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Showing posts from August, 2010

हिंदी सिनेमा में खलनायक-मंजीत ठाकुर

मंजीत ठाकुर हिंदी फिल्मों का एक सच है कि अगर नायक की को बड़ा बनाना हो तो खलनायक को मजबूत बनाओ। उसे नायक जैसा बना दो। यह साबित करता है कि रामायण और महाभारत केवल राम और कृष्ण की वजह से ही नहीं, रावण और दुर्योधन की वजह से भी असरदार हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक में धार्मिक कथाओं और किंवदंतियों पर सारी फ़िल्में बनीं। इन कथाओं के नायक देव थे और खलनायक राक्षसगण। हिंदुस्तानी सिनेमा में गांधी जी असर बेहद खास था और शायद इसी वजह से पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर नहीं थे और उनके चरित्र भी सुपरिभाषित नहीं थे। उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने वाले सामाजिक कुप्रथाओं और अंधविश्वासग्रस्त लोग थे। ‘ अछूत कन्या ’ में प्रेम-कथा के विरोध करने वाले जाति प्रथा में सचमुच विश्वास करते थे। इसीतरह महबूब खान की ‘ नज़मा ’ में पारंपरिक मूल्य वाला मुसलिम ससुर परदा प्रथा नामंजूर करने वाली डॉक्टर बहू का विरोध करता है और 1937 में ‘ दुनिया ना माने ’ का वृद्ध विधुर युवा कन्या से शादी को अपना अधिकार ही मानता है। पचास और साठ के दशक में साहूकार के साथ दो और खलनायक जुड़े- डाकू और जमींदार। खलनायक का ये चरित्र ‘

मल्टीप्लेक्स में क्षेत्रीय फिल्में

मुंबई में महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के तौर-तरीकों से सहमत नहीं हुआ जा सकता। मराठी अस्मिता की लड़ाई के लिए देश की दूसरी संस्कृतियों की बढ़ती पहचान को जबरन रोकना असांविधानिक और गलत है। फिर भी राज ठाकरे ने मल्टीप्लेक्स मालिकों पर मराठी फिल्मों के शोज प्राइम टाइम पर रखने का जो दबाव डाला है, वह मराठी सिनेमा के अस्तित्व और विकास के लिए जरूरी पहल है। न सिर्फ महाराष्ट्र में, बल्कि दूसरे प्रांतों में भी हमें मल्टीप्लेक्स मालिकों पर दबाव डालना चाहिए कि वे अपने प्रांत और क्षेत्र विशेष की फिल्मों का प्रदर्शन अवश्य करें। राजस्थान में राजस्थानी, हरियाणा में हरियाणवी और छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी भाषा में बनी फिल्मों का प्रदर्शन अनिवार्य करने पर निश्चित ही उन भाषाओं में सक्रिय फिल्म निर्माताओं को संबल मिलेगा। फिल्मों के वितरण और प्रदर्शन के तंत्र से दर्शकों का सीधा रिश्ता नहीं बनता। उन्हें सामान्य रूप में लगता है कि जो फिल्में चलती हैं या जिनकी चलने की उम्मीद होती हैं, थिएटरों के मालिक उन फिल्मों का ही प्रदर्शन करते हैं। ऊपरी तौर पर यह सच है, लेकिन भीतर ही भीतर वितरकों की लॉबी और निर्माताओं के प्रभाव

