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फिल्‍म समीक्षा : सिटी आफ गोल्‍ड

-अजय ब्रह्मात्‍मज फीलगुड और चमक-दमक से भरी फिल्मों के इस दौर में धूसर पोस्टर पर भेडि़यों सी चमकती आंखों के कुछ चेहरे चौंकाते हैं। हिंदी फिल्मों के पोस्टर पर तो अमूमन किसी स्टार का रोशन चेहरा होता है। सिटी आफ गोल्ड हिंदी की प्रचलित फिल्म नहीं है। महेश मांजरेकर ने आज की मुंबई की कुछ परतों के नीचे जाकर झांका है। उन्होंने नौवें दशक के आरंभिक सालों में मुंबई के एक कराहते इलाके को पकड़ा है। यहां भूख, गरीबी, बीमारी और फटेहाली के बीच रिश्ते जिंदा हैं और जीवन पलता है। समाज की इन निचली गहराइयों पर विकास की होड़ में हम नजर नहीं डालते। महेश मांजरेकर ने मुंबई के मिलों की तालाबंदी के असर को दिखाने के लिए एक चाल चुना है। इस चाल के दड़बेनुमा कमरों में मिल मजदूरों का परिवार रहता है। सिटी आफ गोल्ड की कहानी धुरी परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है। इस परिवार का एक बेटा बाबा ही कहानी सुनाता है। बाबा के साथ अतीत के पन्ने पलटने पर हम धुरी परिवार की जद्दोजहद से परिचित होते हैं। लेखक जयंत पवार और निर्देशक महेश मांजरेकर ने सोच-समझ कर सभी चरित्रों को गढ़ा है। उनका उद्देश्य मुख्य रूप से मिलों की हड़ताल के बाद इन प

बढ़ेंगी सेंसर सर्टिफिकेट की श्रेणियां,भाषा,नग्‍नता,हिंसा और विषय होंगे आधार

-अजय ब्रह्मात्‍मज  दर्शकों की अभिरुचि की वजह से तेजी से बदल रहे भारतीय सिनेमा के मद्देनजर देश के सिनेमैटोग्राफ एक्ट में आवश्यक बदलाव लाने की जरूरत सभी महसूस कर रहे हैं। इसी दबाव में लंबे समय से अटके इस एक्ट में आवश्यक बदलाव के लिए इस बार सिनेमैटोग्राफ बिल पेश किया जा रहा है। बिल में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की कार्यप्रणाली और गठन में भी कुछ सुधार किए जाएंगे। आम दर्शकों के हित में सबसे जरूरी सुधार सेंसर की श्रेणियों को बढ़ा कर किया जा रहा है। पिछले कुछ सालों से फिल्मकार और दर्शक महसूस कर रहे थे कि सेंसर बोर्ड की तीन प्रचलित श्रेणियां भारतीय फिल्मों के वर्गीकरण के लिए पर्याप्त नहीं हैं। अभी तक भारत में यू (यूनिवर्सल- सभी के योग्य), यूए और ए श्रेणियों के अंतर्गत ही फिल्में श्रेणीकृत की जाती हैं। कई निर्देशक सालो पुरानी इस परिपाटी को आज के संदर्भ में अप्रासंगिक और अर्थहीन मानते हैं। उनकी नजर में हमें फिल्मों के श्रेणीकरण में विदेशों के अनुभव से लाभ उठाकर इनकी संख्या बढ़ानी चाहिए ताकि किशोर उम्र के दर्शकों के देखने योग्य फिल्मों का स्पष्ट वर्गीकरण हो सके। आम दर्शक नहीं जानते कि फिल्मों

रावण का पोस्‍टर

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 रावण का पोस्‍टर देख कर आप की क्‍या राय बनती है ? दो-चार शब्‍दों में कुछ 

