बाम्‍बे वेलवेट,अनुराग और युवा फिल्‍मकारों पर वासन बाला


अनुराग तो वह चिंगारी हैं,जो राख में भी सुलगते रहते हैं। मौका मिलते ही वे सुलगते और लहकते हैं। उनकी क्रिएटिविटी की धाह सभी महसूस करते हें। 15 मई को उनकी नई फिल्‍म बाम्‍बे वेलवेट  रिलीज होगी। हम यहां उनके सहयात्री और सपनों के साथी वासन बाला का इंटरव्‍यू दे रहे हैं। 

-कहा जा रहा है कि अनुराग कश्‍यप जिनके खिलाफ थे,उनसे ही उन्‍होंने हाथ मिला लिया है। अनुराग के विकास और प्रसार को लेकर अनेक धारणाएं चल रही हैं। स्‍वयं अनुराग ने चंद इंटरव्‍यू में अपनी ही बातों के विपरीत बातें कीं। आप क्‍या कहेंगे ?
0 अनुराग कश्‍यप का कहना था कि जिनके पास संसाधन हैं,वे कंटेंट को चैलेंज नहीं कर रहे हैं। अनुराग संसाधन मिलने पर उस कंटेट को चैलेंज कर रहे हैं। बाम्‍बे वेलवेट का माहौल,कंटेंट,कैरेक्‍टर और पॉलिटिक्‍स देखने के बाद आप मानोगे कि वे जो पहले बोल रहे थे,अब उन्‍हीं पर अमल कर रहे हैं।  उन्‍हें संसाधन मिले हैं तो वे उसका सदुपयोग कर रहे हैं। हमलोंग हमेशा कहते रहे हैं कि कमर्शियल सिनेमा में दिखावे के लिए फिजूलखर्ची होती है। किसी गृहिणी का आठ लाख की साड़ी पहनाने का क्‍या मतलब है ? वे इन चीजों के खिलाफ थे। कुछ लोग कहने के लिए बेताब हैं,लेकिन उनके पास पैसे नहीं हैं। जिन्‍हें पैसे मिल रहे हैं,उनके पास कंटेंट नहीं है। वे कहानी के बजाए जीवनशैली दिखा रहे हैं। बाम्‍बे वेलवेट में कॉस्‍ट्यूम और सेट पर किया गया खर्च वाजिब और जरूरी है। पुराने बाम्‍बे को रीक्रिएट किया गया है। कहानी की जरूरत के लोकेशन उपलब्‍ध नहीं हैं। बाम्‍बे वेलवेट में कंटेंट की सघनता और तीव्रता वही रहेगी। अनुराग ने ने चार करोड़ में अगर आप को उत्‍तेजित किया है तो उम्‍मीद कर सकते हैं कि 100 करोड़ में क्‍या होगा ? वे क्‍या-क्‍या करेंगे। अगर इसी स्‍केल पर कोई और बाम्‍बे वेलवेट बना रहा होता तो कम से कम 200 करोड़ खर्च होते। वेकअप सिड जैसी फिल्‍म 120 दिनों में शूट हुई थी। यह 80 दिनों में पूरी हो गई। अनुराग को संयम में तेजी से काम करने की आदत है। दिक्‍कते वैसी ही हैं। बस,वे बड़ी हो गई हैं। वे अभी तक डटे हुए हैं। हमारी भी उनसे बहसें चलती ाहती हैं। मैं एक ही बात कह सकता हूं कि उनका बेस नहीं हिला हुआ है। यह भी हो सकता है कि बॉबे वेलवेट के बाद वे फिर से कोई सरप्राइज दें।
-बाम्‍बे वलवेट को आप कैसे देख रहे हो ? आप भी तो इनवॉल्‍व रहे हो ?