फिल्‍म समीक्षा लफंगे परिंदे

गढ़ी प्रेमकहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज एक नंदू है और एक पिंकी। दोनों मुंबई की एक ही वाड़ी में रहते हैं। निम्न मध्यवर्गीय परिवार की इस वाड़ी में पिंकी का परिवार तो दिखता है, लेकिन नंदू के परिवार का कोई सदस्य नहीं दिखता। उसके तीन और लफंगे दोस्त हैं। बॉक्सिंग का शौकीन नंदू वन शॉट नंदू के नाम से मशहूर हो जाता है। दूसरी तरफ पिंकी स्केटिंग डांस के जरिए इस वाड़ी से निकलने का सपना देखती है। इन दोनों के बीच उस्मान भाई आ जाते हैं। अनचाहे ही उनकी करतूत से दोनों की जिंदगी प्रभावित होती है। और फिर एक प्रेमकहानी गढ़ी जाती है। परिणीता के निर्देशक प्रदीप सरकार की लफंगे परिंदे लुक और अप्रोच में मॉडर्न होने के बावजूद प्रभावित नहीं कर पाती। लफंगे परिंदे के किरदार, लैंग्वेज, पहनावे और माहौल में मुंबई की स्लम लाइफ दिखाने में लेखक-निर्देशक असफल रहे हैं, क्योंकि सोच और दृष्टि का आभिजात्य हावी रहा है। फिल्म की जमीन स्लम की है, लेकिन उसकी प्रस्तुति यशराज की किसी और फिल्म से कम चमकीली नहीं है। फिल्म के नायक-नायिका अपने मैनरिज्म और लैंग्वेज में निरंतरता नहीं रख पाए हैं। कभी भाषा सुसंस्कृत हो जाती

दरअसल : लीला नायडू की आत्मकथा

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अनुराधा और त्रिकाल जैसी हिंदी फिल्मों की अभिनेत्री लीला नायडू के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। उनकी मृत्यु के बाद भी इस कम जानकारी की वजह से उनके बारे में ज्यादा नहीं लिखा गया। उन्होंने बाद में कवि मित्र डॉम मोरिस से शादी कर ली थी। डॉम के देहांत के बाद उनका जीवन एकाकी रहा। सार्वजनिक जीवन में उन्होंने अधिक रुचि नहीं ली और लोगों से मिलने में भी वे परहेज करती थीं। अंतर्मुखी स्वभाव की लीला के जीवन की झलक उनके ही शब्दों में जेरी पिंटो ने प्रस्तुत की है। जेरी अंग्रेजी के लोकप्रिय गद्य लेखक और कवि हैं। फिल्मी हस्तियां उन्हें आकृष्ट करती रही हैं। इसके पहले उन्होंने मशहूर फिल्मी डांसर और अभिनेत्री हेलन की जीवनी लिखी थी। जेरी ने लीला-अ पैचवर्क लाइफ को आत्मकथात्मक शैली में लिखा है। दरअसल, उन्होंने लीला की कही बातों को करीने से सजाकर पेश किया है। इस पुस्तक के अध्ययन से हम आजादी के बाद की एक स्वतंत्र स्वभाव की अभिनेत्री के बारे में करीब से जान पाते हैं। भारतीय पिता डा.रमैया नायडू और फ्रेंच मां मार्थ की बेटी लीला नायडू बचपन से ही परफॉर्मिग आ‌र्ट्स की तरफ आकर्षित थीं। उन्होंने नृत्य और नाटकों में हि

बी आर चोपड़ा का सफ़र- प्रकाश के रे

भाग- छह 1951 की फ़िल्म जांच समिति ने सिर्फ़ फ़िल्म उद्योग की दशा सुधारने के लिये सिफ़ारिशें नहीं दी थी, जैसा कि पिछले भाग में उल्लिखित है, उसने फ़िल्म उद्योग को यह सलाह भी दी कि उसे 'राष्ट्रीय संस्कृति, शिक्षा और स्वस्थ मनोरंजन' के लिये काम करना चाहिए ताकि 'बहुआयामीय राष्ट्रीय चरित्र' का निर्माण हो सके. यह सलाह अभी-अभी आज़ाद हुए देश की ज़रूरतों के मुताबिक थी और बड़े फ़िल्मकारों ने इसे स्वीकार भी किया था. बी आर चो पड़ा भी सिनेमा को 'देश में जन-मनोरंजन और शिक्षा का साधन तथा विदेशों में हमारी संस्कृति का दूत' मानते थे. महबूब, बिमल रॉय और शांताराम जैसे फ़िल्मकारों से प्रभावित चोपड़ा का यह भी मानना था कि फ़िल्में किसी विषय पर आधारित होनी चाहिए. अ पनी बात को लोगों तक पहुंचाने के लिये उन्होंने ग्लैमर और मेलोड्रामा का सहारा लिया. निर्माता-निर्देशक के बतौर अ पनी पहली फ़िल्म एक ही रास्ता में उन्होंने विधवा-विवाह के सवाल को उठाया. हिन्दू विधवाओं के विवाह का कानून तो 1856 में ही बन चुका था लेकिन सौ बरस बाद भी समाज में विधवाओं की बदतर हालत भारतीय सभ्यता के दावों पर प्रश्नच

