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फिल्‍म समीक्षा : धनक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज नागेश कुकुनूर की ‘ धनक ’ छोटू और परी भाई-बहन की कहानी है। वे अपने चाचा-चाची के साथ रहते हैं। चाचा बीमार और निकम्‍मे हें। चाची उन्‍हें बिल्‍कुल पसंद नहीं करती। उनके जीवन में अनेक दिक्‍कतें हैं। भाई-बहन को फिल्‍मों का शौक है। उनके अपने पसंदीदा कलाकार भी है। बहन शाह रुख खान की दीवानी है तो भाई सलमान खान को पसंद करता है। अपने हिसाब से वे पसंदीदा स्‍टारों की तारीफें करते हें। और उनसे उम्‍मीदें भी पालते हैं। भाई की आंखें चली गई हैं। बहन की कोशिश है कि भाई की आंखों में रोशनी लौटे। पिता के साथ एक फिल्‍म देखने के दौरान बहन को तमाम फिल्‍मी पोस्‍टरों के बीच एक पोस्‍टर दिखता है। उस पोस्‍टर में शाह रुख खान ने नेत्रदान की अपील की है। यह पोस्‍टर ही परी का भरोसा बन जाता है। घर की झंझटों के बीच परी और छोटू का उत्‍साह कभी कम नहीं होता। उनका आधा समय तो सलमान और शाह रुख में कौन अच्‍छा के झगड़े में ही निकल जाता है। छोटू जिंदादिल और प्रखर लड़का है। उसे किसी प्रकार की झेंप नहीं होती। हमेशा दिल की बात कह देता है। सच बता देता है। परी और छोटू को पता चलता है कि जैसलमेर में शा

दुनिया में अच्‍छे लोग हैं - नागेश कुकुनूर

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-स्मिता श्रीवास्‍तव नागेश कुकनूर की अगली फिल्म ‘धनक’ है। ‘ धनक ’ का अर्थ इंद्रधनुष है। फिल्‍म को अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर काफी सराहाना मिली है। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में बच्चों की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड भी मिला। पेश है नागेश से की गई बातचीत के प्रमुख अंश : - ‘राकफोर्ड’ के बाद आपने बच्चों साथ फिल्म न बनाने की कसम खाई थी। फिर ‘ धनक ’ कैसे बनाई ? मैंने यह बात इसलिए कही थी क्‍योंकि सेट पर बच्चों को डील करना बेहद कठिन काम होता है। रॉकफोर्ड में ढेर सारे बच्चे थे। उन्हें मैनेज करना बहुत मुश्किल रहा। मेरे खुद के बच्चे अभी नहीं है। लिहाजा मैं उनकी आदतों का आदी नहीं हूं। बच्चों साथ काम करने के दौरान बहुत बातों का ख्याल रखना पड़ता है। उनका मन बहुत कोमल होता है। आपकी कही बातें उनके मन मस्तिष्क में बैठ जाती हैं। आपकी किस बात पर वे क्या सोचते हैं ? उसे उन्होंने किस प्रकार लिया ? यह समझना बहुत मुश्किल है। एक्‍टर साथ यह समस्‍याएं नहीं आतीं। वे आपसे सहमत या असहमत हो सकते हैं। लिहाजा बच्‍चों साथ सोच-विचार कर काम करना होता है। हालांकि मैं सेट पर बच्चों को पुचका

फिल्‍म समीक्षा : लक्ष्‍मी

नागेश कुकुनूर 'हैदराबाद ब्लूज' से दस्तक देने के बाद लगातार खास किस्म की फिल्म निर्देशित करते रहे हैं। बजट में छोटी, मगर विचार में बड़ी उनकी फिल्में हमेशा झकझोरती हैं। 'इकबाल' और 'डोर' जैसी फिल्में दे चुके नागेश कुकुनुर के पास अब अनुभव, संसाधन और स्रोत हैं, लेकिन फिल्म मेकिंग के अपने तरीके में वे गुणवत्ता लाने की कोशिश नहीं करते। 'लक्ष्मी' फिल्म का विचार उत्तम और जरूरी है, लेकिन इसकी प्रस्तुति और निर्माण की लापरवाही निराश करती है। चौदह साल की 'लक्ष्मी' को उसके गांव-परिवार से लाकर अन्य लड़कियों के साथ शहर में रखा जाता है। रेड्डी बंधु अपने एनजीओ 'धर्मविलास' की आड़ में कमसिन और लाचार लड़कियों की जिस्मफरोशी करते हैं। लक्ष्मी भी उनके चंगुल में फंस जाती है। फिर भी मुक्त होने की उसकी छटपटाहट और जिजीविषा प्रभावित करती है। वह किसी प्रकार उनके चंगुल से बाहर निकलती है। बाहर निकलने के बाद वह रेड्डी बंधु को उनके अपराधों की सजा दिलवाने के लिए भरे कोर्ट में फिर से लांछन और अपमान सहती है। 'लक्ष्मी' एक लड़की की हिम्मत और जोश की कहान

फ़िल्म समीक्षा:8x10 तस्वीर

भेद खुलते ही सस्पेंस फिस्स नागेश कुकुनूर ने कुछ अलग और बड़ी फिल्म बनाने की कोशिश में अक्षय कुमार के साथ आयशा टाकिया को जोड़ा और एक नई विधा में हाथ आजमाने की कोशिश की। इस कोशिश में वे औंधे मुंह तो नहीं गिरे, लेकिन उनकी ताजा पेशकश पिछली फिल्मों की तुलना में कमजोर रही। कहा जा सकता है कि कमर्शियल कोशिश में वे कामयाब होते नहीं दिखते। नागेश वैसे निर्देशकों के लिए केस स्टडी हो सकते हैं, जो अपनी नवीनता से चौंकाते हैं। उम्मीदें जगाते हैं, लेकिन आगे चलकर खुद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कोल्हू में जुतने को तैयार हो जाते हैं। अपनी पहली फिल्म हैदराबाद ब्लूज से उन्होंने प्रभावित किया था। डोर तक वह संभले दिखते हैं। उसके बाद से उनका भटकाव साफ नजर आ रहा है। 8/10 तस्वीर में नागेश ने सुपर नेचुरल शक्ति, सस्पेंस और एक्शन का घालमेल तैयार किया है। जय पुरी की अपनी पिता से नहीं निभती। वह उनके बिजनेश से खुश नहीं है। पिता-पुत्र के बीच सुलह होने के पहले ही पिता की मौत हो जाती है। जय को शक है कि उसके पिता की हत्या की गई है। जय अपनी सुपर नेचुरल शक्ति से हत्या का सुराग खोजता है। उसके पास अद्भुत शक्ति है। वह तस्वीर के