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Showing posts from February, 2013

निराश करती हैं गुलजार से अपनी बातचीत में नसरीन मुन्‍नी कबीर

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(इन द कंपनी ऑफ ए पोएट गुलजार इन कंवर्सेशन विद नसरीन मुन्नी कबीर) पढऩे के बाद ... -अजय ब्रह्मात्मज     भारतीय मूल की नसरीन मुन्नी कबीर लंदन में रहती हैं। हिंदी फिल्मों में उनकी गहरी रुचि है। पिछले कई सालों से वह हिंदी फिल्मों का अध्ययन कर रही हैं। लंदन के चैनल 4 टीवी के लिए उन्होंने हिंदी सिनेमा पर कई कार्यक्रम बनाए। 46 कडिय़ों की मूवी महल उनका उल्लेखनीय काम है। गुरुदत्त को उन्होंने नए सिरे से स्थापित किया। शुरू के मौलिक और उल्लेखनीय कार्यो के बाद वह इधर जिस तेजी से पुस्तकें लिख और संपादित कर रही हैं, उस से केवल पुस्तकों की संख्या बढ़ रही है। अध्ययन और विश्लेषण के लिहाज से इधर की पुस्तकें बौद्धिक खुराक नहीं दे पातीं। चूंकि हिंदी फिल्मों पर लेखन का घोर अभाव है, इसलिए अंग्रेजी में उनके औसत लेखन को भी उल्लेखनीय सराहना मिल जाती है।     हिंदी फिल्मों के स्टार, डायरेक्टर और अन्य महत्वपूर्ण लोगों को अंग्रेजी में बात करना जरूरी लगता है। अंग्रेजी के पत्रकारों और लेखकों के लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं, जबकि हिंदी का कोई अध्येता उनकी चौखट पर सिर भी फोड़ दे तो वे नजर न डालें। जी हां, य

on stage speeches and backstage interviews of oscar award winners 2

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ONSTAGE SPEECH CATEGORY: Costume Design SPEECH BY: Jacqueline Durran FILM: "ANNA KARENINA" Thank you to the Academy. This is absolutely overwhelming. And I’d like to accept it on behalf of the great team that worked with me on Anna Karenina. A wonderful director—Joe Wright. And fantastic producers at Working Title and my children for bearing with me. They’re completely oblivious to this. They’re fast asleep in England. BACKSTAGE INTERVIEW CATEGORY: Costume Design INTERVIEW WITH: Jacqueline Durran FILM: "ANNA KARENINA" Q.Congratulations to you.  This is your first Oscar win tonight? A.Yes. Q.How do you feel?  How are we feeling? A.Totally overwhelmed.  But absolutely delighted. Q.The costume design inside ANNA KARENINA, you    I haven't really seen a film go so much into the psyche of each character, and the costumes are so much more outwardly indicative of what the characters are going through.  How did you    how were you able to figu

on stage speeches and backstage interviews of oscar award winners

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Onstage Speech Transcript | 85th Academy Awards Actor in a Supporting Role ONSTAGE SPEECH CATEGORY: Performance by an actor in a supporting role SPEECH BY: Christoph Waltz FILM: "Django Unchained" Thank you. Thank you so much, Mr. De Niro, Mr. Arkin, Mr. Hoffman and Mr. Jones, my respect. My… my unlimited gratitude goes to Dr. King Schultz. That is, of course, to the creator and the creator of his awe-inspiring world – Quentin Tarentino. And I thank Jamie Foxx and Leo DiCaprio. Sam Jackson and Kerry Washington. I thank Harvey Weinstein and Amy Pascal. Stacey Sher. Reginald Hudlin and Pilar Savone. I thank Adam Schweitzer and Lisa Kasteler. And I thank my friends Jeff Dashnaw and Bill Clark who saved my neck. We participated in a hero’s journey – the hero here being Quentin. And you scale the mountain because you’re not afraid of it. You slay the dragon because you’re not afraid of it and you cross through fire because it’s worth it. I borrowed my character’

naman ramchandran on anurag kashyap

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नमन रामचंद्रन का यह लेख अनुराग कश्‍यप के निर्देशन और उनकी फिल्‍म गैंग्‍स ऑफ वासेपुर को समझने की नई दृष्टि देता है। यह लेख पत्रिका के sight and sound मार्च अंक में छपा है। अनुराग के आलोचकों और प्रशंसकों दोनों के निमित्‍त है यह लेख्‍ा... Naman Ramachandran Friday, 22 February 2013 from our March 2013 issue Keeping Bollywood routines at ironic distance, Anurag Kashyap’s sprawling, scintillating gangster saga could be the international breakout that Indian cinema has been waiting for. Anurag Kashyap first came to prominence in filmmaking circles for writing Ram Gopal Varma’s Satya (1998), one of Indian cinema’s best examples of the gangster genre. However, his feature-directing debut, the visceral abduction drama Paanch (2003), went unreleased; his next film, Black Friday (2004), a procedural about the 1993 Mumbai bomb blasts, was initially banned in India and re