दरअसल : हिंदी सिनेमा में आम आदमी

-अजय ब्रह्मात्‍मज जिस देश में 77 प्रतिशत नागरिकों की रोजाना आमदनी 20 रुपए से कम हो, उस देश का सिनेमा निश्चित ही बाकी 23 प्रतिशत लोग ही देखते होंगे। 20 रुपए की आमदनी में परिवार चलाने वाले चोरी-छिपे कहीं टीवी या मेले में कोई फिल्म देख लें, तो देख लें। उनके लिए तो भजन-कीर्तन, माता जी का जागरण, मजारों पर होने वाली कव्वाली या फिर गांव में थके-हारे समूह के लोकगीत ही मनोरंजन का साधन बनते हैं। शहरों में सर्विस सेक्टर से जुड़े श्रमिकों की रिहाइश पर जाकर देखें, तो 14 इंच के टीवी के सामने मधुमक्खियों की तरह आंखें डोलती रहती हैं। कभी मूड बना, तो किसी वीडियो पार्लर में घुस गए और कोई नई फिल्म देख आए। मालूम नहीं, देश के आम आदमी का कितना प्रतिशत हिस्सा हमारे सुपर स्टारों को जानता है। निर्माता-निर्देशक-लेखकों को भी फुरसत नहीं है कि वे 77 प्रतिशत की जिंदगी में झांकेंऔर उनके सपनों, संघर्ष और द्वंद्व की कहानी लिखें या बताएं। इस पृष्ठभूमि के बावजूद फिल्मों में आम आदमी आता रहता है। हाल ही में खट्टा मीठा में अक्षय कुमार ने आम आदमी की तकलीफों की एक झलक दी थी। इस फिल्मी झलक में पीड़ा से अधिक हंसी थी। एक आम आदम

फिल्‍म समीक्षा : पीपली लाइव

- अजय ब्रह्मात्‍मज अनुषा रिजवी की जिद्दी धुन और आमिर खान की साहसी संगत से पीपली लाइव साकार हुई है। दोनों बधाई के पात्र हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के तौर-तरीके से अपरिचित अनुषा और फिल्म इंडस्ट्री के उतने ही सधे जानकार आमिर... दोनों के परस्पर विश्वास से बगैर किसी दावे की बनी ईमानदार पीपली लाइव शुद्ध मनोरंजक फिल्म है। अब यह हमारी संवेदना पर निर्भर करता है किहम फिल्म में कितना गहरे उतरते हैं और कथा-उपकथा की कितनी परतों को परख पाते हैं। अगर हिंदी फिल्मों के फार्मूले ने मानसिक तौर पर कुंद कर दिया है तो भी पीपली लाइव निराश नहीं करती। हिंदी फिल्मों के प्रचलित फार्मूले , ढांचों और खांकों का पालन नहीं करने पर भी यह फिल्म हिंदी समाज के मनोरंजक प्रतिमानों को समाहित कर बांधती है। ऊपरी तौर पर यह आत्महत्या की स्थिति में पहुंचे नत्था की कहानी है , जो एक अनमने फैसले से खबरों के केंद्र में आ गया है। फिल्म में टिड्डों की तरह खबरों की फसल चुगने को आतुर मीडिया की आक्रामकता हमें बाजार में आगे रहने के लिए आवश्यक तात्कालिकता के बारे में सचेत करती है। पीपली लाइव मीडिया , पालिटिक्स , महानगर और प्रशासन को नि

आमिर लाइव!