0 नो स्‍मोकिंग के बाद ही इस फिल्‍म का विचार आया था।  हमलोगों की टीम जुट गई थी। फिर उन्‍होंने कहा कि देव डी के बाद बनाता हूं। फिर ...येलो बूट्स आ गईत्र उसके बाद गैंग्‍स ऑफ वासेपूर में तीन साल लग गए। हम ने तो उम्‍मीद छोड़ दी थी। इस देरी से फायदा हुआ। गैंग्‍स ऑफ वासेपुर हिट होने की वजह से उन्‍हें बजट,स्‍टार और सपोर्ट मिला। उल्‍हें ताकत मिली। वे स्क्रिप्‍ट में उड़ान भर सके। देरी से बढ़ रही निराशा अब मूल्‍यवान हो गई है। जिस कास्टिंग,एनर्जी और एमपॉवरमेंट के साथ वे अभी बॉबे वेलवेट बना पाए,वैसी तब नहीं बना पाते। इस बीच उन्‍होंने खुद को तैयार भी किया है इस स्‍केल की फिल्‍म का हैंडल करने के लिए। फिल्‍म के सेट पर लग रहा था कि अनुराग हमेशा ऐसी फिल्‍में बनाते रहे होंगे। मैं भी समझ नहीं पा रहा था। अनुराग ने कभी सेट-वेट पर शूट नहीं की थी। सीमित बजट में मुश्किलों में काम करने की आदत रही है। पहले थिएटर के एक्‍टरों के साथ काम किया है। पहली बार स्‍टार के साक काम करेंगे तो उनके र्धर्य का क्‍या स्‍तर रहेगा ? अनुराग की शूटिंग ब्रूटल होती रही है। वे किसी को नहीं बख्‍शते। मुझे उनके जोश में फर्क नहीं दिखा। वही एनर्जी,वही दीवानगी,वही अप्रोच रहा। वे नए माहौल में पूरी टीम के साथ ढल गए।
-क्‍या विशेषताएं होंगी फिल्‍म की ?
0 सोनल सावंत आर्ट डायरेक्‍टर हैं। उन्‍होंने इतना अच्‍छा काम किया है। रियल लोकेशन की कमी महसूस नहीं हुई। आप कहीं भी कैमरा घुमा लो। मैं तो देख कर दंग रह गया था। एक किस्‍सा बताता हूं। एक सीन था,जिसमें कुछ होना था और उसके बैकग्राउंड में एक ट्रेन गुजरनी थी। ट्रेन पीरियड की थी। सीन के समय अनुराग ने कहा कि ट्रेन को पोजीशन पर लेकर आओ। फिर खुद ही चौंके कि इतनी बड़ी फिल्‍म बना रहे हैं कि ट्रेन को पोजीशन पर लाने के लिए कह रहे हें। पहले शेड्यूल में स्‍वयं अनुराग भी खुद को चकित पाते रहे। सभी ने अपनी क्षमता से अधिक काम किया है। फिल्‍म का सुर सभी की समझ में आ गया था। परफारमेंस से लेकर सभी क्षेत्रों में निखार आ गया। अनुराग के साथ काम करने वालों को पहले दिक्‍कत होती हैं वे सब कुछ क्‍यों कर रहे हैं ? कुछ दिनों के बा तरीका समझ में आ जाता है तो पता चलता है कि तिनी आजादी मिली हुई
है। आप सब कुछ बता सकते हो। क्रिएटिवली जुड़ सकते हो। अनुराग के सेट पर कोई भ कठपुतली नहीं रहता।
-पहले की टीम और बाम्‍बे वेलवेट की टीम के नेचर और काम करने के तरीके में क्‍या फर्क आया है ?
0  हमलोगों के समय गदहमजूरी ज्‍यादा थी। अभी की टीम समझदार है। वे ट्रेंड हैं। वे जब वॉी-टॉकी पर बात करते हैं तो उनकी लैंग्‍वज अलग होती है। पहले आर्ट और कास्‍ट्यूम को कोई छिवीजन नहीं होता था और न ही कोई इंचार्ज होता था। हम आर्ट और कॉस्‍टृयम के साथ फर्श की सफाई भी कर लेते थे।  राजीव सर लाइट भी पकड़वा लेते थे। कोई डिवीजन नहीं था। अभी सभी के काम बंटे हुए हैं। उससे फायदा होता है। टीम में अनोंसेंस वही रहती है। अनुराग के चुनाव में फर्क नहीं आया है। दूसरे स्‍कूल से आए एडी को इनके साथ एडजस्‍ट करने में समय लगता है। दूसरे डायरेक्‍टर के कॉल शीट में शॅट छिवीजन भी लिखे होते हैंत्र अनुराग के यहां केवल सीन होते हैं। सेट पर पता चलता है कि क्‍या शॉट लेना है ? हमारे समय में किसी को कोई भी काम कहा जा सकता था। अभी रिले रेस है। मुझे लगा था कि ऐसे व्‍यवस्थित तरीके से काम नहीं हो सकेगा। अभी सबकी ट्यूलनंग हो गई है। अनुराग बताने से ज्‍यादा इसमें यकीन रखते हैं कि एडी खुद ही बताए और समझे। कई लोग परेशान रहते हैं कि अनुराग कुछ बताते क्‍यों नहीं ? अनुराग बहुत अनुभवी लोगों को साथ नहीं जोड़ते। सब हमारी तरह ही आते हैं। यहां तो नदी में कूछ जाओ। तैरना आ ही जाएगा।
-बाम्‍बे वेलवेट की मुख्‍य बात क्‍या है ?