निर्देशक की सामन्ती कुर्सी और लेखक का समाजवादी लैपटॉप (part 2) - दीपांकर गिरि

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(continued from previous post) दीपांकर गिरि लोग “बायसिकल थीव्स ” की बात करते हैं ..”मालेगांव के  सुपरमैन” की बात करते हैं और फिल्मो के जुनून में पगलाए रहते हैं ….सिनेमा को बदलने की बातें करते हैं पर ब्लू फिल्म की बातें कोई नहीं करता ….अभी 10 साल तक जो भी फिल्म शुरू होता था उससे पहले किसी देवी देवता की पूजा करते हुए दिखाई देते थे और सिनेमा के  परदे संस्कार बांटा करते थे  ……ज़ाहिर हैं ब्लू  फिल्में संस्कार नहीं फैलाती  तो सिनेमाई  पैशन से ही कौन सा समाज बदल रहा है .?..कौन सा नया आर्ट डिस्कवर हो रहा है  …न “दो बीघा ज़मीन” बदल सका छोटे  किसानो की हालत न “पीपली लाइव” ….फिर सिनेमा बनाने का purpose   क्या है  ? इससे अच्छा तो पंकज उधास का गाया  “चिट्ठी  आई है ” गाना था जिसे सुनने के बाद विदेशों में बसे कई हिंदुस्तानी डॉक्टर्स अपनी मिटटी……. अपने वतन लौट आये थे …. फिर सिनेमा का ये स्वांग क्यों ?…क्या इतनी बेहतरीन फिल्मो के बावजूद ईरान  में रह रही औरतों के सामाजिक अस्तित्व में कोई सुधार आया है … और ये बहस बहुत पुरानी हो चुकी है की हम कुछ बदलने के लिए सिनेमा नहीं बना रहे ….हम सिर्फ दर्श

फिल्‍म समीक्षा : काय पो छे

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-अजय ब्रह्मात्मज गुजराती भाषा का 'काय पो छे' एक्सप्रेशन हिंदी इलाकों में प्रचलित 'वो काटा' का मानी रखता है। पतंगबाजी में दूसरे की पतंग काटने पर जोश में निकला यह एक्सप्रेशन जीत की खुशी जाहिर करता है। 'काय पो चे' तीन दोस्तों की कहानी है। तीनों की दोस्ती का यह आलम है कि वे सोई तकदीरों को जगाने और अंबर को झुकाने का जोश रखते हैं। उनकी दोस्ती के जज्बे को स्वानंद किरकिरे के शब्दों ने मुखर कर दिया है। रूठे ख्वाबों को मना लेने का उनका आत्मविश्वास फिल्म के दृश्यों में बार-बार झलकता है। हारी सी बाजी को भी वे अपनी हिम्मत से पलट देते हैं। तीन दोस्तों की कहानी हिंदी फिल्मों में खूब पसंद की जा रही है। सभी इसका क्रेडिट फरहान अख्तर की फिल्म 'दिल चाहता है' को देते हैं। थोड़ा पीछे चलें तो 1981 की 'चश्मेबद्दूर' में भी तीन दोस्त मिलते हैं। सिद्धार्थ, ओमी और जय। 'काय पो चे' में भी एक ओमी है। हिंदी फिल्मों में रेफरेंस पाइंट खोजने निकलें तो आज की हर फिल्म के सूत्र किसी पुरानी फिल्म में मिल जाएंगे। बहरहाल, 'काय पो छे' चेतन भगत के बेस्ट स

फिल्‍म समीक्षा : जिला गाजियाबाद

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-अजय ब्रह्मात्मज इसी हफ्ते रिलीज हुई 'काय पो चे' से ठीक उलट है 'जिला गाजियाबाद'। सब कुछ बासी, इतना बासी की अब न तो उसमें स्वाद रहा और न उबाल आता है। हाल-फिलहाल में हिट हुई सभी मसाला फिल्मों के मसाले लेकर बनाई गई एक बेस्वाद फिल्म ़ ़ ़ कोई टेस्ट नहीं, कोई एस्थेटिक नहीं। बस धूम-धड़ाका और गोलियों की बौछार। बीच-बीच में गालियां भी। निर्माता विनोद बच्चन और निर्देशक आनंद कुमार ने मानो तय कर लिया था कि अधपकी कहानी की इस फिल्म में वे हाल-फिलहाल में पॉपुलर हुई फिल्मों के सारे मसाले डाल देंगे। दर्शकों को कुछ तो भा जाए। एक्शन, आयटम नंबर, गाली-गलौज, बेड सीन, गोलीबारी, एक्शन दृश्यों में हवा में ठहरते और कुलांचे मारते लोग, मोटरसायकिल की छलांग, एक बुजुर्ग एक्टर का एक्शन, कॉलर डांस ़ ़ ़ 'जिला गाजियाबाद' में निर्माता-निर्देशक ने कुछ भी नहीं छोड़ा है। हालांकि उनके पास तीन उम्दा एक्टर थे - विवेक ओबेराय, अरशद वारसी और रवि किशन, लेकिन तीनों के किरदार को उन्होंने एक्शन में ऐसा लपेटा है कि उनके टैलेंट का कचूमर निकल गया है। तीनों ही कलाकार कुछ दृश्यों में शानदार