दरअसल : राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों के संदर्भ में

-अजय ब्रह्मात्‍मज
शायद ही कोई साल ऐसा गुजरा हो,जब राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कारों के बाद किसी समूह,तबके या फिल्‍म निर्माण केंद्रों से असंतोष के स्‍वर न उभरे हों। इस साल बांग्‍ला और मलयाली सिनेमा के हस्‍ताक्षर पुरस्‍कृतों की सूची में नहीं हैं। अन्‍य भाषाओं की बेहतरीन प्रतिभाओं पर ध्‍यान नहीं दिया गया है। अनेक बेहतरीन फिल्‍में और प्रतिभाएं पुरस्‍कार से वंचित रह गई हैं। आपत्ति है कि इस बार पॉपुलर हिंदी सिनेमा पर ज्‍यादा ध्‍यान दिया गया। हिंदी की साधारण और औसत प्रतिभाओं को पुरस्‍कार दिए गए। चूंकि रमेश सिप्‍पी निर्णायक मंडल के अध्‍यक्ष थे और सतीश कौशिक जैसे निदर्कशक मंडली में शामिल थे,इसलिए इन अारोपों को आधार भी मिला।
इस तथ्‍य से इंकार नहीं किया जा सकता कि ज्‍यूरी के अध्‍यक्ष की पसंद-नापसंद से पुरस्‍कृत फिल्‍मों का पासंग झुकता या उठता है। जिस भाषा के अध्‍यक्ष होते हैं,उस भाषा की फिल्‍मों का पलड़ा स्‍वाभाविक रूप से भारी रहता है। राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कारों में यह भी देखा गया है कि सभी भाषाओं के बीच संतुलन बिठाने की कोशिश रहती है। निर्णायक मंडल की चिंता रहती है कि किसी एक भाषा के दर्शक और फिल्‍मकार असंतुष्‍ट और नाराज न हो जाएं। हिंदी का दबदबा हमेशा रहता है। राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार का निर्णायक मंडल दिल्‍ली में बैठता है और इसमें हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री के प्रतिनिधियों की संक्ष्‍या अनुपात की वजह से ज्‍यादा रहती है। अंतिम निर्णय प्रभावित करने में उनकी संख्‍या का असर होता है। एक और बात कि भारतीय संदर्भ में सिनेमा के गुण-अवगुण से अधिक महत्‍वपूर्ण लाभ-हानि हो गया है। माना जाता है कि जिन फिल्‍मों को ज्‍यादा दर्शक देखते हैं,उनकी ही कमाई ज्‍यादा होती है। ऐसी कामयाब फिल्‍मों को नजरअंदाज करने का मतलब दर्शकों की रुचि को धत्‍ता देना है। इस साल के पुरस्‍कारों में भी कमाई का कलरव रहा है।
राष्‍ष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कारों के अंतर्निहित समस्‍याएं हैं। भरत बहुभाषी देश है। यहां अनेक भाषाओं में फिल्‍में बनती है। सभी भाषाओं की फिल्‍मों को इन पुरस्‍कारों में उचित प्रतिनिधित्‍व नहीं मिल पाता है। इसके विपरीत कई बार हर भाषा की एक फिल्‍म को पुरस्‍कार देने के दबाव में कमजोर फिल्‍में भी पुरस्‍कृत हो जाती है। हमें राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों के संदर्भ में सभी मुद्दों पर विचार करना चाहिए। साथ ही यह भी जाहिर होना चाहिए कि क्‍या पुरस्‍कारों के लिए मंत्रालय या फिल्‍म निदेशालय की तरफ से कोई दिशानिर्देश भी रहता है। वे कौन से मानदंड होते हें,जिनके आधार पर किसी के यागदान या फिल्‍म को पुरस्‍कार के योग्‍य माना जाता है। अभी तो यही लगता है कि निर्णायक मंडल में सक्रिय और आक्रामक सदस्‍य के सौंदर्य बोध और रुचि से पुरस्‍कार प्रभावित होते हैं। कभी लोकप्रिय सिनेमा तो कभी कला सिनेमा की तरफ तराजू झुक जाता है।
मुझे लगता है कि फिल्‍मों के असीमित प्रसार के बाद अब सभी भाषओं में प्रमुख श्रेणियों के पुरस्‍कार दिए जाने चाहिए। जिन भाषाओं कम फिल्‍में बनती हैं और चुनाव की संभावनाएं नहीं हैं,उनके लिए कोई और रास्‍ता निकाला जा सकता है। हिंदी,तेलुगू और तमिल समेत अन्‍य भाषाओं की फिल्‍मों में भी सभी श्रेणियों के पुरस्‍कार की जरूरत है। इससे हर बार किसी न किसी भाषा के किसी न किसी प्रतिभा के वंचित होने की शिकायत खत्‍म होगी। इन्‍हें हम कुछ राज्‍यों में दिए जाने वाले पुरस्‍कारों के मुकाबले के तौर पर न देखें। राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों की अपनी गरिमा बरकरार रखते हुए उसके विस्‍तार का समय आ गया है।
और फिर पुरस्‍कृत फिल्‍मों एवं प्रतिभाओं की फिल्‍मों को दर्शकों के बीच ले जाने के उपाय भी खोजे जाने चाहिए। सिर्फ तमगा,प्रमाणपत्र और निश्चित राशि दे देने सं सुचना एवं प्रसारण मंत्रालय के दायित्‍व की इतिश्री नहीं हो जाती। देश में चल रहे भिन्‍न फिल्‍म समारोहों में पुरस्‍कृत फिल्‍मों के प्रदर्शन की अनिवार्यता का अधिनियम आए। साथ ही वितरकों और प्रदर्शकों पर भी दबाव हो कि वे पुरस्‍कृत फिलमों के समारोह करें। फिर पुरस्‍कारों का महत्‍व और औचित्‍य बढ़ेगा।    

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