0 बाम्‍बे जैसी सिटी भारी कंट्रास्‍ट के साथ डेवलप होती है। उसका एक बाहरी वेलकमिंग चेहरा होता है। ऐसा लगता है कि इस मेट्रोपोलिस में हमें जगह बनाने के अवसर मिलें,लेकिन जैसे ही आप आते हो तो एक ट्रैप में फंस जाते हो। वह या तो आप को खा जाएगी या थूक देगी। उसी तरह की यह एक खास समय की कहानी है,जब रीक्‍लेमेशन हो रहा था। सारी दुनिया में ऐसा होता आया है। न्‍यू यॉर्क समेत सारे समुद्रतटीय शहरों का विकास ऐसे ही हुआ है। ऐसे समय में मिले अवसरों को जो पहले से समझ पाते हैं,वे उसका दोहन करते हैं। बॉबे वेलवेट में भी एक लड़का आता है,जो ड्रीम करता है। वह वक्‍त से पहले ड्रीम करता है। उसकी वजह से उसे क्‍या-क्‍या झेलना पड़ता है ? रिसर्च करने पर तो जबरदस्‍त जानकारियां मिलीं। फिर हम ने तय किया कि इतिहास दिखाने-पढ़ाने की जिम्‍मेदारी हम नहीं लेंगे। पहले ड्राफ्ट में तो हम ने महाभारत लिख दी थी। बाद में हम ने उसे बहसों से उबाल कर गाढ़ा किया। संक्षेप में सारी बातें कह दीं। अनुराग की पुरानी फिलमों की तरह इसे भी दोबारा-तिबारा देखने का अलग मजा होगा। मैं तो कहूंगा कि बाम्‍बे वेलवेट की मेकिंग गुलाल जैसी ही है,लेकिन स्‍केल बड़ा है। अनुराग के प्रशंसक खुश होंगे। उन्‍हें अच्‍छी ट्रीट मिलेगी।
-इस बार दांव बड़ा है। अनुराग को लेकर आशंकाएं बड़ी हैं।
0 फिल्‍म की सफलता-असफलता तो अपनी जगह है,लेकिन जो लोग मान रहे हैं कि अनुराग बिक गए,वह गलत है। पफल्‍म देखने पर आप पाएंगे कि वही जिदी और विद्रोही अनुराग यहां भी है। मैं सेंकेंड यूनिट देख रहा हूं। मैं मुंबई से हूं,इसलिए मेरी जिम्‍मेदारी ज्‍यादा थी। रणबीर कपूर के खास बंबईया ल‍हजे के लिए भी मैं ही था। और अगर आप अनुराग के साथ काम कर चुके हों तो उनके सेट पर आने के बाद कोई न कोई काम निकल ही आता है। मैं मुख्‍य रूप से सेकेंड यूनिट औा डायलॉग देख रहा हूं।
- आप की फिल्‍म की क्‍या पोजीशन है ?
