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Showing posts with the label हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री

चवन्‍नी पर होली

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होली पर चवन्‍नी के आर्काइव से तीन लेखत्र इस साल शबना आजमी और अनुराग कश्‍यप ने दोस्‍तों के साथ होली को सार्वजनिक रंग दिया। कभी इस फिल्‍म इंडस्‍ट्री में रंगों की फुहार और ढोलक की थाप पर सभी सितारे ठुमकते और सराबोर होते थे। अग फिॅल्‍म इंडस्‍ट्री की होली सराबोर से घट कर बोर हो गई है। न रहा रांग, न रहे रंग। होली हो गई निस्‍संग। Friday, March 21, 2008 खेमों में बंटी फ़िल्म इंडस्ट्री, अब नहीं मनती होली हां, यहां यह याद दिलाना आवश्यक होगा कि सेटेलाइट चैनलों के आगमन और सीरियल के बढ़ते प्रसार के दिनों में सीरियल निर्माताओं ने अपनी यूनिट के लिए होली का आयोजन आरंभ किया। इस प्रकार की होली चुपके से होली के पहले ही होली के दृश्य जोड़ने के काम आने लगी। होली ने कृत्रिम रूप ले लिया। अभी फिल्म इंडस्ट्री घोषित-अघोषित तरीके से इतने खेमों में बंट गई है कि किसी ऐसी होली के आयोजन की उम्मीद ही नहीं की जा सकती, जहां सभी एकत्रित हों और बगैर किसी वैमनस्य के होली के रंगों में सराबोर हो सकें!  Sunday, March 4, 2012 हाय वो होली हवा हुई पोज बना कर होली फिल्मी इव

फिल्मों से भी रिश्ता रहा पंडित रवि शंकर का

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-अजय ब्रह्मात्मज  रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी के अंत में कास्टिंग रोल के समय महात्मा गांधी का प्रिय भजन सुनाई पड़ता है। इस भजन को अनेक गायकों ने गाया है और अनेक संगीतज्ञों ने सुर में बांधा है,लेकिन भकित,आस्था और विश्वास की जैसी धुन रवि शंकर ने संजोयी है,वह दुर्लभ है। संगीतज्ञ और सितार वादक रवि शंकर की मौलिक प्रतिभा से हम सभी वाकिफ हैं। उन्होंने भारत के शास्त्रीय संगीत को पश्चिम में लोकप्रिय किया। जार्ज हैरीसन की संगत में वे पश्चिम की तत्कालीन नौजवान पीढ़ी के हप्रिय संगीतकारों में से एक रहे। सातवें दशक के बाद वे अमेरिका और भारत के बीच बंट कर अपने संगीत से रसिकों को भावविभोर करते रहे। उन्होंने सितार की शास्त्रीयता से विश्व को परिचित कराया। वे आधुनिक और खुले विचारों के संगीतज्ञ थे। अन्य शास्त्रीय संगीतज्ञों की तरह वे जड़ और रुढि़वादी नहीं थे।     अपने बड़े भाई उदय शंकर की तरह इप्टा से उनका भी जुड़ाव था। संस्कृति के क्षेत्र में वामपंथी रुझानों के तहत उन्होंने संगीत का उपयोग किया। हिंदी फिल्मों से उनका निकट का ताल्लुक रहा। इप्टा की पहली फिल्म धरती के लाल के से वे जुड़े। ख्वाजा अहमद अब्

हिंदी फिल्में इंग्लिश मीडिया

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों मोरक्को में मराकेश इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भारतीय सिनेमा के सौ साल के सफर पर केंद्रित इवेंट आयोजित किया गया था। नाम भारतीय सिनेमा का था। मुख्य रूप से वहां हिंदी फिल्में दिखाई गई। साथ ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कुछ स्टारों को निमंत्रित किया गया था। इस इवेंट की कवरेज के लिए भारत से केवल इंग्लिश मीडिया को आमंत्रित किया गया था। माराकेश इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के आयोजक भी जानते हैं कि हिंदी फिल्मों के लिए गैर-इंग्लिश मीडिया की कोई जरूरत नहीं है। विदेश में विदेशियों द्वारा आयोजित समारोह के अधिकारियों के फैसले की क्यों शिकायत करें? सभी जानते हैं कि भारत या अपने देश में सभी राष्ट्रभाषाओं और इंग्लिश की क्या स्थिति है? फिल्में हिंदी में बनती हैं। राजनीति हिंदी में की जाती है। सारा कंज्यूमर कारोबार हिंदी में होता है, लेकिन सभी क्षेत्रों में कामकाज की भाषा इंग्लिश हो चुकी है। इंग्लिश को मिल रही प्राथमिकता से अनेक तरह की दिक्कतें भी बढ़ती जा रही हैं। यहां हम हिंदी फिल्मों की बात करें, तो हमें आए दिन इंग्लिश में बोलते स्टार टीवी में दिखाई प