जोखिम से मिलेगी जीत

-अजय ब्रह्मात्‍मज मध्य प्रदेश, कश्मीर, महाराष्ट्र और केरल के दूर-दराज इलाकों में फिल्मों की शूटिंग में व्यस्त इन हीरोइनों के पास न तो मुंबई के स्टूडियो का सुरक्षित माहौल है और न वे सारी सुविधाएं हैं, जिनकी उन्हें आदत पड़ चुकी है। सभी हर प्रकार से जोखिम के लिए तैयार हैं। ग्लैमर व‌र्ल्ड की चकाचौंध से दूर प्राकृतिक वातावरण में धूल-मिट्टी, हवा, जंगल और बगीचे में फिल्म की जरूरत के मुताबिक परिधान पहने इन हीरोइनों को देखकर एकबारगी यकीन नहीं होता कि अभी कुछ दिनों और घंटों पहले तक वे रोशनी में नहाती और कमर मटकाती हीरो के चारों ओर चक्कर लगा रही थीं। साफ दिख रहा है कि हिंदी फिल्मों की कहानी बदल रही है और उसी के साथ बदल रही है फिल्मों में हीरोइनों की स्थिति और भूमिका। फार्मूलाबद्ध कामर्शियल सिनेमा में आयटम गर्ल और ग्लैमर डॉल की इमेज तक सीमित हिंदी फिल्मों की हीरोइनों के बारे में कहा जाता रहा है कि वे नाच-गाने के अलावा कुछ नहीं जानतीं। ऐसे पूर्वाग्रही भी चारों सीनों में क्रमश: कट्रीना, प्रियंका, दीपिका और ऐश्वर्या की मौजूदगी से महसूस करेंगे कि हीरोइनों ने कुछ नया करने की ठान ली है। कुछ भी कर गुजरने

फिल्म समीक्षा :फूँक 2

-अजय ब्रह्मात्मज दावा था कि फूंक से ज्यादा खौफनाक होगी फूंक-2, लेकिन इस फिल्म के खौफनाक दृश्यों में हंसी आती रही। खासकर हर डरावने दृश्य की तैयारी में साउंड इफेक्ट के चरम पर पहुंचने के बाद सिहरन के बजाए गुदगुदी लगती है। कह सकते हैं कि राम गोपाल वर्मा से दोहरी चूक हो गई है। पहली चूक तो सिक्वल लाने की है और दूसरी चूक खौफ पैदा न कर पाने की है। इस फिल्म के बारे में रामू कहते रहे हैं कि मिलिंद का आइडिया उन्हें इतना जोरदार लगा कि उन्होंने निर्देशन की जिम्मेदारी भी उन्हें सौंप दी। अफसोस की बात है कि मिलिंद अपने आइडिया को पर्दे पर नहीं उतार पाए। रामू ने भी गौर नहीं किया कि फूंक-2 हॉरर फिल्म है या हॉरर के नाम पर कामेडी। किसी ने सही कहा कि जैसी कामेडी फिल्म में लाफ्टर ट्रैक चलता है, पाश्‌र्र्व से हंसी सुनाई पड़ती रहती है और हम भी हंसने लगते हैं। वैसे ही अब हॉरर फिल्मों में हॉरर ट्रैक चलना चाहिए। साथ में चीख-चित्कार हो तो शायद डर भी लगने लगे। फूंक-2 में खौफ नहीं है। आत्मा और मनुष्य केबीच का कोई संघर्ष नहीं है, इसलिए रोमांच नहीं होता। फिल्म में कुछ हत्याएं होती हैं, लेकिन उन हत्याओं से भी डर

