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Showing posts from 2017

शाह रुख खान और आनंद एल राय की जोड़ी का कमाल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज   कल यानी 1 जनवरी 2018 दिन सोमवार को शाम पांच बजे शाह रुख खान और आनंद एल राय अपनी निर्माणाधीन अनाम फिल्‍म के नाम की घोषणा करेंगे। यह भी संकेत मिला है कि वे फिल्‍म की झलकी भी दिखाएंगे। इस अनाम फिल्‍म की घोषणा के बाद से ही दर्शकों के बीच नाम की जिज्ञासा है। चूंकि फिल्‍म का हीरो मेरठ का बौना है,इसलिए सभी मान रहे हैं कि फिल्‍म का नाम ड्वार्फ भी हो सकता है। इन दिनों अंग्रेजी नाम रखने का चलन है। लोगों का मानना निराधार नहीं है। फिल्‍म की योजना और आरंभिक निर्माण के दौरान आनंद एल राय ने हमेशा यही कहा कि नाम तो रख लेंगे...पहले हम अपने विषय और भावनाओं को सलझा लें। कहानी पक्‍की कर लें। कुछ लोग पहले शीर्षक लिख कर कहानी आरंभ करते हैं। वे अपनी कहानी की संभावनाओं और उड़ान से वाकिफ होते हैं। मैा खुद अपने लेखों के शीर्षक पहले नहीं लिख पाता। लेख लिखने के बाद शीर्षक लिखता हूं। रिव्‍यू लिखने के बाद स्‍टार जड़ता हूं। मैंने साथी समीक्षकों को देखा है कि वे फिल्‍म के प्रीव्‍यू से निकलते ही स्‍टार बताने लगते हैं। सभी की अपनी सोच और अपना तरीका। बहरहाल,हम बात कर रहे थे

मुक्काबाज़ और मुक्केबाज़ का फ़र्क़

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- अजय ब्रह्मात्मज मैंने २३ दिसंबर को एक ट्वीट किया था। ... अच्छा चलिए मुक्काबाज़ और मुक्केबाज़ फ़र्क़ बता दीजिये। आम दर्शक भाई लोग भी ट्राई कर सकते हैं। भाई लोगों ने क्या खूब ट्राई किया? वल्लभ खत्री - मुक्काबाज़ गाली और अनादर के तौर पर उपयोग किया जाता है,जबकि मुक्केबाज पेशेवर प्रयोग हैं। अनुराग सर क्या यह सही है? लेखक शसवानी - सौ सुनार की एक लोहार की।  यही फ़र्क़ होता है मुक्काबाज़ और मुक्केबाज़ में। जय हिंद जय भारत। मिर्ची मनोज - मात्रा का फर्क है और मात्रा से किरदार बदल जाता है इंसान का। मुक्काबाज़ लड़ाई जी सकता है,मुक्केबाज़ आदर हासिल करता है। चैतन्य कांबले - भक्त मुक्काबाज़ है, जो मालिक के इशारे पर मुक्का मारता है। मुक्केबाज़ आप अनुराग कश्यप हो, जो दिल और दिमाग के सुनकर मक्का मारता है। सुरेश देवसहाय - बचपन में हम लोग कभी किसी को मुक्का मारा करते थे तो वह टीचर या अपने माता पिता से शिकायत में कहता था,इसने मुझे मुक्का से मारा। शायद वही मुक्काबाज़ है। शिवम - जो सबक सिखा दे,वह मुक्काबाज़। जो प्राण पखेरू उड़ा दे,वह मुक्केबाज़। क्षितिज - एक मुक्का है तो मुक्काबाज़, दो मुक्के हैं तो