धार्मिक प्रतीकों को दोहन

-अजय ब्रह्मात्मज गणेश भक्त मधुर भंडारकर हमेशा मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर और गणपति पूजा के समय पंडालों में नजर आते हैं। इस बार ‘हीरोइन’ की रिलीज के पहले करीना कपूर के साथ गणपति का आशीर्वाद लेने वे कुछ पंडालों में गए। उन्होंने अपनी फिल्म का म्यूजिक भी सिद्धिविनायक मंदिर में रिलीज किया था। किसी निर्माता-निर्देशक या कलाकार की धार्मिक अभिरुचि से कोई शिकायत नहीं हो सकती, लेकिन जब उसका इस्तेमाल प्रचार और दर्शकों को प्रभावित करने के लिए किया जाने लगे तो कहीं न कहीं इस पूरी प्रक्रिया का पाखंड सामने आ जाता है। सिर्फ मधुर भंडारकर ही नहीं, दूसरे निर्माता-निर्देशक और कलाकार भी आए दिन अपनी निजी धार्मिक भावनाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं। साथ ही उनकी कोशिश रहती है कि ऐसे इवेंट की तस्वीरें मुख्य पत्र-पत्रिकाओं में जरूर छपें। अभी तक किसी ने धार्मिक प्रतीकों और व्यवहार से प्रभावित हुए दर्शकों का आकलन और अध्ययन नहीं किया है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि देश के धर्मभीरू दर्शक ऐसे प्रचार से प्रभावित होते हैं।     फिल्मों के प्रचार-प्रसार और कंटेंट में धार्मिक प्रतीकों का शुरू से ही इस्तेमाल होता र

हां हिंदी,ना हिंदी

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-अजय ब्रह्मात्मज   आज हिंदी दिवस है। देश-विदेश की अनेक बैठकों और सभाओं में फिल्मों के संदर्भ में हिंदी की बात होगी। बताया जाएगा कि हिंदी के विकास में हिंदी फिल्मों की बड़ी भूमिका है। जो काम हिंदी के शिक्षक, अध्यापक और प्रचारक नहीं कर पाए, वह काम हिंदी फिल्मों ने कर दिया। ऊपरी तौर पर इसमें पूरी सच्चाई है। पिछले 70 सालों में हिंदी फिल्मों के संवाद और गाने सुनकर अनेक विदेशी और गैर हिंदी भाषियों ने हिंदी समझनी शुरू कर दी है। हिंदी फिल्मों से हिंदी के प्रति उनकी रुचि जागी और उनमें से कुछ आज हिंदी के क˜र समर्थक हैं। उन्होंने अपने हिंदी ज्ञान का श्रेय भी हिंदी फिल्मों को दिया है। हिंदी फिल्मों की भाषा ऐसी हिंदी होती है जिसे देश के किसी भी कोने में बैठा दर्शक समझ सके। हिंदी फिल्मों की भाषा वर्गीय दीवारों को तोड़ती है। वह हर तबके के दर्शकों के लिए एक सी होती है। फिल्मों में आवाज आने के साथ संवादों का चलन हुआ और इन संवादों की भाषा को सरल और बोधगम्य बनाने की हर कोशिश की गई। शुरू में रंगमंच और पारसी थिएटर से आए लेखकों ने इसका स्वरूप तय किया। फिर समाज के विकास के साथ भाषायी