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अभिनेता, निर्माता और निर्देशक की त्रिमूर्ति आमिर खान अभी निर्माता के रूप में मुखर हैं। वे इन दिनों अपनी फिल्म पीपली लाइव के प्रमोशन को देश-विदेश की यात्राएं कर रहे हैं। अपने स्पर्श से उन्होंने अनुषा रिजवी निर्देशित इस फिल्म के प्रति उम्मीदें बहुत बढ़ा दी हैं। फिल्म के एक गीत 'महंगाई डायन' ने दर्शकों को राजनीतिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर छुआ है। आमिर खान से यह खास बातचीत उनके दफ्तर में हुई। बातचीत करते समय वे एक साथ सचेत और अनौपचारिक रहते हैं। कुछ जवाब तो रेडीमेड होते हैं, लेकिन कुछ सवालों में वे जिज्ञासाओं को एक्सप्लोर करते हैं। कोई नई बात सूझने-समझने पर कृतज्ञता भी जाहिर करते हैं और उनका प्रिय एक्सपेशन है 'अरे हां!' [ लगभग नौ महीनों के बाद मुलाकात हो रही है आपसे। नया क्या सीखा इस बीच? ] मराठी सीख रहा हूं। हम चारों मराठी सीख रहे हैं। स्कूल में मराठी नहीं सीख पाया। तब मैं लैंग्वेज का वैल्यू नहीं समझ पाया था। भाषा के रूट्स में ही हमारा फ्यूचर है। मेरी पहली भाषा अंग्रेजी हो गई है। अब समझ में आया तो सुधार ला रहा हूं। बच्चों से कहता हूं कि मैंने अम्मी की बात पर ध्यान नहीं

फिल्‍म समीक्षा :आयशा

-अजय ब्रह्मात्‍मज सोनम कपूर सुंदर हैं और स्टाइलिश परिधानों में वह निखर जाती हैं। समकालीन अभिनेत्रियों में वह अधिक संवरी नजर आती हैं। उनके इस कौशल का राजश्री ओझा ने आयशा में समुचित उपयोग किया है। आयशा इस दौर की एक कैरेक्टर है, जिसकी बनावट से अधिक सजावट पर ध्यान दिया गया है। हम एक ऐसे उपभोक्ता समाज में जी रहे हैं, जहां साधन और उपकरण से अधिक महत्वपूर्ण उनके ब्रांड हो गए हैं। आयशा में एक मशहूर सौंदर्य प्रसाधन कंपनी का अश्लील प्रदर्शन किया गया है। कई दृश्यों में ऐसा लगता है कि सिर्फ प्रोडक्ट का नाम दिखाने केउद्देश्य से कैमरा चल रहा है। इस फिल्म का नाम आयशा की जगह वह ब्रांड होता तो शायद सोनम कपूर की प्रतिभा नजर आती। अभी तो ब्रांड, फैशन और स्टाइल ही दिख रहा है। जेन आस्टिन ने 200 साल पहले एमा की कल्पना की थी। राजश्री ओझा और देविका भगत ने उसे 2010 की दिल्ली में स्थापित किया है। जरूरत के हिसाब से मूल कृति की उपकथाएं छोड़ दी गई हैं और किरदारों को दिल्ली का रंग दिया गया है। देश के दर्शकों को आयशा देख कर पता चलेगा कि महानगरों में लड़कियों और लड़कों का ऐसा झुंड रहता है, जो सिर्फ शादी, डे

दरअसल:एक निर्देशक के बहाने

-अजय ब्रह्मात्‍मज काशी का अस्सी के स्क्रिप्ट लेखन में जुटे डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी से पिछले दिनों काफी लंबी बातचीत हुई। हिंदी के वर्तमान सिनेमा की स्थिति से खिन्न डॉ. द्विवेदी अपनी कोशिशों में लगे हैं। टीवी सीरियल चाणक्य और फिर फीचर फिल्म पिंजर के निर्माण के बाद उनकी कोई नई कृति दर्शकों के सामने नहीं आ पाई है। उन्होंने बताया कि इस अंतराल में वे रुके नहीं हैं। लगातार काम कर रहे हैं। उन्होंने उपनिषदों के आधार पर 52 एपिसोड में उपनिषद गंगा का लेखन और निर्देशन किया है। अपने इस कार्य से वे पूरी तरह संतुष्ट हैं और उन्हें विश्वास है कि चाणक्य की तरह ही दर्शक इसे भी सराहेंगे। संस्कृति और इतिहास में विशेष रुचि रखने की वजह से डॉ. द्विवेदी ने हमेशा सृजन के लिए ऐसे विषयों को चुना, जो सारगर्भित और स्थायी प्रभाव के हों। वे हिंदी फिल्मों के फैशन में कभी नहीं आ सके। यही कारण है कि श्रेष्ठ योग्यता के बावजूद उनकी कम कृतियां ही सामने आ पाई हैं। पिंजर के बाद उन्होंने पृथ्वीराज चौहान पर एक फिल्म की अवधारणा विकसित की, उसमें सनी देओल मुख्य भूमिका निभाने वाले थे। तभी राज कुमार संतोषी ने अजय देवगन के साथ पृथ्व