फिल्म समीक्षा : फुकरे

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- अजय ब्रह्मात्मज एक पंकज त्रिपाठी और दूसरी रिचा चड्ढा के अलावा इस फिल्म के बाकी कलाकार बहुत सक्रिय नहीं हैं।उन्हें फिल्में नहीं मिल रही हैं। वरुण शर्मा ने जरूर 12 फिल्में की, लेकिन वह अपनी ख़ास पहचान और अदाकारी में ही सिमट कर रह गए हैं। मनजोत सिंह अली फजल और पुलकित सम्राट के करियर में खास हलचल नहीं है। बाकी कलाकारों की निष्क्रियता का संदर्भ इस फिल्म के निर्माण से जुड़ा हुआ है। रितेश सिधवानी और फरहान अख्तर की कंपनी एक्सेल ने किफायत में एक फिल्म बनाकर पिछली सफलता को दोहराने की असफल कोशिश की है। इस कोशिश में ताजगी नहीं है। फुकरे फोकराइन हो गई है। फटे दूध दूध से आ रही गंध को फोकराइन कहते हैं। मूल फिल्म में चार निठल्लों की कहानी रोचक तरीके से कही गई थी उस फिल्म में दिख रही दिल्ली भी थोड़ी रियल और रफ थी। चारों किरदार जिंदगी के करीब थे। उनके साथ आई भोली पंजाबन अति नाटकीय होने के बावजूद अच्छी लगी थी। इस बार भी भोली पंजाबन अच्छी लगी है लेकिन चारों किरदार पुराने रंग और ढंग में नहीं है। हल्के और खोखले होने की वजह से वे जानदार नहीं लगते हैं। इस बार घटनाओं के अभाव में कहानी की कमी खलती है। ले

फिल्म समीक्षा : कड़वी हवा

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फिल्म समीक्षा : कड़वी हवा अवधि : 100 मिनट ***1/2 साढ़े तीन स्टार - अजय ब्रह्मात्मज जिस फिल्म के साथ मनीष मुंद्रा, नीला माधव पांडा, संजय मिश्रा, रणवीर शौरी और तिलोत्तमा शोम जुड़े हों,वह फिल्म खास प्रभाव और पहचान के साथ हमारे बीच आती है। दृश्यम फिल्म्स के मनीष मुंद्रा भारत में स्वतंत्र सिनेमा के सुदृढ़ पैरोकार हैं। वहीं नीला माधव पांडा की फिल्मों में स्पष्ट सरोकार दिखता है। उन्हें संजय मिश्रा, रणवीर शौरी और तिलोत्तमा शोम जैसे अनुभवी और प्रतिबद्ध कलाकार मिले हैं। यह फिल्म उन सभी की एकजुटता का प्रभावी परिणाम है। ऐसी फिल्मों से चालू मनोरंजन की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। हमें देखना चाहिए कि वे सभी अपने कथ्य और नेपथ्य को सही रखते हैं या नहीं? बेघर और बंजर हो रहे मौसम के मारे हेदू और गुणों वास्तव में विपरीत और विरोधी किरदार नहीं है। दहाड़ मार रही बदहाली के शिकार दोनों किरदार एक ही स्थिति के दो पहलू हैं। बुंदेलखंड के महुआ गांव में हेदूअपने बेटे, बहु और दो पोतियों के साथ रहता है गांव के 35 लोग कर्ज में डूबे हुए हैं। उनमें से एक हेदू का बेटा मुकुंद भी है। हेदू अंधा है फिर भी यथाशक्ति वह घ

फ़िल्म समीक्षा : तुम्हारी सुलु

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फ़िल्म समीक्षा - तुम्हारी सुलु अवधि - 140 मिनट **** चार स्टार -अजय ब्रह्मात्मज  सुरेश त्रिवेणी निर्देशित तुम्हारी सुलु मुंबई के उपनगर विरार की एक घरेलू महिला सुलोचना की कहानी है। सुलोचना के परिवार में पति अशोक और बेटा है। मध्यवर्गीय परिवार की सुलोचना अपने पति और बेटे के साथ थोड़ी बेचैन और थोड़ी खुश रहती है। बिल्डिंग और सोसाइटी में होने वाली प्रतियोगिताओं में वह सेकंड या फर्स्ट आती रहती है। इन प्रतियोगिताओं से ही उसने घर के कुछ उपकरण भी हासिल किए हैं। पति अशोक पत्नी सुलोचना की हर गतिविधि में हिस्सा लेता है। सुलोचना अपनी व्यस्तता के लिए नित नई योजनाएं बनाती है और उनमें असफल होती रहती है। पिता और बड़ी बहनें(जुड़वां) उसका मजाक उड़ाती रहती हैं।मायके के सदस्यों के निशाने पर होने के बावजूद वह हीन भावना से ग्रस्त नहीं है। वह हमेशा कुछ नया करने के उत्साह से भरी रहती है। अशोक भी उसका साथ देता है। नित नए एडवेंचर की रुटीन प्रक्रिया में वह एक एफएम चैनल में आरजे बनने की कोशिश में सफल हो जाती है। उसे रात में 'तुम्हारी सुलु' प्रोग्राम पेश करना है,जिसमें उसे श्रोताओं की फोन इन जिज्

