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दरअसल : बेहद जरूरी हैं किताबें

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-अजय ब्रह्मात्मज     पिछले दिनों दिल्ली में एक कॉलेज के मीडिया छात्रों से बतियाने का मौका मिला। इन दिनों महाविद्यालयों में भी मीडिया भी एक विषय है। इसके अंतर्गत मीडिया के विभिन्न माध्यमों में से एक सिनेमा का भी पाठ्यक्रम शामिल कर लिया गया है। इस पाठ्यक्रम के तहत सिनेमा की मूलभूत जानकारियां दी जाती है। पाठ्यक्रम निर्धारण से लेकर उसके अध्यापन तक में शास्त्रीय और पारंपरिक अप्रोच अपनाने की वजह से छात्र सिनेमा की समझ बढ़ाने के बजाय दिग्भ्रमित हो रहे हैं। जिन कॉलेज के अध्यापक मीडिया के वर्तमान से परिचित हैं, वे पाठ्यक्रम की सीमाओं का अतिक्रमण कर छात्रों को व्यावहारिक जानकारी देते हैं। वर्ना ज्यादातर कॉलेज में अध्यापक अचेत रहते हैं।     गौर करें तो सिनेमा तेजी से फैल रहा है। यह हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है। मैं इसे धर्म की संज्ञा देता हूं। मनोरंजन के इस धर्म ने तेजी से प्रभावित किया है। भारतीय समाज में मनोरंजन के अन्य साधनों के अभाव में सिनेमा की उपयोगिता बढ़ जाती है। बचपन से हम जाने-अनजाने सिनेमा से परिचित होते हैं। बगैर निर्देश और पाठ के अपनी समझ विकसित करते हैं। वास्तव में

शोक का शौक

दरअसल : नया क्लब है 200 करोड़ का

-अजय ब्रह्मात्‍मज     100 करोड़ क्लब का लक्ष्य पुराना हो गया। कामयाब फिल्मों का नया क्लब 200 करोड़ का है। खानत्रयी के अलावा अजय देवगन,अक्षय कुमार,रितिक रोशन,अभिषेक बच्चन पहले ही 100 करोड़ के  क्लब में दाखिल हो चुके हैं। इस साल अर्जुन कपूर और सिद्धार्थ आनंद भी इसमें प्रवेश कर गए। वरुण धवन और कुछ नए स्टार भी करीब पहुंच चुके हैं। दस्तक दे रहे हैं। लोकप्रिय स्टारों को 100 करोड़ की चिंता नहीं रहती। पिछले दिनों शाह रुख खान ने कहा ही कि 100 करोड़ का कलेक्शन तो आम बात हो गई है। बढ़ती प्रिंट संख्या,मल्टीप्लेक्स,टिकट के बढ़े मूल्यों से पहले ही हफ्ते में चार-पांच दिनों के अंदर 100 करोड़ का आंकड़ा छूना आसान हो गया है। बशर्ते फिल्म में कोई पॉपुलर स्टार हो। एक-दो गाने हिट हो गए हों। आयटम नंबर हो। मनोरंजन के इन तत्वों से 100 करोड़ के क्लब की सदस्यता मिल जाती है। वैसे अभी तक तीन शुक्रवार से रविवार के तीन दिनों के वीकएंड में 100 करोड़ का जादुई आंकड़ा किसी फिल्म ने नहीं छुआ है। ‘सिंघम रिटन्र्स’ से उम्मीद बंधी थी,लेकिन फिल्म अगले ही दिन फिसल गई थी।     2 अक्टूबर को रिलीज हुई ‘बैंग बैंग’ से उम्मीद थी

