिस्से का संघर्ष ़  ़ ़
    फिल्मों में स्ट्रगल करने के दौरान एक बर्थडे पर मेरी बहन केक के ऊपर कैंडिल नहीं लगाया था। उन्होंने कैंडिल की जगह फिल्मों के छोटे-छोटे कार्ड लगाए थे और उनमें स्टारों की जगह मेरी तस्वीर लगा दी थी। मैंने उन्हें फेंका नहीं। उन्हें अपने विजन बोर्ड पर लगा दिया। आते-जाते उसे ही देखता रहता था। आप यकीन करें छह-आठ महीने के अंदर मुझे ऑडिशन के लिए कॉल मिल गए। ऑडिशन सफल रहा। ‘बैंड बाजा बारात’ मिल गई। फिल्म हिट रही। और आज देखो, कमाल ही हो गया।
    मुझ में योग्यता है। चाहत है। हिंदी फिल्मों की मेनस्ट्रीम में आने की चाहत थी। मुझे पहले भी फिल्मों के ऑफर मिल रहे थे, लेकिन मैंने ‘बैंड बाजा बारात’ का दांव खेला। मैंने तीन-चार फिल्में छोड़ दी थीं। उनके निर्माताओं ने मुझे पागल करार कर दिया था। अपना थोबड़ा तो देखो। हम 15-20 करोड़ निवेश करने को तैयार हैं और तुम रिजेक्ट कर रहे हो। तुम्हारा कोई बाप-दादा यहां नहीं है। न जाने क्या सोच रहे हो?
    मुझे यशराज फिल्म्स की फिल्म मिली। उसके पहले उन्होंने कभी नए एक्टरों को मौका नहीं दिया था। मुझे सोलो फिल्म मिली। संयोग ऐसा रहा कि यशराज फिल्म्स और मेरी खोज टकरा गई। अभिमन्यु रे हाउस कास्टिंग डायरेक्टर थे। शानू शर्मा ने मेरे बारे में आदित्य चोपड़ा को बताया था। उन्होंने बुला लिया। मैंने ऑडिशन में अपना वैरिएशन दिखाया था। ‘लक बाई चांस’ मुझे फिल्म मिल गई। जोया अख्तर की इसी नाम की फिल्म ‘मेरी स्टोरी हो सकती है।’ ‘मोहब्बतें’ में तीन नए चेहरे थे, लेकिन शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय भी थे। यहां तो मैं अकेला था। ऑडिशन के लिए मुझे तीन बातें बताई गई थी। एक तो दिल्ली का है। उम्र 19-20 है और मस्त मौला है। तब मैं 24 का था। मैंने 4 दिनों तक अपने हिसाब से कैरेक्टर की स्टडी थी। दिल्ली का लहजा सीख और ऑडिशन दे आया। उनका पहला सवाल था कि दिल्ली का हूं क्या? उन्हें आश्चर्य हुआ कि मैं बांद्रा का हूं।
    सिफ संयोग तो नहीं होता। मौका मिलने पर खुद को उसके योग्य साबित करना पड़ता है। यानी लहर उठे तो आप उसके साथ जाने के लिए तैयार हों। मेरे डैड बिजनेशमैन हैं। ऑटोमोबाइल में मोटरसाइकिल की डिलिंग करते हैं। मेरी मम्मी होममेकर हैं। मेरे परिवार का फिल्मों से कोई कनेक्शन नहीं था कि फिल्में मिले। दसवीं करने तक मैंने तय कर लिया था कि मुझे तो मेनस्ट्रीम एक्टर ही बनना है। मैं स्टडी और स्पोटर््स में अच्छा था। डांस शो, ड्रामा और डिबेट में आगे रहता था। तब मेरे दोस्त और टीचर कहने लगे थे कि तू तो एक दिन एक्टर बनेगा। मेरी बुआ कहती थी कि तुम में नौटंकीपना  है, उस से लगता है कि तू एक्टर बनने के लिए ही पैदा हुआ है। उन दिनों रितिक रोशन, जाएद खान, तुषार कपूर, अभिषेक बच्चन की लांचिंग चल रही थी। मेरा विश्वास हिल गया था। फिर मैंने सोचा कि कॉपी रायटर बन जाऊंगा। 16 से 19 की उम्र में मैंने वी चैनल की मार्केटिंग टीम में काम किया। एक एड एजेंसी में कॉपी भी लिखता था। उन दिनों एक कॉपी लिखी थी - ‘क्वाइल का मारा, मच्छर नहीं मरा। ले आइए लाल, देखिए कमाल।’
        अमेरिका में पढ़ाई के समय एक बार मुझे परफॉर्म करने का मौका मिला। वहां सभी देशों के स्टूडेंटस थे। मुझे ‘दीवार’ का डायलॉग याद था। मैंने वही सुना दिया। सभी को पसंद आया तो मेरे अंदर भी कुछ कौंधा। लगा कि यही करना चाहिए। परफॉर्म करना चाहिए। एक्टिंग करनी चाहिए। आयडिया पहले से था ही। अब वह मजबूत हो गया। वही मेरी जिंदगी का टर्निंग पाइंट बना। मैंने सोचा कि अभी कोशिश नहीं की तो जिंदगी भर अफसोस रहेगा। उसी रात मैंने डैड से बात की। मैंने कहा भी कि आने मुझे किसी और पढ़ाई के लिए भेजा है, लेकिन मेरा मन कुछ और कर रहा है। डैड ने समझाया कि पढ़ाई पूरी कर लो। फिर जो करना है, उसे दिल से करो। तुम दिल से करोगे तो सब ठीक हो जाएगा। कॉम्प्रोमाइज करोगे तो कुछ भी नहीं मिलेगा। यह 2004-5 की बात है। मैंने अपनी पढ़ाई के साथ थिएटर ज्वॉयन कर लिया। वीकएंड में नाटक करने लगा। अच्छी ट्रेनिंग हो गई। अमेरिका से मैं 2006-7 में लौट कर आया।