करीब करीब सिंगल होती है दिलों से मिंगल : प्रतिभा कटियार

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करीब करीब सिंगल होती है दिलों से मिंगल प्रतिभा कटियार  प्रतिभा कटियार ने फेसबुक पर 'करीब करीब सिंगल' देखने के बाद एक टिप्‍पणी की थी। मुझे लगा कि उन्‍हें थोड़ा विस्‍तार से लिखना चाहिए। इस फिल्‍म के बारे में और भी सकारात्‍मक टिप्‍पणियां दिख रही हैं। अगर आप भी कुछ लिखें तो brahmatmaj@gmail.com पर भेज दें। लंबे समय के बाद आई यह फिल्‍म अलग तरीके से सभी को छू रही है। संवादों के इस शोर में ,  लोगों की इस भीड़ में कोई अकेलापन चुपके से छुपकर दिल में बैठा रहता है, अक्सर बेचैन करता है. जीवन में कोई कमी न होते हुए भी ‘कुछ कम’ सा लगता है. अपना ख्याल खुद ठीक से रख लेने के बावजूद कभी अपना ही ख्याल खुद रखने से जी ऊब भी जाता है. वीडियो चैटिंग, वाट्सअप मैसेज, इंटरनेट, दोस्त सब मिलकर भी इस ‘कुछ कम’ को पूर नहीं पाते. करीब करीब सिंगल उस ‘कुछ’ की तलाश में निकले दो अधेड़ युवाओं की कहानी है. जया और योगी यानी इरफ़ान और पार्वती. योगी के बारे में फिल्म ज्यादा कुछ कहती नहीं हालाँकि योगी फिल्म में काफी कुछ कहते हैं. लेकिन जया के बहाने समाज के चरित्र की परतें खुलती हैं. दोस्त उनके अकेले होने का

फिल्‍म समीक्षा : करीब करीब सिंगल

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फिल्‍म समीक्षा करीब करीब सिंगल -अजय ब्रह्मात्‍मज अवधि- 125 मिनट ***1/2  साढ़े तीन स्‍टार हिंदी में लिखते-बोलते समय क़रीब के क़ के नीचे का नुक्‍ता गायब हो जाता है। आगे हम इसे करीब ही लिखेंगे। ’ करीब करीब सिंगल ’ कामना चंद्रा की लिखी कहानी पर उनकी बेटी तनुजा चंद्रा निर्देशित फिल्‍म है। नए पाठक जान लें कि कामना चंद्रा ने राज कपूर की ‘ प्रेमरोग ’ लिखी थी। यश चोपड़ा की ‘ चांदनी ’ और विधु विनोद चोपड़ा की ‘ 1942 ए लव स्‍टोरी ’ के लेखन में उनका मुख्‍य योगदान रहा है। इस फिल्‍म की निर्माताओं में इरफान की पत्‍नी सुतपा सिकदर भी हैं। एनएसडी की ग्रेजुएट सुतपा ने फिल्‍में लिखी हैं। इरफान की लीक से हटी फिल्‍मों में उनका अप्रत्‍यक्ष कंट्रीब्‍यूशन रहता है। इस फिल्‍म की शूटिंग में इरफान के बेटे ने भी कैमरे के पीछे हिस्‍सा लिया था। तात्‍पर्य यह कि ‘ करीब करीब सिंगल ’ कई कारणों से इसके अभिनेता और निर्देशक की खास फिल्‍म है। यह खासियत फिल्‍म के प्रति तनुजा चंद्रा और इरफान के समर्पण में भी दिखता है। फिल्‍म के प्रमोशन में इरफान की खास रुचि और हिस्‍सेदारी सबूत है। इस फिल्‍म की पहली