फिल्‍म समीक्षा : हैप्‍पी न्‍यू ईयर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    फराह खान और शाह रुख खान की जोड़ी की तीसरी फिल्म 'हैप्पी न्यू इयर' आकर्षक पैकेजिंग का सफल नमूना है। पिता के साथ हुए अन्याय के बदले की कहानी में राष्ट्रप्रेम का तडका है। नाच-गाने हैं। शाहरुख की जानी-पहचानी अदाएं हैं। साथ में दीपिका पादुकोण, अभिषेक बच्‍चन, सोनू सूद, बोमन ईरानी और विवान शाह भी हैं। सभी मिलकर थोड़ी पूंजी से मनोरंजन की बड़ी दुकान सजाते हैं। इस दुकान में सामान से ज्‍यादा सजावट है। घिसे-पिटे फार्मूले के आईने इस तरह फिट किए गए हैं कि प्रतिबिंबों से सामानों की तादाद ज्‍यादा लगती है। इसी गफलत में फिल्म कुछ ज्‍यादा ही लंबी हो गई है। 'हैप्पी न्यू इयर' तीन घंटे से एक ही मिनट कम है। एक समय के बाद दर्शकों के धैर्य की परीक्षा होने लगती है। चार्ली(शाहरुख खान) लूजर है। उसके पिता मनोहर के साथ ग्रोवर ने धोखा किया है। जेल जा चुके मनोहर अपने ऊपर लगे लांछन को बर्दाश्त नहीं कर पाते। चार्ली अपने पिता के साथ काम कर चुके टैमी और जैक को बदला लेने की भावना से एकत्रित करता है। बाद में नंदू और मोहिनी भी इस टीम से जुड़ते हैं। हैंकिंग के उस्ताद

हमने भी ‘हैदर’ देखी है - मृत्युंजय प्रभाकर

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-मृत्युंजय प्रभाकर  बचपन से मुझे एक स्वप्न परेशान करता रहा है. मैं कहीं जा रहा हूँ और अचानक से मेरे पीछे कोई भूत पड़ जाता है. मैं जान बचाने के लिए बदहवास होकर भागता हूँ. जाने कितने पहाड़-नदियाँ-जंगल लांघता दौड़ता-भागता एक दलदल में गिर जाता हूँ. उससे निकलने के लिए बेतरह हाथ-पाँव मारता हूँ. उससे निकलने की जितनी कोशिश करता हूँ उतना ही उस दलदल में धंसता जाता हूँ. भूत मेरे पीछे दौड़ता हुआ आ रहा है. मैं बचने की आखिर कोशिश करता हूँ पर वह मुझ पर झपट्टा मारता है और तभी मेरी आँखें खुल जाती हैं.   आँखें खुलने पर एक बंद कमरा है. घुटती हुई सांसें हैं. पसीने से भीगा बदन है. अपनी बेकसी है. भाग न पाने की पीड़ा है. पकड़ लिए जाने का डर है. उससे निकल जाने की तड़प है. एक अजब सी बेचारगी है. फिर भी बच निकलने का संतोष है. जिंदा बच जाने का सुखद एहसास है जबकि जानता हूँ यह मात्र एक स्वप्न है. ‘हैदर’ फिल्म में वह बच्चा जब लाशों से भरे ट्रक में आँखें खोलता है और ट्रक से कूदकर अपने जिंदा होने का जश्न मनाता है तब मैं अपने बचपन के उस डरावने सपने को एक बार फिर जीता हूँ. उसके जिंदा निकल आने पर वैसे