    बांद्रा में एक छोटा सा स्कूल है लर्नर ऐकेडमी। फस्र्ट से टैंथ तक वहीं पढ़ा। छोटा स्कूल था। क्लास में 20-30 ब'चे ही होते थे। वहां सभी को जानते थे। सीनियर-जूनियर सभी को। उन दिनों हमारा परिवार बांद्रा तालाब के पास रहता था। 15 साल की उम्र तक वहीं रहा। नानी का घर भी नहीं था। मेरे मम्मी-डैडी की पैदाइश मुंबई की है, लेकिन उनके माता-पिता पार्टीशन के समय करांची से आए थे। मेरी दादी मुसलमान हैं और दादा सिख। नाना-नानी दोनों सिंधी हैं।
    शाद अली से मेरी पुरानी जान-पहचान थी। मुंबई में कॉलेज की पढ़ाई के दिनों में एक बार उनके घर चला गया था। दरअसल वहां कास्टिंग डायरेक्टर शानू शर्मा की बर्थडे पार्टी चल रही थी। बिना निमंत्रण के मैं वहां पहुंच गया था। जब मैं घुसा तो ‘माई नेम इज लखन’ गाना चल रहा था। किसी से हाय-हेलो नहीं ़ ़ ़सीधे डांस फ्लोर पर चला गया। लंबे बाल, कानों में बाली ़ ़ ़ शाद से वहीं पहली मुलाकात हुई। उन्होंने सोचा कि पागल बंदा है। उन्होंने दोस्त बना लिया। हमारे कॉमन इंटरेस्ट है - क्रिकेट, मेनस्ट्रीम मुवीज और मेनस्ट्रीम ह्यूमर को एक्सप्लेन नहीं किया जा सकता। उनकी फिल्मों में देख कर समझ सकते हैं। बहरहाल, लौट कर उनसे ही मिला। उन्होंने ‘झूम बराबर झूम’ पूरी कर ली थी। एड फिल्में बना रहे थे। मैं उनका असिस्टेंट डायरेक्टर बन गया। यही सोच का काम शुरू किया कि कुद सीखूंगा। कभी कोई मिल गया तो फिल्मों की कोशिश भी कर लूंगा। एंट्री तो लेनी थी। असिस्टैंट डायरेक्टर होने पर सब कुछ देखने को मिलता है। प्रोडक्शन, कास्टिंग, शूट ़ ़ ़ सब कुछ जानने का मौका मिला है। सारी चीजों का अनुभव हो जाता है।
    मुझे लगा कि अगर एक्टिंग के लिए मेरा केमिकल रिएक्शन हो रहा है तो मुझे यही करना चाहिए। असिस्ट करते समय मैंने पूरा ध्यान दिया था। डेढ़ साल के बाद मैंने फिल्मों के लिए तैयार हो गया। उन दिनों में एक बेस बन गया। सुनील मनचंदा जी से दोस्ती हो गई थी। ढेर सारे कास्टिंग डायरेक्टर से मुलाकात हो गई थी। ये लोग फोरफ्रंट पर नहीं होते, लेकिन बहुत सहयोगी होते हैं। पहला रोल मिलने के पहले ऑडिशन के लिए जाता रहता था। कंफिडेंस बढ़ता जा रहा था। उसी कंफीडेंस के कारण मैंने ‘बैंड बाजा बारात’ के डायरेक्टर से मुलाकात हुई थी।
    एक्टिंग की शुरुआत करने से पहले मैंने किशोर नामित कपूर की एक्टिंग क्लास की। वहां पर लगा कि यह ट्रेनिंग तो एकदम नए लोगों के लिए है। तब तक मैंने बहुत कुछ सीख-समझ लिया था। फिर भी एक्टिंग क्लासेज से फायदा हुआ। उसके बाद मैंने मकरंद देशपांडे का थिएटर ग्रुप 'वॉयन किया था। थिएटर ग्रुप में तुरंत रोल नहीं मिलता। उनके साथ समय बिताना पड़ता है। बाकी दस तरह के काम करने पड़ते हैं। कील ठोकने से लेकर रनर तक का काम किया। छोटे से छोटा काम किया। रियल ऑडिएंस के सामने परफॉर्म करना चाहता था। मकरंद देशपांडे के एक प्ले ‘कविता भाग गई’ में एक्सट्रा का रोल किया था। उसके आगे कुछ नहीं किया। आठ महीने के बाद लगा कि कब तक यहां रहूंगा? स्टेज पर जाने का चांस कब मिलेगा? मुझे तो फिल्मों में जाना है। फिर क्यों थिएटर में वक्त बर्बाद करूं? थिएटर छोड़ दिया। फिर से अनुभवों को लेकर निकल गया। मुझे कोई अफसोस नहीं है। अगर मैंने वे सारे काम नहीं किए होते। पापड़ नहीं बेले होते तो मुझे अपने काम का महत्व समझ में नहीं आता।  



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