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हिंदी टाकीज द्वितीय : फिल्‍में देखने का दायरा बढ़ा है और सलीका भी - मनीषा पांडे

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लंबे अंतराल के बाद हिंदी टाकीज की नई कड़ी। आखिर मनीषा पांडे ने लिख दिया और चवन्‍नी उये यहां अविकल प्रस्‍तुत कर रहा है।मनीषा में एक बेचैनी और क्रिएटिव कंफ्यूजन है,जो उन्‍हें अपनी उम्र की दूसरी लड़कियों से अलग कद देता है। वह पड़ी-लिखी और सुसंगत विचारों की हैं। उनके व्‍यक्तित्‍व में एक जल्‍दबाजी है। अपने परिचय में वह लिखती हैं ... 11 सितंबर, 1980 को इलाहाबाद में जन्‍म हुआ। जैसे जैसे बड़े हुए ये जानने की जद्दोजहद में उम्र गुजरी कि हम कौन हैं, क्‍यों हैं और हमारे जीवन का मकसद क्‍या है? होश के साथ जो चारों ओर लोगों को बदहवासियों में दौड़ते पाया तो लगा क्‍या इस दौड़ में शामिल हो जाने को ही आए हैं हम भी। शायद नहीं। न आएं हो तब भी दौड़ रहे हैं उसी भीड़ में। सीधे शब्‍दों में कहूं तो पत्रकार हूं, भोपाल में दैनिक भास्‍कर के फीचर एडीटर के पद पर शोभायमान। पर ये वो नहीं है, जो चाहा है जिंदगी से। जो चाहा है, वो अभी ना के बराबर किया है। फिर भी उम्‍मीद रौशन है कि एक दिन जरूर वो करेंगे, जो चाहते हैं। संसार के हर सुख, हर गम से बेपरवाह निकल पड़ेंगे अपनी यायावरी पर। घूमेंगे जहान में, देखेंगे दुनिया और लिखे

हिन्दी टाकीज:फिल्मी गानों की किताब ने खोली पोल-ममता श्रीवास्तव

हिन्दी टाकीज-२८ इस बार ममता श्रीवास्तव.ममता गोवा में रहती हैं और ममता टीवी नाम से ब्लॉग लिखती हैं.चवन्नी इनका नियमित पाठक है.ममता की आत्मीय शैली पाठकों से सहज रिश्ता बनती हैं और उनकी बातें किसी कहानी सी महसूस होती हैं.चवन्नी ने उनसे आग्रह किया था इस सीरिज के लिए.ममता ने लेख बहुत पहले भेज दिया था,लेकिन तकनीकी भूलों की वजह से यह लेख पहले पोस्ट नहीं हो सका.उम्मीद है ममता माफ़ करेंगीं और आगे भी अपने संस्मरणों को पढने का मौका देंगीं। चवन्नी ने कई महीनों पहले जब हिन्दी टाकीज नाम से ब्लॉग शुरू किया था तब उन्होंने हमसे भी इस ब्लॉग पर सिनेमा से जुड़े अपने अनुभव लिखने के लिए कहा था पर उसके बाद कुछ महीनों तक तो हमने ब्लॉग वगैरा लिखना-पढ़ना छोड़ दिया था इस वजह से हमने हिन्दी टाकीज पर भी कुछ नही लिखा ।इतने सारे अनुभव और यादें है कि समझ नही आ रहा है कहाँ से शुरू करुँ । पर खैर आज हम cinema से जुड़े अपने अनुभव आप लोगों से बाँटने जा रहे है । सिनेमा या फ़िल्म इस शब्द का ऐसा नशा था क्या अभी भी है कि कुछ पूछिए मत ।वैसे भी ६०-७० के दशक मे film देखने के अलावा मनोरंजन का कोई और ख़ास साधन भी तो नही था । बचप