नकाब है मगर हम हैं कि हम नहीं: कश्मीर और सिनेमा -प्रशांत पांडे

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 प्रशांत पांडे   विशाल भारद्वाज की हैदर के शुरुआती दृश्यों में एक डॉक्टर को दिखाया गया है जो अपने पेशे को धर्म मानकर उस आतंकवादी का भी इलाज करता है जिसे कश्मीर की सेना खोज रही है। फिर एक सीन है जिसमे लोग अपने हाथों में अपनी पहचान लिए घरों से निकले हैं और इस पहचान पंगत में डॉक्टर भी शुमार है। सेना कोई तस्दीक अभियान चलाती दिखती है और फौज की गाड़ी में एक शख्स बैठा है जो उस भीड़ में से पहचान कर रहा है। गौरतलब है कि पहचान करने वाले व्यक्ति की पहचान एक मास्क से छुपाई गयी है। वो कई लोगों को नफ़रत के साथ चिन्हित करता है , उनमे डॉक्टर की पहचान भी होती है। इस प्रतीकात्मक सीन में ही विशाल ये बात कायम कर देते हैं कि वो फिल्म को किसी तरह का जजमेंटल जामा नहीं पहनायेंगे , बल्कि साहस से सब कुछ कहेंगे। बाद में हालांकि , हिम्मत की जगह इमोशन ले लेते हैं और ये व्यक्तिगत बदले की कहानी , मां बेटे के रिश्ते की कहानी भी बनती है। कश्मीर की आत्मा को किसी ने इस तरह इससे पहले झकझोरा हो ये मुझे याद नहीं। हालांकि , कश्मीर को लेकर सिनेमा ही सबसे ज्यादा बहस छेड़ता रहा और एक्सप्लोर करने के सिवाय कुछ फि

खुशियां बांटता हूं मैं-रणवीर सिंह

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-अजय ब्रह्मात्मज     रणवीर सिंह से यह बातचीत शुरु ही होने जा रही थी कि उन्हें रितिक रोशन का एसएमएस मिला,जिसमें उन्होंने रणवीर सिंह को ‘बैंग बैंग डेअर’ के लिए आमंत्रित किया था। रणवीर सिंह ने बातचीत आरंभ करने के पहले उनका चैलेंज स्वीकार किया। उन्होंने झट से अपनी मैनेजर को बुलाया और आवश्यक तैयारियों का निर्देश दिया। अचानक उनकी घड़ी पर मेरी नजर पड़ी। रात के बारह बजे उनकी घड़ी में 6 बजने जा रहे थे। सहज जिज्ञासा हुई कि उनकी घड़ी छह घंटे आगे है या छह घंटे पीछे? झुंझला कर उन्होंने हाथ झटका और कहा,‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मेरी घड़ी स्लो क्यों हो जा रही है? यह तो अपशकुन है। ‘फाइंडिंग फैनी’ के कैमियो रोल के लिए मुझे यह घड़ी गिफ्ट में मिली थी। होमी अदजानिया से पूछना होगा। उनकी फिल्म तो निकल गई। यह घड़ी क्यों स्लो हो गई?’ रणवीर सिंह बताते हैं कि होमी बड़े ही फनी मिजाज के हैं। उनके साथ फिल्म करने में मजा आएगा।     एनर्जी से भरपूर रणवीर सिंह कभी गंभीर मुद्रा में नहीं रहते। गंभीर सवालों के जवाब में भी उनकी हंसी फूट पड़ती है। ऐसा लगता है कि वे बहुत सोच-समझ कर जवाब नहीं देते,लेकिन गौर करें त

हैदर : कश्मीर के कैनवास पर हैमलेट - जावेद अनीस

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-जावेद अनीस  सियासत बेरहम हो सकती है, कभी कभी यह ऐसा जख्म देती है कि वह नासूर बन जाता है, ऐसा नासूर जिसे कई पीढ़ियाँ ढ़ोने को अभिशप्त होती हैं, आगे चलकर यही सियासत इस नासूर पर बार-बार चोट भी करती जाती है ताकि यह भर ना सके और वे इसकी आंच पर अपनी रोटियां सेकते हुए सदियाँ बिता सकें । 1947 के बंटवारे ने इन उपमहादीप को कई ऐसे नासूर दिए हैं जिसने कई सभ्यताओं-संस्कृतियों और पहचानों को बाँट कर अलग कर दिया है जैसे पंजाब, बंगाल और कश्मीर भी । इस दौरान कश्मीर भारत और पाकिस्तान के लिए अपने-अपने राष्ट्रवाद के प्रदर्शन का अखाड़ा सा बन गया है । पार्टिशन से पहले एक रहे यह दोनों पड़ोसी मुल्क कश्मीर को लेकर दो जंग भी लड़ चुके हैं, छिटपुट संघर्ष तो बहुत आम है । आज कश्मीरी फौजी सायों और दहशत के संगिनियों में रहने को मजबूर कर दिए गये हैं । खुनी सियासत के इस खेल में अब तो लहू भी जम चूका है । आखिर “जन्नत” जहन्नम कैसे बन गया, वजह कुछ भी हो कश्मीर के जहन्नम बनने की सबसे ज्यादा कीमत कश्मीरियो ने ही चुकाई है,सभी कश्मीरियों ने । ऐसी कोई फिल्म याद नहीं आती है जो कश्मीर को इतने संवदेनशीलता के साथ प्रस्त

