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Showing posts from August, 2013

फिल्‍म समीक्षा : सत्‍याग्रह

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज                    इस फिल्म के शीर्षक गीत में स्वर और ध्वनि के मेल से उच्चारित 'सत्याग्रह' का प्रभाव फिल्म के चित्रण में भी उतर जाता तो यह 2013 की उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक फिल्म हो जाती। प्रकाश झा की फिल्मों में सामाजिक संदर्भ दूसरे फिल्मकारों से बेहतर और सटीक होता है। इस बार उन्होंने भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया है। प्रशासन के भ्रष्टाचार के खिलाफ द्वारिका आनंद की मुहिम इस फिल्म के धुरी है। बाकी किरदार इसी धुरी से परिचालित होते हैं।               द्वारिका आनंद ईमानदार व्यक्ति हैं। अध्यापन से सेवानिवृत हो चुके द्वारिका आनंद का बेटा भी ईमानदार इंजीनियर है। बेटे का दोस्त मानव देश में आई आर्थिक उदारता के बाद का उद्यमी है। अपने बिजनेस के विस्तार के लिए वह कोई भी तरकीब अपना सकता है। द्वारिका और मानव के बीच झड़प भी होती है। फिल्म की कहानी द्वारिका आनंद के बेटे की मृत्यु से आरंभ होती है। उनकी मृत्यु पर राज्य के गृहमंत्री द्वारा 25 लाख रुपए के मुआवजे की रकम हासिल करने में हुई दिक्कतों से द्वारिका प्रशासन को थप्पड़ मारते हैं। इस अपराध

आजाद हुई हैं लड़कियां-परिणीति चोपड़ा

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-अजय ब्रह्मात्मज परिणीति चोपड़ा की तीसरी फिल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ 4 सितंबर को रिलीज हो रही है। मनीष शर्मा निर्देशित इस फिल्‍म में वह सुशांत सिंह राजपूत और वाणी कपूर के साथ दिखेंगी। ‘शुद्ध देसी रोमांस’ जयपुर की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म है। इसका लेखन जयदीप साहनी ने किया है। - क्या है गायत्री ? 0 अभी आपने गानों में देखा होगा कि बहुत ही एनर्जेटिक फन लडक़ी है,लेकिन पिक्चर में बिल्कुल ऐसी नहीं है। पिक्चर में खामोश और उलझी लडक़ी है,जिसने बहुत उतार-चढ़ाव, बहुत ब्वाय फ्रेंड्स देखे हैं। अनेक रिलेशनशिप में रही है। वह सुशांत को बोलती है कि तुम मेरा टाइम वेस्ट मत करो। मुझे सब पता है। उसके साथ रहने लगती ह ैतो किसी की परवाह नहीं करती है। बहुत ही अच्छी लडक़ी है। - जयपुर में रहते हुए? 0 जी, जयपुर में रहते हुए। बहुत ही इंटरेस्टिंग कैरेक्टर है। आप पिक्चर देखेंगे तो मजा आएगा। जयपुर के  लोगों की सोच बदल गई है। अब लोग ये नहीं सोचते हैं कि ये गलत है और वो सही है। जो लोगों के दिल में आता है करते हैं। गायत्री जैसी लड़कियां भरी पड़ी हैं इंडिया में। वह लूज कैरेक्टर नहीं है। वह इंडेपेंडेट स्वभाव की है। उसे पता है

दरअसल : वीकएंड कलेक्शन का शोर-शराबा

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-अजय ब्रह्मात्मज अभी यह देखना ही नहीं है कि चल रही फिल्म किस हिसाब से उत्तम और मनोरंजक है। रिलीज के पहले विमर्श आरंभ हो जाता है कि इस हफ्ते रिलीज हो रही फिल्म 100 करोड़ का कलेक्शन करेगी कि नहीं? पत्रकार भी आजकल निर्माता, निर्देशक और स्टार से यही सवाल पूछते हैं कि क्या आप की फिल्म 100 करोड़ का आंकड़ा पार करेगी? अजीब सी होड़ है। 100 करोड़ क्लब में आने को सभी बेताब हैं। 100 करोड़ क्लब में शामिल होने के बाद ही हीरो को सही स्टार माना जा रहा है। जैसे कि ‘ये जवानी है दीवानी’  के बाद रणबीर कपूर खानत्रयी, अक्षय कुमार और अजय देवगन की पंगत में आ गए।     पहले दिन से लेकर पहले वीकएंड तक में कलेक्शन का यह शोर-शराबा चलता है। उसके बाद न तो दर्शकों को सुधि रहती है और न निर्माता-निर्देशक याद रखते हैं। फिल्मों की लोकप्रियता की मियाद छोटी हो गई है। बॉक्स ऑफिस पर पॉपुलर फिल्म भी तीन-चार हफ्तों से ज्यादा नहीं टिक पाती। 50 दिन और 100 दिन महज गिनती हैं। पूरे होने पर भी तसल्ली नहीं मिलती। हफ्ता बीतने के साथ दर्शकों की कतार ढीली और पतली होती जाती है। अभी चर्चा में चल रही ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ 100 करोड़ क्लब मे

