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फिल्‍म समीक्षा : सरकार 3

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फिल्‍म रिव्‍यू निराश करते हैं रामगोपाल वर्मा सरकार 3 -अजय ब्रह्मात्‍मज रामगोपाल वर्मा की ‘ सरकार 3 ’ उम्‍मीदों पर खरी नहीं उतरती। डायरेक्‍टर रामगोपाल वर्मा हारे हुए खिलाड़ी की तरह दम साध कर रिंग में उतरते हैं,लेकिन कुछ समय बाद ही उनकी सांस उखड़ जाती है। फिल्‍म चारों खाने चित्‍त हो जाती है। अफसोस,यह हमारे समय के समर्थ फिल्‍मकार का भयंकर भटकाव है। सोच और प्रस्‍तुति में कुछ नया करने के बजाए अपनी पुरानी कामयाबी को दोहराने की कोशिश में रामगोपाल वर्मा और पिछड़ते जा रहे हैं। अमिताभ बच्‍चन,मनोज बाजपेयी और बाकी कलाकारों की उम्‍दा अदाकारी,रामकुमार सिंह के संवाद और तकनीकी टीम के प्रयत्‍नों के बावजूद फिल्‍म संभल नहीं पाती। लमहों,दृश्‍यों और छिटपुट परफारमेंस की खूबियों के बावजूद फिल्‍म अंतिम प्रभाव नहीं डाल पाती। कहानी और पटकथा के स्‍तर की दिक्‍कतें फिल्‍म की गति और निष्‍पत्ति रोकती हैं। सुभाष नागरे का पैरेलल साम्राज्‍य चल रहा है। प्रदेश के मुख्‍यमंत्री की नकेल उनके हाथों में है। उनके सहायक गोकुल और रमण अधिक पावरफुल हो गए हैं। बीमार बीवी ने बिस्‍तर पकड़ लिया है। तेज-तर्रार देशप

'जेड प्लस' के लेखक रामकुमार सिंह से एक बातचीत

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रामकुमार सिंह का यह इंटरव्यू चवन्‍नी के पाठकों के लिए जानकी पुल से लिया गया है। 21 नवम्बर की 'चाणक्य' और 'पिंजर' फेम निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म 'जेड प्लस' रिलीज हो रही है. यह फिल्म हिंदी लेखक रामकुमार सिंह की मूल कहानी पर आधारित है. यह हमारे लिए ख़ुशी की बात है कि एक लेखक ने फिल्म लेखन में दिलचस्पी दिखाई और एक कायदे का निर्देशक मिला जिसने उसकी कहानी की संवेदनाओं को समझा. हम अपने इस प्यारे लेखक की कामयाबी को सेलेब्रेट कर रहे हैं, एक ऐसा लेखक जो फिल्म लिखने को रोजी रोटी की मजबूरी नहीं मानता है न ही फ़िल्मी लेखन को अपने पतन से जोड़ता है, बल्कि वह अपने फ़िल्मी लेखन को सेलेब्रेट कर रहा है. आइये हम भी इस लेखक की कामयाबी को सेलेब्रेट करते हैं. लेखक रामकुमार सिंह से जानकी पुल की एक बातचीत- मॉडरेटर. ============================================== आपकी नजर में जेड प्‍लस की कहानी क्‍या है ? यह एक आम आदमी और प्रधानमंत्री के मिलने की कहानी है। सबसे मामूली आदमी के देश के सबसे महत्‍त्‍वपूर्ण आदमी से मिलने की कहानी। असल में प्रधानमंत्री

सिनेमा की नई संभावना है भोभर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज राजस्थानी शब्द भोभर का शाब्दिक अर्थ होता है राख में दबी आग। गांव के लोग ऐसी आग से परिचित हैं। यह सुलगती और लौ नहीं फेंकती, लेकिन आग की निरंतरता को बनाए रखती है। जयपुर के गजेन्द्र श्रोत्रिय और रामकुमार सिंह ने भोभर की इस तपिश को अपने साथ लिया। उन्होंने अपनी फिल्म का नाम भोभर रखा और दिखा दिया कि सिनेमा की स्थानीय संभावना बची हुई है। हिंदी सिनेमा अभी इसे बुझा नहीं पाया है। भोभर की आग बड़े यत्न से संभाली जाती है। गजेन्द्र और रामकुमार ने निजी प्रयासों से राजस्थानी भाषा में ऐसी फिल्म बनाने की हिम्मत दिखाई, जो प्रचलित फार्मूले का पालन नहीं करती। स्थानीयता के साथ वह राजस्थानी मिट्टी से जुड़ी हो। सिर्फ नाच-गाने के म्यूजिक वीडियो जैसी पैकेजिंग नहीं हो। इन दिनों राजस्थानी सिनेमा भी भोजपुरी की तरह अश्लीलता और फूहड़ता की चाशनी से निकलता है। गजेन्द्र सिंह फिल्म भोभर के निर्माता-निर्देशक हैं। रामकुमार सिंह इसके लेखक-गीतकार हैं। संगीत दान सिंह ने तैयार किया था। फिल्म की रिलीज के कुछ महीने पहले उनका देहांत हुआ। दान सिंह के परिचय में केवल जिक्र होता है जब कयामत का, तेरे जलवों की बात हो