हैदर यानी कश्‍मीरियत की त्रासदी

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- जगदीश्‍वर चतुर्वेदी  ”हैदर” फिल्म पर बातें करते समय दो चीजें मन में उठ रही हैं। पहली बात यह कि कश्मीर के बारे में मीडिया में नियोजित हिन्दुत्ववादी प्रचार अभियान ने आम जनता में एक खास किस्म का स्टीरियोटाइप या अंधविचार बना दिया है। कश्मीर के बारे में सही जानकारी के अभाव में मीडिया का समूचा परिवेश हिन्दुत्ववादी कु-सूचनाओं और कु-धारणाओं से घिरा हुआ है। ऐसे में कश्मीर की थीम पर रची गयी किसी भी रचना का आस्वाद सामान्य फिल्म की तरह नहीं हो सकता। किसी भी फिल्म को सामान्य दर्शक मिलें तब ही उसके असर का सही फैसला किया जा सकता है। दूसरी बात यह कि हिन्दी में फिल्म समीक्षकों का एक समूह है जो फिल्म के नियमों और ज्ञानशास्त्र से रहित होकर आधिकारिकतौर पर फिल्म समीक्षा लिखता रहता है। ये दोनों ही स्थितियां इस फिल्म को विश्लेषित करने में बड़ी बाधा हैं। फिल्म समीक्षा कहानी या अंतर्वस्तु समीक्षा नहीं है। ” हैदर ” फिल्म का समूचा फॉरमेट त्रासदी केन्द्रित है। यह कश्मीरियों की अनखुली और अनसुलझी कहानी है। कश्मीर की समस्या के अनेक पक्ष हैं।फिल्ममेकर ने इसमें त्रासदी को चुना है।यहां राजनीतिक पहल

फिल्‍म समीक्षा : सोनाली केबल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  बड़ी मछलियां तालाब की छोटी मछलियों को निगल जाती हैं। अपना आहार बना लेती हैं। देश-दुनिया के आर्थिक विकास के इस दौर में स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां स्थानीय उद्यमियों के व्यापार को निगलने के साथ नष्ट कर रही हैं। इस व्यापक कथा की एक उपकथा 'सोनाली केबल' में है। अपने इलाके में सोनाली केबल चला रही सोनाली ऐसी परिस्थितियों में फंसती है। फिल्म में सोनाली विजयी होती है। वास्तविकता में स्थितियां विपरीत और भयावह हैं। निर्देशक चारूदत्त आचार्य ने अपनी सुविधा से किरदार गढ़े हैं। उन्होंने प्रसंगों और परिस्थितियों के चुनाव में भी छूट ली है। तर्क और कारण को किनारे कर दिया है। सिर्फ भावनाओं और संवेगो के आधार पर ही आर्थिक आक्रमण का मुकाबला किया गया है। हम अपने आसपास देख रहे हैं कि सभी प्रकार के उद्यमों में किस प्रकार रिटेल व्यापारी मल्टीनेशनल के शिकार हो रहे हैं। सोनाली का मुकाबला मल्टीनेशनल कंपनी से है। इस मल्टीनेशनल कंपनी की नीति और समझ में सारे मनुष्य उसके ग्राहक हैं। अपने उत्पादों को उनकी जरूरत बनाने के बाद वह उनसे लाभ कमाएगी। इस