दरअसल :सत्ता और सितारों की नजदीकी



-अजय ब्रह्मात्मज
कयास लगाया जा रहा है कि अमिताभ बच्चन मोदी के नेतृत्व में आई केंद्रीय सत्ता के नजदीक आ गए हैं। हालांकि अपनी बातचीत में अमिताभ बच्चन ने स्पष्ट शब्दों में इस बात से इनकार किया है कि वे मोदी सरकार के किसी प्रचार अभियान का हिस्सा बनेंगे। दरअसल मोदी के मुख्यमंत्री रहते समय अमिताभ बच्चन ने जिस प्रकार गुजरात के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अपने प्रशंसकों और दर्शकों का आमंत्रित किया, उससे इस प्रकार की संभावनाओं को बल मिलता है। सभी जानते हैं कि अमिताभ बच्चन के जोरदार और आत्मीय आमंत्रण के बाद गुजरात का पर्यटन बढ़ा है। इन दिनों हर राज्य किसी न किसी फिल्मी सितारे को ब्रैंड एंबेसेडर बनने का न्यौता दे रहा है। कुछ राज्यों में सितारे ब्रैंड एंबेसेडर के तौर पर एक्टिव भी हो गए हैं। सत्तारूढ़ पार्टी और सितारों के बीच परस्पर लाभ और प्रभाव के लिए रिश्ते बनते हैं। भारतीय समाज में तीन क्षेत्रों के लोगों को प्रतिष्ठा और लोकप्रियता हासिल है। इनमें राजनीति, खेल और फिल्म शामिल हैं। स्वार्थ, लाभ और प्रभाव से इनके बीच उपयोगी संबंध बनते हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि अमिताभ बच्चन दादा साहेब फाल्के पुरस्कार पाने के लिए मोदी और उनके नुमांइदों के साथ लॉबिइंग कर रहे हैं।
            भारतीय समाज में फिल्मी सितारों के साथ हमारा संबंध प्रचुर प्रेम और घनघोर घृणा का होता है। हम एक साथ जिसे देखने और छूने के लिए लालायित रहते हैं, उसे ही पलक झपकते मटियामेट भी कर देते हैं। प्रेम और घृणा के इस संबंध से परे है फिल्मी सितारों की लोकप्रियता और उसका प्रभाव। सत्ता और संस्थान उनकी इस क्षमता का उपयोग करने से नहीं हिचकते। आजादी के बाद नेहरू के समय से लेकर अभी तक सत्तारूढ़ पार्टियां फिल्मी सितारों को अपनी पसंद के हिसाब से पलकों पर बिठाती हैं। पहले ऐसे संबंधों की सार्वजनिकता नहीं होती थी। अब हर मुलाकात के पीछे अनेक किस्से बनते हैं। मुझे यह अफवाह बेतुकी लगती है कि अमिताभ बच्चन दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए किसी प्रकार की लॉबिइंग करेंगे। उनका योगदान और कद इतना बड़ा है कि देर-सबेर दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से उन्हें नवाजा ही जाएगा। हां, यह भी सच है कि पिछली कांग्रेस सरकार के साथ उनके रिश्ते कतिपय कारणों से मधुर नहीं थे, लेकिन याद करें तो राजीव गांधी के एक आह्वान पर वे अपना फिल्मी करियर छोडक़र इलाहाबाद से चुनाव लडऩे चले गए थे। अगर कोई अध्ययन विश्लेषण करे तो निस्संदेह यही पाएगा कि सत्ता और संस्थानों ने फिल्मी कलाकारों का ज्यादा उपयोग और दुरुपयोग किया है। क्यों ऐसा होता है कि सत्ता की नजदीकी लोकप्रिय नेताओं के साथ ही होती है। इस देश में लोकप्रियता भी एक प्रकार की सत्ता है, जिसके दम पर फिल्मी सितारे, खिलाड़ी और दूसरी लोकप्रिय हस्तियां विशिष्ट समूह में शामिल हो जाती है।
            सच कहें तो हिंदी फिल्मों में चंद सितारे ही राजनीतिक रूप से सजग और सचेत हैं। सत्ता और राजनीतिक पार्टियों से जुड़ते समय वे पॉलिटिकल विवेक से काम नहीं लेते। आजादी के बाद के दशकों में वे स्वाभाविक रूप में नेहरू की आभा से प्रभावित रहे। स्वंय इंदिरा गांधी की नजदीकियां फिल्मी सितारों से रहीं। अल्प अवधि के लिए प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री भी मनोज कुमार को बहुत मानते थे। समय-समय पर तत्कालीन सरकारों ने इन सितारों को राज्यसभा की सदस्यता भी दी। इमरजेंसी के बाद थोड़ा परिवर्तन दिखा। देव आनंद, शत्रुघ्न सिन्हा और राज बब्बर जैसे लोकप्रिय कलाकारों ने जयप्रकाश नारायण के साथ अपनी संबंद्धता जाहिर की। उनमें से कुछ लोग जनता पार्टी के टूटने पर अलग-अलग पार्टियों में गए। खासकर भाजपा ने लोकप्रिय सितारों को राजनीति में लाने का हरसंभव प्रयास किया। वे लोकप्रिय धारावाहिकों के मामूली अभिनेताओं को भी सांसद बनाने की युक्ति करते रहे। फिलहाल भाजपा के अनेक सांसद वर्तमान संसद में हैं। सत्ता और कलाकारों की नजदीकी हमेशा से बनी रही है। राजतंत्र से लेकर लोकतंत्र तक हम देखते हैं कि कलाकारों को महत्व मिलता रहा है और कलाकारों ने भी अपना झुकाव बार-बार दिखाया है। यह बहुत ही स्वाभाविक प्रक्रिया है। हमें बाहर से ऐसा लगता है कि फिल्मी सितारे फायदे के लिए सत्ता के करीब जाते हैं, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। सत्ता अपने हित में लोकप्रिय सितारे-कलाकारों का इस्तेमाल सदियों से करती आई है। आज भी वही सिलसिला जारी है। 21 वीं सदी में फिल्मी सितारे ही हमारे आदर्श बने हुए हैं। नारी सशक्तिकरण हो या पोलियो मिटाना हो। कश्मीर के बाढ़ पीडि़तों की सहायता करना हो या मोदी के स्वच्छ भारत अभियान चलाना हो। इनक्रेडिबल इंडिया की वकालत करनी हो या गुजरात बुलाना हो... हर बार हम इन सितारों को बुला लेते हैं।

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