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फिल्‍म समीक्षा : बॉस

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हंसी पर हावी हिंसा  -अजय ब्रह्मात्‍मज  एक्शन के साथ कॉमेडी हो तो दर्शकों का भरपूर यानी पैसा वसूल मसाला मनोरंजन होता है। 'गजनी' से आरंभ यह सोच हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कभी एक्शन, कभी कॉमेडी और कभी दोनों के घोल से बह रही है। हर पॉपुलर स्टार कामयाबी की इस बहती गंगा में गोते लगा रहा है। अक्षय कुमार 'राउडी राठौड़' और 'खिलाड़ी 786' की सफलता के बाद 'बॉस' में और तीव्रता के साथ एक्शन एवं कॉमेडी लेकर लौटे हैं। वे इस फिल्म में निस्संकोच अंदाज में सब कुछ करते हैं ...भद्दे मजाक, फूहड़ संवाद और हास-परिहास। एक्शन फिल्मों में इन दिनों मंथर गति के शॉट से प्रभाव बढ़ाने की कोशिश रहती है। कैमरे ओर लैंस का यह कमाल है कि पांव रखने से उड़ी धूल भी बवंडर लगती है। कांच तो पहले भी टूटता था, लेकिन उनके टूटने की ऐसी खनकदार आवाज और बूंदों की तरह टूटे कांचों का बिखरना कहां सुनाई-दिखाई देता था? 'बॉस' में इन सारी तरकीबों का इस्तेमाल किया गया है। ऐसी फिल्में किसी फैंटेसी की तरह वर्क करती है। यह भी एक फैंटेसी है। हरियाणवी रंग में रंगी। 'बॉस' में कहानी,