0 इरोस ने खरीद ली थी। वे रिलीज नहीं कर रहे हैं। मेरी समझ में आ गया है कि ऐसी फिल्‍मों की रिलीज मुश्किल है। वह फील गुड सिनेमा नहीं है। वे समझ नहीं पर रहे हैं कि क्‍या करें ? हमारेद पास पैसे नहीं हैं कि हम खरीद लें। अभी सफल इंडी फिल्‍में भी फीलगुड ही हो गई हैं। हो सकता है किसी दिन दिखाई पड़ जाए। फिल‍हाल दो-तीन स्क्रिप्‍ट लिख रखी है। अभी कोई पूछता है तो यही कहता हूं कि यूए फिल्‍म लिख रहा हूं। नहीं तो सैटेलाइट बेचने में दिक्‍कत आ जाती है।  अभी लिखने के पहले ही बंध जाते हैं,फिर भी कहते हैं कि हम आजाद हैं। पहली फिल्‍म बन जाने के बाद उम्‍मीदें बढ़ जाती हैं और दबाव भी उसी अनुपात में बढ़ जाते हैं। आज की तारीख में कोई भी फिल्‍म बना सकता है। थोड़ा गुडविल बकट्ठा कर लो। चार लोगों को फोन करो। पैसे मिल जाएंगे। सस्‍ती तकनीक उपलब्‍ध है। आप फिल्‍म बना लेंगे। मसला फिल्‍म को रिलीज करने का है। अब नए डायरेक्‍टर को प्रोड्यूसर की तरह भी सोचना होगा। अब यह सिर्फ क्राफ्ट और आर्ट नहीं रह गया। एक समय के बाद आप को बिजनेसमैन भी बनना होगा। दोहरी जिम्‍मेदारी हो गई है। अभी आप जिद नहीं कर सकते कि हम इस फिल्‍म को ऐसे ही बनाएंगे। थोड़ा रियलिस्टिक होना पड़ता है। रिकवरी देखनी पड़ेगी। यह अनिवार्यता हमेशा से थी और आगे भी रहेगी। अनुराग को ही देखें कि उन्‍होंने अपनी सारी फिल्‍में रेस्‍पांसबल बजट में बनाई हैं। हम भी वैसी कोशिश कर रहे हैं।
-क्‍या ऐसा लगता है कि अगले दस साल में सिनेमा का सीनेरियो चेंज हुआ है ?
0 चेंज तो होना ही था। कुछ लोगों का लगता है कि है कि यह इंटेलेक्‍चुअल रिवोल्‍यूशन है,लेकिन ऐसा नहीं है। अभी मुझे यह टेक्‍नोलोजी ड्रिवेन रिवोल्‍यूशन लग रहा है। जो स्‍वर सुनाई पड़ रहे हैं,वे बौद्धि रूप से संपन्‍न नहीं हैं। उन्‍हें तकनीक मिल गई है। कुछ सालों में इसमें बदलाव आ जाएगा। फिल्‍टर हो जाएगा सब कुछ। ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि चार फिल्‍मों की जरूरत होगी और हम बीस फिल्‍में लेकर तैयार होंगे। जल्‍दी ही सैचुरेशन होगा। दूसरी फिल्‍म बना रहे डायरेक्‍टर सचेत होंगे और पहली फिल्‍म बना रहे निर्देशकों को पहले हा तौर-तरीके समझाए जाएंगे। बड़े बैी फिल्‍मों को सपोर्ट करते रहेंगे तो माइंडसेट में चेंज आएगा।
-अगर मैं गेमचेंजर के बारे में पूछूं तो आप किन के नाम लेंगे ? मैं हमेयाा मानता और  दलील देता रहा हूं कि हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में आउटसाइडर ही नई एनर्जी और इनर्शिया ले आत हैं। हिंदी फिल्‍मों में छोटे शहरों या महानगरों के छोटे मोहल्‍लों से आए आउटसाइडर ही कंट्रीब्‍यूट कर रहे हैं। कंफ्यूजन तब होता ळै,जब आउटसाइडर इनसाइडर की तरह बिहेव करने लगते हैं या बोलने लगते हें। अभी अनुराग कश्‍यप को लेकर ऐसी बातें कही जा रही हैं।
