सात सवाल : विनीत कुमार सिंह



विनीत कुमार सिंह

अजय ब्रह्मात्‍मज
सात सवाल

विनीत कुमार सिंह की फिल्म ‘मुक्काबाज’ का गुरुवार को मुंबई में आयोजित मुंबई फिल्‍म फेस्टिवल में एशिया प्रीमियर हुआ। इससे पहले फिल्‍म को टोरंटो इंटरनेशनल फिल्‍म फेस्टिवल में प्रदर्शित किया जा चुका है। वर्ष 1999 से हिंदी सिनेमा में सक्रिय विनीत उसमें श्रवण की केंद्रीय भूमिका में दिखेंगे। फिल्‍म के निर्देशक अनुराग कश्‍यप हैं। विनीत से हुई बातचीत के अंश :  
1-यहां तक के सफर में आपने काफी धैर्य और उम्मीद कायम रखी। इन्हें कैसे कायम रख पाए?
मैं वह काम करना चाहता था, जिसमें सहज रहूं। साथ ही उसे करने में मुझे आनंद की प्राप्ति हो। डॉक्टर बनने के लिए मैंने काफी मेहनत की थी। तब जाकर फल मिला था। अभिनय करने पर खुशी की अनुभूति स्‍वत: हुई। मैं उससे थकता नहीं हूं। शूटिंग के दौरान घर जाने के लिए घड़ी नहीं देखता। यकीन था कि यहां पर मेहनत करुंगा तो बेहतर पाऊंगा। पापा ने भी हमेशा कहा कि हारियो न हिम्मत बिसारियो न हरिनाम। यानी जो हिम्मत नहीं हारता है उसे रास्ते मिल जाते हैं। इन्‍ही सब वजहों से धैर्य कायम रहा।

2-आपके अभिनय के सफर की शुरुआत कैसे हुई?
मैंने वर्ष 1999-2000 के आस-पास अभिनय में कदम रखा था। मैंने एक टैलेंट हंट शो जीता था। वहां से अभिनय के सफर का आगाज हुआ। मेरी पहली फिल्म ‘पिता’ थी। वह वर्ष 2002 में रिलीज हुई थी। 

3-कहा जा रहा है कि आपको ‘मुक्‍काबाज’ में पूरा स्पेस मिला है ठीक वैसे ही जैसे नवाजुद्दीन सिद्दिकी को ‘गैंग्‍स ऑफ वासेपुर’ में मिला था?
बहुत सारे लोग अच्छा काम कर रहे हैं। मैं उन्हें देखता रहता हूं।  उनके लिए खुश भी होता हूं। खुद वैसा काम करने की कोशिश में था। मैं काम मांग सकता हूं, पर निर्णय मेरे हाथ में नहीं है। ‘मुक्‍काबाज’ में मुझे काम करने की स्वतंत्रता मिली। मैं अलग-अलग तरह की स्क्रिप्ट चाहता हूं। ताकि मेरे काम की वैरायटी से लोग वाकिफ हो सकें।

4-अनुराग कश्यप के बारे में क्या कहना चाहेंगे जो आप जैसे कलाकारों साथ भरोसे पर काम करते हैं?
अनुराग नहीं होते तो शायद हम छोटे-मोटे रोल में सिमटे होते। लोग हमारी प्रतिभा से कभी वाकिफ नहीं हो पाते। उनमें भरोसा करने की क्षमता कहां से आती है उसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। मैं उनके साथ काम करता हूं। मुझे पता है कि वह अपने संघर्ष के दिनों को भूले नहीं हैं। वह हमारी तकलीफों न सिर्फ समझते हैं बल्कि महसूस करते हैं। वह यथासंभव मदद भी करते भी हैं। मैंने देखा है कि नवोदित कलाकार हो या तकनीशियन सभी से प्यार से पेश आते हैं। मेल-मुलाकात के बाद उसे भूलते नहीं हैं। उनकी यही खासियत हम जैसे कलाकारों के लिए उम्मीद की अलख जगाए रखती है।

5-दर्शकों तक अभी ‘मुक्‍काबाज’ नहीं पहुंची है। इंडस्ट्री के जानकारों को इसकी जानकारी है। कहा जा रहा है कि आपको बेहतरीन मौका मिला है। क्या यह आपके करियर की टर्निंग प्वाइंट फिल्म होगी?
फेस्टिवल या एडीटिंग में जिस किसी ने फिल्म देखी है उनकी प्रतिक्रियाएं मुझे लगातार मिल रही हैं। ऐसा रिस्पांस मुझे पहले कभी नहीं मिला। 

6-फिल्म ‘मुक्‍काबाज’ के बारे में बताएं।
यह बॉक्सिंग करने वाले लड़के की कहानी है। उसके अपने सपने हैं। वह उसी समाज का हिस्सा है जिसमें हम रहते हैं। खिलाडिय़ों को ढेरों सुविधाएं देने के दावे होते है, लेकिन सच दिखता है। उसका उस पर कैसा असर होता है? दरअसल, सफल खिलाड़ी की कहानी स्वर्ण अक्षरों में लिखी जाती है। हालांकि एक सफल खिलाड़ी के पीछे बहुत ऐसे लोग होते हैं जो बेहतर होते हुए भी असफल हैं। उनकी कहानी कहने-सुनने में किसी की रूचि नहीं होती। उनका दर्द लोगों को पता नहीं चलता। क्योंकि उसमें ग्लैमर नहीं होता। सफल लोग कुछ ही हैं मगर उसकी दौड़ में शामिल लोगों की संख्‍या बहुत ज्‍यादा है। ‘मुक्‍काबाज’ वैसे ही लोगों की कहानी है। उसमें लवस्टोरी भी है। 

-आप भी खिलाड़ी रहे हैं...
0 मैं खुद बॉस्केटबॉल का खिलाड़ी रहा हूं। मेरा जूनियर बॉस्केटबॉल टीम का कप्तान था। कुछ और खिलाड़ी उससे बेहतर रहे हैं। वह बचपन से अच्छे खिलाड़ी थे। उनका ध्यान कभी किसी की गुडबुक में आना नहीं रहा। खेल में ही उनकी दुनिया रची-बसी रही। उनकी वह जीवनशैली कुछ अधिकारियों को खटकती थी। खेलने की उस उम्र में वे जोश में होते थे मगर  दुनियादारी से दूर। तब उन लोगों को खुश करने में चूक जाते थे जिनके हाथ में निर्णय होता है। वे उनकी आंखों में गढ़ने लगते हैं। ऐसे खिलाड़ी कई बार बेबाकी से कुछ बोल जाते हैं। यही बात उनके लिए नासूर बन जाती है। उसकी कीमत चुकानी पड़ती है। 27-28 साल की उम्र में होश आने पर उनका करियर खत्म हो जाता है। ज्‍यादातर खिलाडि़यों से यह गलती होती है। यह सब चीजें भी फिल्‍म का हिस्‍सा होंगी।  

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