फिल्मों में वैचारिकता
-अजय ब्रह्मात्मज कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की दीवार अब ढह चुकी है, क्योंकि धीरे-धीरे कला फिल्मों के दर्शक और निर्देशक सिकुड़ते जा रहे हैं। दरअसल, समय के दबाव के कारण ही उनकी रुचि में बदलाव आया है और सच तो यह है कि अब वह दौर भी नहीं है, जब कला और व्यावसायिक सिनेमा के पार्थक्य को महत्व दिया जाता था! कला फिल्मों की टीम अलग होती थी और व्यावसायिक फिल्मों का अलग संसार था। कला फिल्मों को मिल रहा सरकारी संरक्षण बंद हो चुका है। आश्चर्य की बात तो यह है कि छोटे-मोटे निर्माता भी अब कला फिल्मों में धन निवेश नहीं करते! कला फिल्मों का सीधा रिश्ता है वैचारिकता और सामाजिकता से। हिंदी सिनेमा के इतिहास पर नजर डालें, तो हम पाएंगे कि कला फिल्मों का उद्भव घनघोर व्यावसायिकता के दौर में हुआ था। दरअसल, हिंदी फिल्मों की समृद्ध परंपरा में एक ऐसा मोड़ भी आया था, जब मुख्य रूप से प्रतिहिंसा और बदले की भावना से प्रेरित फिल्में ही बन रही थीं। सलीम-जावेद में से जावेद अख्तर ने बखूबी उस दौरान लिखी अपनी फिल्मों को समाज की बौखलाहट से जोड़ दिया, लेकिन अमिताभ बच्चन को लेकर बनी प्रमुख फिल्मों का विश्लेषण करने पर हम य