काशी कथा वाया मोहल्ला अस्सी-रामकुमार सिंह

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यह पोस्‍ट रामकुमार सिंह की है।उन्‍होंने बनारस से लौटकर राजस्‍थान पत्रिका में लिख।चवन्‍नी को पसंद आया,इसलिए नकलचेंपी... बनारस के घाटों की गोद में अलसायी सी लेटी गंगा को सुबह सुबह देखिए। सूरज पूर्व से अपनी पहली किरण उसे जगाने को भेजता है और अनमनी सी बहती गंगा हवा की मनुहारों के साथ अंगड़ाई लेती है। नावों के इंजन घरघराते हैं, हर हर महादेव की ध्वनियां गूंजती हैं। लोग डुबकियां लगा रहे हैं। यह मैजिक ऑवर है, रोशनी के लिहाज से। डा.चंद्रप्रकाश द्विवदी निर्देशित फिल्म "मोहल्ला अस्सी" की यूनिट नावों में सवार है। वे इसी जादुई रोशनी के बीच सुबह का शिड्यूल पूरा कर लेना चाहते हैं। काशी की जिंदगी के महžवपूर्ण हिस्से और धर्म की धुरी कहे जाने वाले मोहल्ला अस्सी पर हिंदी के अनूठे कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास "काशी का अस्सी" के शब्दों को पिघलाकर चलते हुए चित्रों में तब्दील किया जा रहा है। यह सिनेमा और साहित्य के संगम का अनूठा अवसर है। हम घूमने बनारस गए हैं और देखा कि वहां शूटिंग भी चल रही है तो यह यात्रा अपने आप में नई हो गई। यह बेहद दिलचस्प है कि एक प्रतिबद्ध वामपंथी लेखक काशीनाथ सि

भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं

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जयपुर. हिंदी सिनेमा केवल मुंबई की बपौती नहीं है और मैं मानता हूं कि हर प्रदेश का अपना सिनेमा होना चाहिए। यह सिनेमा के विकास के लिए जरूरी है। यह बात जाने माने फिल्म पत्रकार अजय बत्मज ने ‘समय, समाज और सिनेमा’ विषय पर हुए संवाद में कही। जेकेके के कृष्णायान सभागार में शनिवार को जवाहर कला केन्द्र और भारतेन्दु हरीश चन्द्र संस्था की ओर से आयोजित चर्चा में उन्होने सिनेमा के जाने अनजाने पहलुओं को छूने की कोशिश की। उन्होने कहा कि मुझे उस समय बहुत खुशी होती है जब मैं सुनता हूं कि जयपुर ,भोपाल या लखनऊ का कोई सिनेमा प्रेमी संसाधन जुटा कर अपनी किस्म की फिल्म बना रहा है। सिनेमा के विकास के लिए उसका मुंबई से बाहर निकलना जरूरी है। साथ ही उन्होने यह बात भी कही कि महाराष्ट्र में जहां मराठी फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों को 15 से 60 लाख तक की सब्सिडी दी जाती है मगर राजस्थान जैसे प्रदेश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। वह कहते हैं कि मुझे आशा है कि भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं होगा। आज के सिनेमा की दशा और दिशा के प्रति आशान्वित अजय ने कहा कि सबसे अच्छी बात जो आज के सिनेमा में देखने को मिल रही है वह यह कि पिछले

भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं

जयपुर. हिंदी सिनेमा केवल मुंबई की बपौती नहीं है और मैं मानता हूं कि हर प्रदेश का अपना सिनेमा होना चाहिए। यह सिनेमा के विकास के लिए जरूरी है। यह बात जाने माने फिल्म पत्रकार अजय बrात्मज ने ‘समय, समाज और सिनेमा’ विषय पर हुए संवाद में कही। जेकेके के कृष्णायान सभागार में शनिवार को जवाहर कला केन्द्र और भारतेन्दु हरीश चन्द्र संस्था की ओर से आयोजित चर्चा में उन्होने सिनेमा के जाने अनजाने पहलुओं को छूने की कोशिश की। उन्होने कहा कि मुझे उस समय बहुत खुशी होती है जब मैं सुनता हूं कि जयपुर ,भोपाल या लखनऊ का कोई सिनेमा प्रेमी संसाधन जुटा कर अपनी किस्म की फिल्म बना रहा है। सिनेमा के विकास के लिए उसका मुंबई से बाहर निकलना जरूरी है। साथ ही उन्होने यह बात भी कही कि महाराष्ट्र में जहां मराठी फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों को 15 से 60 लाख तक की सब्सिडी दी जाती है मगर राजस्थान जैसे प्रदेश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। वह कहते हैं कि मुझे आशा है कि भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं होगा। आज के सिनेमा की दशा और दिशा के प्रति आशान्वित अजय ने कहा कि सबसे अच्छी बात जो आज के सिनेमा में देखने को मिल रही है वह यह कि पिछ