दरअसल : हीरोइनें हैं बराबर और आगे

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दरअसल... हीरोइनें हैं बराबर और आगे -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में पुरुषों के वर्चस्‍व की बात की जाती है। सभी मानते और जानते हैं कि हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री ‘ मेल डोमिनेटेड ’ है....जैसे कि पूरा समाज है। यहां हीरो को ज्‍यादा पैसे मिलते हैं। फिल्‍मों के हिट होने का श्रेय हीरो ही ले जाता है। हीरोइनों के बारे में तभी अलग से लिखा और श्रेय दिया जाता है,जब फिल्‍म ‘ हीरोइन ओरियेंटेड ’ होती है। यही धारणात्‍मक सच्‍चाई है। पिछले दिनों एक ट्रेड मैग्‍जीन ने पिछले नौ सालों में देश की भिन्‍न टेरिटरी में सर्वाधिक लोकप्रिय रहे स्‍टारों की लिस्‍ट छापी है। उसे गौर सेपढ़ें तो रोचक तथ्‍य सामने आते हैं1 देश में मुंबई,दिल्‍ली-यूपी,ईस्‍ट पंजाब,सीपी,सी आई,राजस्‍थान,निजाम एपी,मैसूर,वेस्‍ट बंगाल,बिहार-झारखंड,असम,ओडिसा और टीएनके 13 टेरिटरी हैं। इनमें कलेक्‍शन के हिसाब से सबसे बड़ी टेरिटरी मुंबई है। मुंबई में आमिर खान सबसे अधिक कलेक्‍शन के साथ नंबर वन पर हैं। नौ सालों में उनकी छह फिल्‍में रिलीज हुईं और उनसे 4 अरब 10 करोड़ का कलेक्‍शन हुआ। हालांकि कुल कलेक्‍शन में शाह रुख खान आगे रह

पिता-पुत्र के रिश्‍तों का अनूठा ‘रुख’ : मनोज बाजपेयी

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पिता-पुत्र के रिश्‍तों का अनूठा ‘ रुख ’ : मनोज बाजपेयी कद्दावर कलाकार मनोज बाजपेयी की आज ‘ रुख ’ रिलीज हो रही है। मध्‍यवर्गीय परिवार के तानेबाने पर फिल्‍म मूल रूप से केंद्रित है। आगे मनोज की ‘ अय्यारी ’ व अन्‍य फिल्‍में भी आएंगी।     -अजय ब्रह्मात्‍मज ‘ रुख ’ का परिवार आम परिवारों से कितना मिलता-जुलता है ? यह कितनी जरूरी फिल्‍म है ? यह मध्‍य वर्गीय परिवारों की कहानी है। इसमें रिश्‍ते आपस में टकराते हैं। इसकी सतह में सबसे बड़ा कारण पैसों की कमी है। एक मध्‍य या निम्‍नवर्गीय परिवार में पैसों को लेकर सुबह से जो संघर्ष शुरू होता है , वह रात में सोने के समय तक चलता रहता है। ज्यादातर घरों में ये सोने के बाद भी अनवरत चलता रहता है। खासकर बड़े शहरों में ये उधेड़बुन चलता रहता है। इससे रिश्‍ते अपना मतलब खो देते हैं। वैसे दोस्त नहीं रह जाते , जो हमारे स्‍कूल - कॉलेज या फिर एकदम बचपन में जो होते हैं। इनके मूल में जीवन और जीविकोपार्जन की ऊहापोह है। इन्हीं रिश्‍तों और भावनाओं के बीच की जटिलता और सरलता को दर्शाती हुई यह एक ऐसी फिल्‍म है , जिसकी कहानी के केंद्र में एक मृत्‍यु होती है। स