बी आर चोपड़ा का सफ़र- प्रकाश के रे

भाग -5 बी आर चोपड़ा के साथ आगे बढ़ने से पहले 1950 के दशक में फ़िल्म-उद्योग की दशा का जायजा ले लिया जाये. 1951 में सरकार द्वारा गठित फ़िल्म जांच आयोग ने फ़िल्म-उद्योग में व्याप्त अराजकता के ख़ात्मे के लिये एक परिषद् बनाने की सिफ़ारिश की थी. कहा गया कि यह केन्द्रीय परिषद् सिनेमा से संबंधित हर बात को निर्धारित करेगा. लेकिन इस दिशा में कुछ भी नहीं हो पाया और पुरानी समस्याओं के साथ नयी समस्याओं ने भी पैर पसारना शुरू कर दिया. स्टार-सिस्टम भी इन्हीं बीमारियों में एक था. आम तौर पर स्टार मुख्य कलाकार होते थे, लेकिन कुछ गायक और संगीतकार भी स्टार की हैसियत रखते थे. ये स्टार फ़िल्म के पूरे बजट का आधा ले लेते थे. तत्कालीन फ़िल्म उद्योग पर विस्तृत अध्ययन करनेवाले राखाल दास जैन के अनुसार 1958 आते-आते स्टार 1955 के अपने मेहनताने का तीन गुना लेने लगे थे. हालत यह हो गयी थी कि बिना बड़े नामों के फिल्में बेचना असंभव हो गया था और वितरकों को आकर्षित करने के लिये निर्माता महत्वाकांक्षी फिल्में बनाने की घोषणा करने लगे थे. इस स्थिति के प्रमुख कारण थे- स्वतंत्र निर्माताओं की बढ़ती संख्या, काले धन की भारी आमद, ब

धक्के खाकर ही सीखा है संभलना: राजकुमार हिरानी

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-अजय ब्रह्मात्मज मुन्नाभाई सिरीज की दो फिल्मों और थ्री इडियट की हैट्रिक कामयाबी के बाद राजकुमार हिरानी को दर्शक अच्छी तरह पहचानने लगे हैं। कामयाबी उन्हें काफी कोशिशों के बाद मिली। नागपुर से पूना, फिर मुंबई के सफर में हिरानी की निगाह लक्ष्य पर टिकी रही और उनका सपना साकार हुआ। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत हैं। बचपन के बारे में बताएं? डैड पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी हैं। देश-विभाजन के बाद मां और भाई के साथ उन्हें भारत आना पडा। दादा जी गुजर चुके थे। कुछ समय तक आगरा के पास फिरोजाबाद के रिफ्यूजी कैंप में रहे। फिर काम खोजते हुए नागपुर पहुंचे। कुछ समय नौकरी करने के बाद उन्होंने एक टाइपराइटर खरीदा, जो तब नया-नया शुरू हुआ था। बाद में वह इंस्टीटयूट चलाने लगे। इसके बाद वह टाइपराइटर के वितरक बन गए। मेरी स्मॉल बिजनेस फेमिली में ज्यादातर लोग वकील हैं। बी.कॉम के बाद मुझसे भी चार्टर्ड एकाउंटेंट बनने की अपेक्षा की गई, लेकिन मेरा रुझान थिएटर की तरफ था। कालेज के दिनों में नाटक लिखता था। आकाशवाणी के युववाणी कार्यक्रम के लिए मैंने नाटक लिखे थे। छोटा सा ग्रुप आवाज भी था। कैसे नाटक लिखते थे? दिल्ली-मुंबई