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फिल्‍म समीक्षा : सुल्‍तान

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जोश,जीत और जिंदगी -अजय ब्रह्मात्‍मज अली अब्‍बास जफर ने हरियाणा के बैकड्राप में रेवाड़ी जिले के बुरोली गांव के सुल्‍तान और आरफा की प्रेमकहानी में कुश्‍ती का खेल जोड़ कर नए तरीके से एक रोचक कथा बुनी है। इस कथा में गांव,समाज और देश के दूसरी जरूरी बातें भी आ जाती हैं,जिनमें लड़कियों की जिंदगी और प्रगति का मसला सबसे अहम है। लेखक और निर्देशक अली अब्‍बास जफर उन पर टिप्‍पणियां भी करते चलते हैं। उन्‍होंने शुरू से आखिर तक फिल्‍म को हरियाणवी माटी से जोड़े रखा है। बोली,भाषा,माहौल और रवैए में यह फिल्‍म देसी झलक देती है। एक और उल्‍लेखनीय तथ्‍य है कि ‘ सुल्‍तान ’ में नायक-नायिका मुसलमान हैं,लेकिन यह फिल्‍म ‘ मुस्लिम सोशल ’ नहीं है। हिंदी फिल्‍मों में ऐसे प्रयास लगभग नहीं हुए हैं। यह हिंदी की आम फिल्‍म है,जिसके चरित्र आसपास से लिए गए हैं। अली अब्‍बास जफर की इस कोशिश की अलग से सराहना होनी चाहिए। सुल्‍तान गांव का नौजवान है। वह अपने दोस्‍तों के साथ पतंग लूटने और मौज-मस्‍ती करने में खुश रहता है। उसका अजीज दोस्‍त गोविंद है। उनकी अचानक टक्‍कर आरफा से हो जाती है। आरफा अपने एटीट्यूड से

ओलंपिक से मिला आइडिया - अली अब्‍बास जफर

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अजय ब्रह्मात्मज अली अब्बास जफर वक्त के साथ और परिपक्व हुए हैं। यशराज बैनर के संग उनका नाता पुराना है। ‘मेरे ब्रद्रर की दुल्हन’, ‘गुंडे’ के बाद अब वे ‘सुल्तान’ लेकर आए हैं। यहां वे इंडस्ट्री के सबसे बड़े सितारे के संग काम कर रहे हैं। अली बताते हैं, ‘ मैं वक्त के साथ कितना प्रबुद्ध हुआ हूं, यह तो ‘सुल्तान’ व भविष्‍य की फिल्में तय करेंगी। मैं जहां तक अपने सफर को समझ पाया हूं तो मेरे काम में अतिरिक्त ठहराव आया है। मैंने पहली फिल्म ‘मेरे ब्रद्रर की दुल्हन’ महज 27-28 में बना ली थी। उसकी कहानी तो मैंने 26 साल में ही लिख ली थी। तब मैं बुलबुले की भांति था। उस बुलबुले में काफी ऊर्जा थी। उस वक्त मैं अपना सब कुछ देकर फटने को आतुर था। उस फिल्म के चलने की वजह भी यही थी कि मैंने वह फिल्म जिस ऑडिएंस के लिए व जिन कलाकारों के संग बनाई थी, वह जुड़ाव स्‍थापित करने में सफल रही थी। उसमें ऐसे मुद्दे थे, जो तत्कालीन समाज के हालात थे। ‘गुंडे’ के वक्त चुनौतियां थीं। मैंने जिस दौर की कहानी के साथ डील किया था, उस वक्त तो मैं पैदा भी नहीं हुआ था। ऐसी कहानी कह रहा था, जिसमें विभाजन व माइग्रेशन का दर्द

फिल्‍म समीक्षा : गुंडे

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दोस्ती-दुश्मनी की चटख कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज यशराज फिल्म्स की अली अब्बास जफर निर्देशित 'गुंडे' देखते समय आठवें दशक की फिल्मों की याद आना मुमकिन है। यह फिल्म उसी पीरियड की है। निर्देशक ने दिखाया भी है कि एक सिनेमाघर में जंजीर लगी हुई है। यह विक्रम और बाला का बचपन है। वे बडे होते हें तो 'मिस्टर इंडिया' देखते हैं। हिंदी फिल्में भले ही इतिहास के रेफरेंस से आरंभ हों और एहसास दें कि वे सिनेमा को रियल टच दे रही हैं, कुछ समय के बाद सारा सच भहरा जाता है। रह जाते हैं कुछ किरदार और उनके प्रेम, दुश्मनी, दोस्ती और बदले की कहानी। 'गुंडे' की शुरुआत शानदार होती है। बांग्लादेश के जन्म के साथ विक्रम और बाला का अवतरण होता है। श्वेत-श्याम तस्वीरों में सब कुछ रियल लगता है। फिल्म के रंगीन होने के साथ यह रियलिटी खो जाती है। फिर तो चटखदार गाढ़े रंगों में ही दृश्य और ड्रामा दिखाई पड़ते हैं। लेखक-निर्देशक अली अब्बास जफर ने बिक्रम और बाला की दोस्ती की फिल्मी कहानी गढी है। ऐसी मित्रता महज फिल्मों में ही दिखाई पड़ती है, क्योंकि जब यह प्रेम या किसी और वजह से टूटती है तो

फिल्‍म समीक्षा : मेरे ब्रदर की दुल्‍हन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पंजाब की पृष्ठभूमि से बाहर निकलने की यशराज फिल्म्स की नई कोशिश मेरे ब्रदर की दुल्हन है। इसके पहले बैंड बाजा बारात में उन्होंने दिल्ली की कहानी सफल तरीके से पेश की थी। वही सफलता उन्हें देहरादून के लव-कुश की कहानी में नहीं मिल सकी है। लव-कुश छोटे शहरों से निकले युवक हैं। ने नए इंडिया के यूथ हैं। लव लंदन पहुंच चुका है और कुश मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में आ गया है। उल्लेखनीय है कि दोनों का दिल अपने छोटे शहर की लड़कियों पर नहीं आया है। क्राइसिस यह है कि बड़े भाई लव का ब्रेकअप हो गया है और वह एकबारगी चाहता है कि उसे कोई मॉडर्न इंडियन लड़की ही चाहिए। बड़े भाई को यकीन है कि छोटे भाई की पसंद उससे मिलती-जुलती होगी, क्योंकि दोनों को माधुरी दीक्षित पसंद थीं। किसी युवक की जिंदगी की यह क्राइसिस सच्ची होने के साथ फिल्मी और नकली भी लगती है। बचे होंगे कुछ लव-कुश, जिन पर लेखक-निर्देशक अली अब्बास जफर की नजर पड़ी होगी और जिनका प्रोफाइल यशराज फिल्म्स के आदित्य चोपड़ा को पसंद आया होगा। इस क्राइसिस का आइडिया रोचक लगता है, लेकिन कहानी रचने और चित्रित करने में अली अब्बास जफर ढीले प