फिल्‍म समीक्षा : पाठशाला

हिंदी फिल्मों में शिक्षा, स्कूल, पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति मुद्दा बने हुए हैं। 3 इडियट में राजकुमार हिरानी ने छात्रों पर पढ़ाई के बढ़ते दबाव को रोचक तरीके से उठाया था। अहमद खान ने पाठशाला में शिक्षा के व्यवसायीकरण का विषय चुना है। नेक इरादे के बावजूद पटकथा, अभिनय और निर्देशन की कमजोरियों की वजह से पाठशाला बेहद कमजोर फिल्म साबित होती है। बढ़ती फीस, छात्रों को रियलिटी शो में भेजने की कोशिश, छात्रों के उपयोग की चीजों की ऊंची कीमत और मैनेजमेंट के सामने विवश प्रिंसिपल ़ ़ ़ अहमद खान ने शिक्षा के व्यवसायीकरण के परिचित और सतही पहलुओं को ही घटनाओं और दृश्यों के तौर पर पेश किया है। इस दबाव के बीच अंग्रेजी शिक्षक उदयावर और स्पोर्ट्स टीचर चौहान की पहलकदमी पर सारे टीचर एकजुट होते हैं ओर वे छात्रों को असहयोग के लिए तैयार कर लेते हैं। छोटा-मोटा ड्रामा होता है। मीडिया में खबर बनती है और मुद्दा सुलझ जाता है। विषय की सतही समझ और कमजोर पटकथा फिल्म के महत्वपूर्ण विषय को भी लचर बना देती है। सारे कलाकारों ने बेमन से काम किया है। सभी कलाकारों के निकृष्ट परफार्मेस के लिए पाठशाला याद रखी जा सकती है। नाना

दरअसल : हिंदी फिल्मों में बढ़ते इंग्लिश संवाद

-अजय बह्मात्‍मज   हमारे समाज में इंग्लिश का चलन बढ़ा है और बढ़ता ही जा रहा है। हम अपनी रोजमर्रा की बातचीत में बेहिचक इंग्लिश व‌र्ड्स का इस्तेमाल करते हैं। अभी तो यह स्थिति हो गई है कि ठीक से हिंदी बोलो, तो लोगों को समझने में दिक्कत होने लगती है। इसी वजह से अखबार और चैनलों की भाषा बदल रही है। हिंदी वाले (लेखक और पत्रकार) लिखते समय भले ही हिंदी शब्दों का उपयोग करते हों, लेकिन उनकी बातचीत में अंग्रेजी के शब्द घुस चुके हैं। बोलते समय खुद को अच्छी तरह संप्रेषित करने के लिए हम अंग्रेजी शब्दों का सहारा लेते हैं। हालांकि देखा गया है कि दोबारा बोलने या सही संदर्भ और कंसर्न के साथ बोलने पर ठेठ हिंदी भी समझ में आती है, लेकिन हम सभी जल्दबाजी में हैं। कौन रिस्क ले और हमने मान लिया है कि कुछ जगहों पर अंग्रेजी ही बोलना चाहिए। फाइव स्टार होटल, एयरपोर्ट, ट्रेन में फ‌र्स्ट एसी, किसी भी प्रकार की इंक्वायरी आदि प्रसंगों में हम अचानक खुद को अंग्रेजी बोलते पाते हैं, जबकि हम चाहें तो हिंदी बोल सकते हैं और अपना काम करवा सकते हैं। कहीं न कहीं हिंदी के प्रति एक हीनभावना हम सभी के अंदर मजबूत होती जा रही है। समाज

हिंदी टाकीज द्वितीय:सिनेमा के कई रंग-ओम थानवी

यह संस्मरण चवन्नी ने मोहल्ला लाइव से लिया है . ओम थानवी से अनुमति लेने के बाद इसे यहाँ प्रकाशित करते हुए अपार ख़ुशी हो रही है.ओम जी ने इसे चवन्नी के लिए नहीं लिखा, लेकिन यह हिंदी टाकीज सीरिज़ के लिए उपयुक्त है। भाषाई विविधता और वैचारिक असहमतियों का सम्‍मान करने वाले विलक्षण पत्रकार। पहले रंगकर्मी। राजस्‍थान पत्रिका से पत्रकारीय करियर की शुरुआत। वहां से प्रभाष जी उन्‍हें जनसत्ता, चंडीगढ़ संस्‍करण में स्‍थानीय संपादक बना कर ले गये। फिलहाल जनसत्ता समूह के कार्यकारी संपादक। उनसे om.thanvi@ expressindia.com पर संपर्क किया जा सकता है। हमारे कस्बे फलोदी में तब एक सिनेमा हॉल था। अब दो हैं। पर पहले जो था उसमें सिनेमा तो था, हॉल नहीं था। यानी चारदीवारी थी, छत नहीं थी। सर्दी हो या गरमी, नीले गगन के तले सिनेमा का अजब प्यार पलता था। और तो और, ‘हॉल’ में कुर्सियां भी नहीं थीं। मुक्ताकाशी था, इसलिए फिल्में दिन ढलने के बाद ही देखी-दिखायी जा सकती थीं। उस सिनेमाघर का नाम था – श्रीलटियाल टाकीज। लटियाल देवी का नाम है, इसलिए ‘श्री’ उपसर्ग। ऐसे ही बीकानेर में घर के पास जो सिनेमाघर था, उसका नाम था श्रीगंगा थ