हाय वो होली हवा हुई

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दो साल पूर्व होली से 10-12 दिनों पहले एक उभरते स्टार के पीआर का फोन आया। बाद में उक्त स्टार से भी बात हुई। उन्होंने अपनी तरफ से ऑफर किया कि अगर दैनिक जागरण में अच्छी कवरेज मिले तो वे अपनी प्रेमिका के साथ होली खेलने की एक्सक्लूसिव तस्वीरें और बातचीत मुहैया करवा सकते हैं। होली के मौके पर पाठकों को कुछ अंतरंग तस्वीरों के साथ छेड़छाड़ भरी बातचीत भी मिल जाएगी। जागरण में स्टार की इच्छा पूरी नहीं हो सकी, लेकिन सुना कि उनकी चाहत किसी और अखबार ने पूरी कर दी। पोज बना कर होली फिल्मी इवेंट के पेशेवर फोटोग्राफर कई सालों से परेशान हैं कि उन्हें होली के उत्सव और उमंग की नैचुरल तस्वीरें नहीं मिल पा रही हैं। सब कुछ बनावटी हो गया है। रंग-गुलाल लगाकर एक्टर पोज देते हैं और ऐसी होली होलिकादहन के पहले ही खेल ली जाती है। मामला फिल्मी है तो होली का त्योहार भी फिल्मी हो गया है। हवा की फगुनाहट से थोड़े ही मतलब है। स्विमिंग पूल में बच्चों के लिए बने पौंड में रंग घोल दिया जाता है या किसी सेटनुमा हॉल में होली मिलन का नाटक रच दिया जाता है। मुमकिन है मेगा इवेंट मुमकिन है कुछ सालों में कोई कारपोरेट

सितारों का भी होता है संडे

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-अजय ब्रह्मात्‍मज खुश हों कि आज नए साल की शुरुआत रविवार से हो रही है। संडे यानी सुकून का डे। देर से उठना, आराम से नाश्ता-पानी करना.. परिवार के जरूरी काम निबटाना, दोस्तों-रिश्तेदारों के घर जाना या उन्हें बुलाना, बीवी/शौहर और बच्चों के साथ फिल्म का प्रोग्राम बनाना। पर क्या आपकी इस छुट्टी को खुशगवार बनाने वाले फिल्म स्टारों की जिंदगी में भी संडे होता है या फिर वे दिन-रात काम में ही मशगूल रहते हैं और उन्हें संडे की भी सुध नहीं रहती? सलमान खान के लिए तो हर दिन संडे होता है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में उनकी तरह निश्चिंत और बेफिक्र कोई स्टार नहीं है। अगर रात भर शूटिंग कर रहे हों तो अलग बात है, अन्यथा सलमान खान आराम से दिन के लिए तैयार होते हैं। कई दफा तो मूड सही नहीं रहा तो शूटिंग रद्द करने में उन्हें देरी नहीं होती। सलमान खान आराम और फुर्सत के लिए संडे का इंतजार नहीं करते। इनके विपरीत आप अक्षय कुमार से रविवार को काम नहीं ले सकते। बेटे आरव के जन्म के बाद उन्होंने नियम बनाया कि वे पूरा रविवार बेटे आरव और बीवी ट्विंकल के साथ बिताएंगे। उनकी मां भी साथ रहती हैं तो थोड़ा समय मां के लिए भी रिजर्व रहत

ताजा उम्मीदें 2011 की

-अजय ब्रह्मात्‍मज साल बदलने से हाल नहीं बदलता। हिंदी फिल्मों के प्रति निगेटिव रवैया रखने वाले दुखी दर्शकों और सिनेप्रेमियों से यह टिप्पणी सुनने को मिल सकती है। एक तरह से विचार करें तो कैलेंडर की तारीख बदलने मात्र से ही कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। परिवर्तन और बदलाव की प्रक्रिया चलती रहती है। हां, जब कोई प्रवृत्ति या ट्रेंड जोर पकड़ लेता है, तो हम परिवर्तन को एक नाम और तारीख दे देते हैं। इस लिहाज से 2010 छोटी फिल्मों की कामयाबी का निर्णायक साल कहा जा सकता है। सतसइया के दोहों की तरह देखने में छोटी प्रतीत हो रही इन फिल्मों ने बड़ा कमाल किया। दरअसल.. 2010 में छोटी फिल्मों ने ही हिंदी फिल्मों के कथ्य का विस्तार किया। दबंग, राजनीति और तीस मार खां ने हिंदी फिल्मों के बिजनेस को नई ऊंचाई पर जरूर पहुंचा दिया, किंतु कथ्य, शिल्प और प्रस्तुति में छोटी फिल्मों ने बाजी मारी। उन्होंने आश्वस्त किया कि हिंदी सिनेमा की फार्मूलेबाजी और एकरूपता के आग्रह के बावजूद नई छोटी फिल्मों के प्रयोग से ही दर्शकों के अनुभव और आनंद के दायरे का विस्तार होगा। छोटी फिल्मों में प्रयोग की संभावनाएं ज्यादा रहती हैं। सबसे पहली