0 आप की आउटसाइडर थ्‍योरी से मैं पूरी तरह सहमत हूं। आउटसाइडर बिना कंडीशनिंग के आता है। अनजान होने से वह निडर रहता है। दूसरी-तीसरी फिल्‍म के समय तक समझ में आ जाता है कि फिल्‍में आर्थिक आधारों से निर्देशित होती हैं। यही कारण है कि प्‍योरिस्‍ट सरवाइव नहीं कर पातेत्र कमल स्‍वरूप एक फिल्‍म के बाद दूसरी नहीं बना पा रहे हैं। हमलोग अनुराग से कहते और पूछते थे कि आप क्‍यों निर्माता की हां में हां मिलाते हो। वे कहते थें कि फिल्‍म तो हमें बनानी है। इतना तो आप मान ही सकते हैं अनुराग समेत हमलोग कभी भी पैसे लेकर बूम नहीं बनाएंगे। फिल्‍ममेकिंग के दोनों पहलुओं को समझने के बाद ही गेम चेंज होगा। आप क्राफ्ट साधने में जिंदगी बिता देते हैं। आद में पता चलता है कि इकॉनोमिक्‍स का चैप्‍टर आप ने पढ़ा ही नहीं था,जबकि 80 प्रतिशत अंक उसी के हैं। गंमचेंजर में मैं आनंद गांधी का नाम ले सकता हूं। रितेश बत्रा हैं। गेमचेंजर में मैं पहला नाम रामगोपाल वर्मा का लूंगा। आप देखेंगे कि उनके बाद एक्टिव सारे गेमचंजर कभी न कभी रामगोपाल वर्मा सं जुड़े रहे हैं। अनुराग अपने मेंटोरशिप को सीरियसली नहीं लेते। उनके साथ के लोगों को खुद ही मेहनत करनी होगी। अनुराग के यहां डेमोक्रेसी है। इसी डेमोक्रेसी में उनकी जाती है।
-हर बदलाव में व्‍यक्ति की भूमिका रहती है। उसके साथ ही पूरा माहौल बनता है और फिर कई स्‍तरों पर बदलाव दिखता है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री की बात करें तो आप क्‍या देख पा रहे हैं ?
0 तकनीकी बदलाव तो दिख ही रहा है। इसके अलावा गुनीत मोंगा जैसी निर्माता हैं,जो इंटरनेशनल लेवल पर संसाधन जुटा और जुटवा रही हैं। वह एक नया जरिया है। उस से भी नए मेकर को फायदा होगा। मुझे लगता है कि हिंदी फिल्‍मों के लिए देश के होम मार्केट की महत्‍ता बनी रहेगी। घूम-फिर कर अपने दर्शकों तक आना ही पड़ेगा। तकनीक के साथ सिनेमा का नॉलेज बेस बढ़ गया है। आप आसानी से कोई भी जानकारी हासिल कर सकते हैं। एक रात या चंद दिनों में आप कुछ भी सीख सकते हैं। फिल्‍म और डिजीटल की बहस अभी खत्‍म नहीं हुई है। वह चलती रहेगी। स्‍कोरसिसी कहते हैं कि आखिरकार हमें कहानी कहनी है। हिंदी सिनेमा की खास शैली है। अज्ञानियों की जमात कुछ नया भी करती रहेगी। एक फिल्‍म कोई भी बना लेगा। दिक्‍कत दूसरी फिल्‍म की होगी। फिल्‍म बनाना आजीविका से जुड़ते ही दिक्‍कतें ले आता है।  वैसी स्थिति में हमें निर्माता की तरह सोचना होगा। अनुराग कश्‍यप और दिबाकर बनर्जी इन जरूरतों को समझ कर सरवाइव कर रहे हैं।
- अनुराग कश्‍यप की पीढ़ी को टीवी से भारी सपोर्ट मिला। उनके समकालीन टीवी के माध्‍यम से आए। नई पीढ़ी के फिल्‍मकारों को ऐसी सुविधा नहीं मिल पा रही है।
0 नई पीढ़ी के पास यू ट्यूब और सोशल मीडिया है।
- उससे क्रिएटिव अनुशासनहीनता भी बढ़ी है।
0 बढ़ी होगी। क्‍या दिक्‍क्‍त है ? सीखने की यह प्रक्रिया है। अब वह सीधे दर्शकों तक पहुंच सकता है। उसे किसी स्‍टूडियो या चैनल अधिकारी के पास नहीं जाना है। क्रिएटिव फिल्‍म में पहले चरण की आजादी अलग होती है। दूसरे चरण में आजादी की परिभाषा बदल जाती है। बेहतर है कि सभी खुद सीखें। दूसरे चरण तक अनेक इस दरिया में बह जाते हैं। कई बार हम क्रिएटिव मायनोरिटी में रह जाते हैं। हमारी तरफ किसी का ध्‍यान नहीं जाता। फिल्‍में बनाना और पहचान बनाना एक जटिल और अबूझ प्रक्रिया है।

Comments

CS Amit Jain said…
आभार इस तरह का साक्षात्कार लेने और लिखने के लिए !!

चिरकुट पेज3 मार्का इंटरव्यू से कई गुना बेहतर !!



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