डायरेक्‍टर ही बनना था-रितेश बत्रा

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गजेन्‍द्र सिंह भाटी के फिलम सिनेमा से साभार  इस साल कान अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव- 2013 में इस फ़िल्म को बड़ी सराहना मिली है। वहां इसे क्रिटिक्स वीक में दिखाया गया। रॉटरडैम अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के सिनेमार्ट- 2012 में इसे ऑनरेबल जूरी मेंशन दिया गया। मुंबई और न्यू यॉर्क में रहने वाले फ़िल्म लेखक और निर्देशक रितेश बत्रा की ये पहली फीचर फ़िल्म है। उन्होंने इससे पहले तीन पुरस्कृत लघु फ़िल्में बनाईं हैं। ये हैं ‘ द मॉर्निंग रिचुअल ’, ‘ ग़रीब नवाज की टैक्सी ’ और ‘ कैफे रेग्युलर , कायरो ’ । दो को साक्षात्कार के अंत में देख सकते हैं। 2009 में उनकी फ़िल्म पटकथा ‘ द स्टोरी ऑफ राम ’ को सनडांस राइटर्स एंड डायरेक्टर्स लैब में चुना गया। उन्हें सनडांस टाइम वॉर्नर स्टोरीटेलिंग फैलो और एननबर्ग फैलो बनने का गौरव हासिल हुआ। अब तक दुनिया की 27 टैरेटरी में प्रदर्शन के लिए खरीदी जा चुकी ‘ डब्बा ’ का निर्माण 15 भारतीय और विदेशी निर्माणकर्ताओं ने मिलकर किया है। भारत से सिख्या एंटरटेनमेंट , डीएआर मोशन पिक्चर्स और नेशनल फ़िल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएफडीसी) और बाहर एएसएपी फिल्म्स

एक्शन,ऐडवेंचर और एक्ट्रेस

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-सौम्‍या अपराजिता  एक्शन और ऐडवेंचर की जब बात होती है,तो एक्शन छवि वाले अभिनेताओं की तस्वीर आँखों के सामने दौड़ जाती है। ...और अभिनेत्रियों के  हिस्से 'कोमल','खूबसूरत' और 'ग्लैमरस' जैसे विशेषण ही आते हैं । ...हालांकि, कुछ अभिनेत्रियां हैं जो शिद्दत से अपने साथ जुड़े इन विशेषणों को हाशिए पर रखकर एक्शन और ऐडवेंचर जैसे शब्दों के साथ खुद को जोड़ना चाहती हैं। वे चाहती हैं कि अपने सह अभिनेताओं की तरह वे भी  एक्शन और रोमांच का ताना-बाना पर्दे पर पेश करें। वे 'एक्शन स्टार' बनना चाहती हैं और बता देना चाहती हैं कि यदि अवसर दिया जाए तो उनमें भी विलेन के छक्के छुड़ाने का दम-ख़म है। सिर्फ नाच-गाना नहीं दरअसल , रोमांटिक और नाच-गाने वाली भूमिकाओं से अभिनेत्रियां ऊब चुकी हैं। लद गए वे दिन जब अभिनेत्रियां फिल्मों में थोड़े बहुत नाच-गाने और रोने-धोने वाली  भूमिकाओं से संतुष्ट हो जाती थी। अब उन पर भी बदलते समय ने अपना प्रभाव डालना शुरू कर दिया है। अब वे भी अभिनेताओं की तरह एक्शन में हाथ आजमाना चाहती हैं। अभिनेत्रियों के मन के किसी कोने में दबी इस बात

भाषा का सवाल और फ़िल्मी सदी का पैग़ाम-रविकांत

नया पथ के लिए लिखा रविकांत का आलेख चवन्‍नी के पाठकों के लिए। इसे हम ने बरगद से लिया है।  हलाँकि फ़िल्म हिन्दी में बन रही है, लेकिन (ओंकारा के) सेट पर कम-से-कम पाँच भाषाएँ इस्तेमाल हो रही हैं। निर्देशन के लिए अंग्रेज़ी, और हिन्दी चल रही है। संवाद सारे हिन्दी की एक बोली में हैं। पैसे लगानेवाले गुजराती में बातें करते हैं, सेट के कर्मचारी मराठी बोलते हैं, जबकि तमाम चुटकुले पंजाबी के हैं। - स्टीफ़ेन ऑल्टर, फ़ैन्टेसीज़ ऑफ़ अ बॉलीवुड लव थीफ़  पिछले सौ साल के तथाकथित ‘हिंदी सिनेमा’ में इस्तेमाल होनेवाली भाषा पर सोचते हुए फ़ौरन तो यह कहना पड़ता है कि बदलाव इसकी एक सनातन-सी प्रवृत्ति है, इसलिए कोई एक भाषायी विशेषण इसके तमाम चरणों पर चस्पाँ नहीं होता है। आजकल ‘बॉलीवुड’ का इस्तेमाल आम हो चला है, गोकि इसके सर्वकालिक प्रयोग के औचित्य पर मुख़ालिफ़त की आवाज़ें विद्वानों के आलेखों और फ़िल्मकारों की उक्तियों में अक्सरहाँ पढ़ी-सुनी जा सकती हैं। [1] ग़ौर से देखा जाए तो बंबई फ़िल्म उद्योग के लिए ‘बॉलीवुड’ शब्द की लोकप्रियता और सिने-शब्दावली में ‘हिंगलिश’ की प्रचुरता एक ही दौर के उत्पा