दरअसल : सेंसर बोर्ड की सावधानियां

-अजय ब्रह्मात्‍मज     फिल्मों के विषय, संवाद और रेफरेंस के संबंध में पैदा हो रहे नित नए विवादों के मद्देनजर सेंसर बोर्ड कुछ ज्यादा ही सावधान हो गया है। जब भी किसी फिल्म के प्रसंग में कोई आपत्ति उठती है, तो सेंसर बोर्ड को भी अनायास कठघरे में खड़ा किया जाता है। सवाल पूछे जाते हैं कि सेंसर बोर्ड के सदस्यों ने क्यों ध्यान नहीं दिया? बार-बार की जवाबदेही से बचने के लिए सेंसर बोर्ड के सदस्य एहतियातन विवादास्पद दृश्य और संवादों को पहले ही कटवा देते हैं। थोड़ी भी शंका होने पर वे निर्माता पर दबाव डालते हैं। इन दिनों फिल्में जिस जल्दबाजी और हड़बड़ी में रिलीज की जा रही हैं, उसमें समय की कमी और दांव पर लगे पैसे को ध्यान में रखते हुए निर्माता आनाकानी नहीं करता। निर्देशक ने ना-नुकुर की, तो उस पर दबाव डाला जाता है। सेंसर के सुझाव के मुताबिक दृश्य काट कर, संवाद बदल कर या शब्दों को ब्लिप कर फिल्में रिलीज हो रही हैं। पिछले दिनों विशाल भारद्वाज, दिबाकर बनर्जी, संजय गुप्ता जैसे निर्माता-निर्देशक सेंसर बोर्ड की इन सावधानियों के शिकार हुए। विशाल भारद्वाज के कमीने में उत्तर प्रदेश के एक शहर का नाम बदल कर कु

पैशन से बनती हैं फिल्में: सूरज बड़जात्या

-अजय ब्रह्मात्‍मज  पिछली सदी का आखिरी दशक एक्शन के फार्मूले में बंधी एक जैसी फिल्मों में प्रेम की गुंजाइश कम होती जा रही थी। दर्शक ऊब रहे थे, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री को होश नहीं था कि नए विषयों पर फिल्में बनाई जाएं। फिल्म इंडस्ट्री का एक नौजवान भी कुछ बेचैनी महसूस कर रहा था। प्रेम की कोमल भावनाओं को पर्दे पर चित्रित करना चाहता था। सभी उसे डरा रहे थे कि यह प्रेम कहानियों का नहीं, एक्शन फिल्मों का दौर है। प्रेम कहानी देखने दर्शक नहीं आएंगे, लेकिन उस नौजवान को अपनी सोच पर भरोसा था। उसका नाम है सूरज बडजात्या और उनकी पहली फिल्म है, मैंने प्यार किया। कुछ वर्ष बाद आई उनकी फिल्म हम आपके हैं कौन को एक मशहूर समीक्षक ने मैरिज विडियो कहा था, लेकिन दर्शकों ने उसे भी खुले दिल से स्वीकार किया। सौम्य, सुशील और संस्कारी सूरज बडजात्या को कभी किसी ने ऊंचा बोलते नहीं सुना। सूरज ने अभी तक बाजार के दबाव को स्वीकार नहीं किया है। प्रस्तुत है फिल्मों में उनके सफर विभिन्न आयामों पर एक समग्र बातचीत। कौन सी शुरुआती फिल्में आपको याद हैं? पांच-छह साल की उम्र से ट्रायल में जाता था। फिल्म सूरज और चंदा याद है। दक्षि